शनिवार, मई 23, 2020

चम्बल एक नदी का नाम

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने
अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब
पिलाई अपने बलात्कारियों को
और पेड़ों से बाँध कर
उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए


इस कविता में गुस्सा है लेकिन वह एक जायज़ गुस्सा है .. स्त्रियों को किस तरह अपमानित किया जा रहा है आप सब जानते हैं .  नरेश  सक्सेना मेरे प्रिय कवि हैं . उनकी एक कविता ' चम्बल एक नदी का नाम " यहाँ प्रस्तुत  कर रहा हूँ ..इस कविता में अर्थ बहुत गहरे हैं ..आप इस कविता की पंक्तियों को पढ़कर दहल जायेंगे .



नरेश सक्सेना की कविता

चम्बल एक नदी का नाम

यमुना, गंगा, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनन्दा
यह तो लड़कियों के नाम हैं
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

जबकि, चम्बल वह अकेली और अभागी नदी है
जो पुराणों में वर्णित अपने स्वरूप को
आज तक कर रही है सार्थक,
चम्बल में पानी नहीं ख़ून बहता है,
चम्बल में मछलियाँ नहीं लाशें तैरती हैं
चम्बल प्रतिशोध की नदी है
और वह कौनसी लड़की है
जो प्रतिशोध और ख़ून से भरी नहीं है
और जिसमें लाशें नहीं तैरतीं,
फिर भी शारदा, सई क्षिप्रा, कालिन्दी तो -लड़कियों के नाम हैं
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

और वे नदियाँ
जिनके नामों पर रखे गए लड़कियों के नाम
और जो स्वर्ग से उतरीं थीं, धरती पर हमें तारनें
आज़ खुद अपने तारे जाने के लिए तरस रही हैं
भक्तों के मल-मूत्र से
वमन और विष्ठा और बलग़म से भर कर
वे हो गई है कुम्भी पाक,
लेकिन उसी मल-मूत्र और वमन और विष्ठा से
दिया जा रहा सूर्य को अर्ध्य
ओम् भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर वरेण्यम...

चम्बल पर कब्ज़े के लिए हुए
देंवों और दानवों में युद्ध इस कदर
कि रक्त और चर्म से भर कर वह कहलाई चर्मणवती, चर्मवती
यानि चाम वाली चम्बल
आज जबकि बाज़ार आमादा है,
हर माता को चर्मवती बना देने के लिए
और कुछ अभागिनों को तो बना ही दिया जाता है चर्मवती

फिर भी
कल्याणी, सिन्धु और जाह्नवी
भागीरथी, सोन रेखा, नर्मदा, सरयू-मन्दाकिनी
तो लड़कियों के नाम हैं,
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

देखो कितनी सारी नदियों के तो नाम ही नहीं आए
उन करोड़ों-करोड़ नदियों के नाम
जो सुखा दी गई स्रोत पर ही, रह गई अनाम

याद करो वह नदी
जो इतिहास में तो है, भूगोल में नहीं है
वह विद्या और बुद्धि की नदी, सरस्वती
तो शायद शर्म से ही धरती में समा गई
वह गोया, अब अपनी क़ब्र में ही बहती है
चम्बल की बेटियों के नाम हुए,
फूलन देवी, कुसुमा नाइन, गुल्लो बेड़िन
फूल, कुसुम और गुल,
लेकिन फूलों के नाम वाली ये बेटियाँ फूल नहीं थीं
फूलो को नंगा नहीं किया जाता,
झोटा पकड़ कर घसीटा नहीं जाता
फूलों को जलती हुई बीड़ियों से दागा नहीं जाता

कोमल अंगों में मिर्ची भर कर
कबुलवाया नहीं जाता कि
वे डायनें हैं
शिशुओं के नर्म कलेजे चाट-चाट कर खाती हैं
वे ही लाती हैं बाढ़ महामारी, अकाल, दुर्भाग्य
मुक़दमें वे ही हरवाती हैं

