शुक्रवार, जून 01, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता - एक

यह उन दिनों की बात है जब सचमुच रातों को नींद नहीं आती थी । नींद न आने पर मैं कविता लिखता था और कविता लिखते ही नींद आ जाती थी । इस तरह जब पाँच - सात कवितायें बन गईं तो मैंने इस श्रंखला को नाम दिया ' नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता । इस श्रंखला की यह पहली कविता जो कथाकार मित्र मनोज रूपड़ा को बेहद पसन्द थी । वह इसे पढ़ता था और ज़ोर ज़ोर से हँसता था । अब क्यों हँसता था पता नहीं ?
लीजिये आप भी पढ़िये ।

 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –एक

मुझे नींद नहीं आ रही है
आ रहे हैं विचार
ऊलजलूल
कितना मिलता है यह शब्द
उल्लुओं के नाम से

क्या उल्लू दिन को सोता है
उसे नौकरी नहीं करनी पड़ती होगी
मेरी तरह शायद

उल्लू तो ख़ैर
उल्लू ही होता है
उल्लू का नौकरी से क्या
लेकिन क्या उल्लू प्रेम भी करता है
क्या पता
शायद नहीं
उल्लू तो आखिर
उल्लू ही होता है ना
लेकिन फिर क्यों
वह जागता है रात भर

मैं भी कितना उल्लू हूँ
उल्लू और आदमी के बीच
खोज रहा हूँ
एक मूलभूत अंतर ।

                        शरद कोकास  

19 टिप्‍पणियां:

  1. मजेदार... :)
    जब उल्लू और आदमी के बीच मूलभूत अन्तर पता चल जाय तो मुझे भी बता दीजिएगा।

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    1. जी मैने अंतर ढूँढना उसी वक़्त छोड़ दिया था अंतिम पंक्तियाँ ध्यान से पढ़िये ।

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  2. मुझे भी लगा मैं भी कितना उल्ल्लू हूँ

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  3. पी गया उल्लू यहाँ से बोतलोँ का सिरका दरअसल आदमी उल्लू का एक मानक रुप है

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  4. उल्लू भी प्रेम करता होगा तभी तो रातों को जागता है ।

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  5. लगता मुझे भी है कि देखो दुनिया सो रही है, मैं ही जाग रहा हूँ।

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  6. कहिए न उलूक प्रेम में जाग कर लिखी हुई कविता :)

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    1. मनुष्य वाला प्रेम होता नहीं उलूक प्रेम क्या करेंगे

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  7. वाह...बहुत सुन्दर प्रस्तुति!
    आपकी इस उत्कृष्ट प्रविष्टी की चर्चा कल रविवार के चर्चा मंच पर भी होगी!
    सूचनार्थ!

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  8. कल 03/06/2012 को आपकी यह पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
    धन्यवाद!

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  9. मैं भी कितना उल्लू हूँ
    उल्लू और आदमी के बीच
    खोज रहा हूँ
    एक मूलभूत अंतर.......
    ढूँढते रह जाओगे.....
    सादर

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