घर के सामने से जब भी कोई रद्दीवाला या कबाड़ी गुजरता है ,आवाज़ देता हुआ ..लोहा, टीना ..प्लास्टिक .. रद्दी पेपर .. तो मुझे लगता है काश कोई कबाड़ी ऐसा भी होता जो इस पुरानी सड़ी - गली व्यवस्था को ले लेता और बदले में कोई नई व्यवस्था दे देता .. । लेकिन ऐसा भी कभी होता है ? पुरानी व्यवस्था के बदले नई व्यवस्था इतने आसान तरीके से आ जाती तो क्या बात थी । कुछ ऐसे ही विचारों को प्रतिबिम्बित करती 1989 की एक और कविता ..
51 कबाड़
व्यवस्था की ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर
देश के नाम दौड़ने वालों के
घिसे हुए पुर्ज़े
मरम्मत के लायक नहीं रहे
मशीनी जिस्म के
ऊपरी खाने में रखा
मस्तिष्क का ढाँचा
मरे जानवर की तरह
सड़ांध देता हुआ
वैसे ही जैसे दाँतों और तालू को
लुभावने वादों के
निश्चित स्थान पर छूती
शब्दों के दोहराव में उलझी जीभ
और
पूजाघर के तैलीय वस्त्रों से
पुनरुत्थानवादी विचार
फटे पुराने बदबूदार
सड़क से गुजरता है
आवाज़ देता हुआ कबाड़ी
पुराना देकर नया ले लो ।
शरद
कोकास
मशीनी जिस्म के
जवाब देंहटाएंऊपरी खाने में रखा
मस्तिष्क का ढाँचा
मरे जानवर की तरह
सड़ांध देता हुआ...............पर कभी कभी ये मस्तिष्क अपनों के लिए भी काम करता हैं और अच्छी सोच भी रखता हैं
धन्यवाद अंजू जी
हटाएंहमें सदा ही नये की तलाश है..
जवाब देंहटाएंपरिवर्तन एक आवश्यक प्रक्रिया है
हटाएंबरोब्बर बोला...
जवाब देंहटाएंprabhawpoorn andaz......
जवाब देंहटाएंसडी गली व्यवस्था को हमें ही हटाना होगा हमें ही लानी होगी ेक नई व्यवस्था ।
जवाब देंहटाएंNice
जवाब देंहटाएंथैंक्स
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