मंगलवार, फ़रवरी 21, 2012

1987 की यह एक कविता और


टटोला हुआ सुख

धरती से निकले
आस्था के अंकुरों में
ननकू देखता है सुख

जवान लड़के की
फटी कमीज़ से झाँकती
ज़िम्मेदारियों की माँसपेशियों में
ननकू टटोलता है सुख

ट्रांज़िस्टर लेकर शहर से लौटे
पड़ोसी के किस्सों में
ननकू ढूँढता है सुख

रेडियो पर आने वाले
प्रधानमंत्री की
विदेश यात्रा के समाचार में
ननकू पाता है सुख

ननकू को यह सारे सुख
उस वक्त बेकार लगते हैं
जब उसका बैल बीमार होता है ।
                        - शरद कोकास 

12 टिप्‍पणियां:

  1. सुख सीघे साधे हैं, दुख अधिक आत्मीय है..

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  2. वाह .. क्या बात लिखी है शरद जी.. बेहद सुन्दर.. भावनाओं को किस तरह आपने खोल कर दिखा दिया एक सीधे साधे ग्रामीण जीवन का सुख और क्या होता है दुःख ..सादर

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  3. बेगाने सुख...कितने भी सुन्दर हों...बेगाने ही रहेंगे..

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  4. ख्याली पुलावॊं से भूख मिटाने का ननकू पाता है सुख!!!!!!

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  5. यथार्थ बोध कराती सशक्त प्रस्तुति

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  6. ननकू के सुख दुख समाज का चित्रण करते हैं

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  7. धरती को खूबसूरत बनाने वाले किसान का खूबसूरत चित्रण है ।

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  8. इस होली आपका ब्लोग भी चला रंगने
    देखिये ना कैसे कैसे रंग लगा भरने ………

    कहाँ यदि जानना है तो यहाँ आइये ……http://redrose-vandana.blogspot.com

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  9. दूसरों के सुख में सुख ढूंढने वाला ननकू, बैल का बीमार होना नही सह सकता । वह बैल ही तो उसके अस्तित्व की नींव है ।

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  10. wah sharad ji .......gav ke nanaku adbhud vishleshan kiya hai apne ....sadar badhai ke sath hi holi pr shubhakamanyen.

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