हाथ डुबोए गए खौलते हुए तेल में
और फफोले पड़ते ही अपराध सिद्ध हो गए
गिद्ध हो गए पंच परमेश्वर
और सभी जन
कांकर, पाथर, चिरई, कूकुर, भेड़ हो गए
घास हो गए, पेड़ हो गए
फूलों के मुँह से निकली कुछ बुदबुद पर चिल्लाया ओझा
लो सुनलो, इसने स्वयं कुबूला अपना डायन होना
अब ये मेरे हाथों मुक्ति चाहती हैं

चौदह की या पन्द्रह की, गुल्लो बेड़िन ने जब देखा
पूरी पंचायत हत्यारी है
और अगली उसकी बारी है
तो जान बचा कर भागी

कुछ कहते गुल्लो नागिन थी
कुछ कहते बस, नचने वाली बैरागिन थी
कैसी दाग़ी, कैसी बाग़ी
कहते हैं डाकू लाखन ने पीछे से
और पुलिस ने उसके सीने पर गोली दागी

उस पर ना कोई लेख
न ही अभिलेखों में उल्लेख
पुलिस का कहना है, किंवदन्ती है
आज भी किन्तु, गोहद बेसली नदी वाली
राहों से राही बचते हैं
कहते हैं सारी रात वहां गुल्लो के घुंघरू बजते हैं

धूप में पजर कर
जब फूलों के तलवों में पड़ गई बिवाइयाँ
ओठों पर पपडिय़ाँ, चेहरों पर झाइयाँ
बाल जटा जूट, सूजी हुई पलकें, सूजी हुए पाँव
नींद से भरी आखें लाल
और झुलसी हुई खाल
इस तरह
जब उनकी सारी कोमलता को कर दिया नष्ट
और रुह को कुरूप
तब कहा
ये हैं दस्यु सुंदरियाँ 

कुत्तों और सियारों के रोने की आवाज़ों में
उनके रोने की आवाज़
तेज आंधियों में चट्टानों से टकरा
बहते पानी में होती उनके होने की आवाज़

पछुआ चले तो पच्छिम से आती है
उनके रोने की आवाज़
और पुरवा चले तो पूरब से आती है उनके रोने की आवाज़
और जब किसी दिशा में चलती नहीं हवाएँ
होती है सायं-सायं
तब लोग समझ लेते हैं
यह उनकी बेहोशी की आवाज़
गर्दन तक चलती हुई छुरी की खिस्स-खिस्स
शामिल होती कीर्तन के ढोल धमाकों में

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने
अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब
पिलाई अपने बलात्कारियों को
और पेड़ों से बाँध कर
उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए

फूल कैसे हुए पत्थर
और पत्थर कैसे हुए रेत
यह फूलों के रेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के खेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के प्रेत हो जाने की कथा है ।

प्रस्तुति शरद कोकास 

17 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. मैं तो उबर नहीं पाता इसे पढ़कर । आप संवेदना के साथ इससे जुड़ीं , आपका शुक्रिया।

      हटाएं
  2. यह कविता नि:शब्द कर देती है

    जवाब देंहटाएं
  3. यह कविता पढ़ते हुए जैसे रूह कांप गई भैया ! बहुत ही गहरी सनवेदना के बूते ही ऐसी कविता सिरजी जा सकती है ! यह कभी न् भुलाई जाने वाली कविता है !

    जवाब देंहटाएं
  4. आह , अन्दर तक खरोंच देने वाली कविता .

    जवाब देंहटाएं
  5. हर शब्द मुखर हो बताता है चम्बल को और चम्बल की घाटियाँ पनाहगार रही हैं बागियों की ।

    जवाब देंहटाएं
  6. कविता पढ़कर मन काँप गया। नदियाँ, घाटियाँ, वन, फूल, सबकी चीख़ मन को चीर रही है। कितना ख़ौफ़नाक है सबकुछ। बेहद गहन और संवेदनापूर्ण रचना।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. आपने सही कहा इसे पढ़ते हुए मन काँप जाता है

      हटाएं