मंगलवार, अक्तूबर 25, 2011

1985 में बसंत कुछ इस तरह आया था

2 दिसम्बर 1984 की रात भोपाल में ज़हरीली गैस कांड हुआ था और उसके बाद 1985 में पूरे साल इसकी चर्चा रही । बहुत सारे लोगों ने लिखा , कवियों ने कवितायें , लेख , अपना विरोध किसी न किसी तरह दर्ज़ करते रहे । मैं उन दिनों लगभग 2 माह भोपाल में ही था , फिर लौट आया , नौकरी की मजबूरी थी । उस साल जब बसंत ऋतु का आगमन हुआ तो मुझे और कुछ नहीं दिखाई दिया  , सिवाय उन चेहरों के जो ज़हरीली गैस का शिकार हुए थे । ज़ाहिर है ..1985 की  बसंत की कविता को कुछ इसी तरह होना था ... ।             


बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे


बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गये
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से

बीज कुचले गये
अंकुरित होने से पहले
और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिये भी

जाओ उस ओर
तुम देखोगे और सोचोगे
पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता

ऊगते हुए
नन्हे नन्हे पौधों की
कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का

पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह
खिलखिलाते हुए

आश्चर्य मत करना
देखकर वहाँ
निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।

                        -शरद कोकास 

12 टिप्‍पणियां:

  1. संवेदनशील अभिव्यक्ति, उस समय १३ साल को होने पर भी सारी चीखें स्पष्ट सी हैं।

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  2. दीवाली पर्व की हार्दिक शुभकामनाएँ|

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  3. बेहद गहन और संवेदनशील अभिव्यक्ति…………………दीपावली पर्व पर आपको और आपके परिवारजनों को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं

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  4. ये यादें बेहद डरावनी हैं .

    दीवाली की शुभकामनायें स्वीकारिये .

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  5. यह तो बसंत में पतझड था:( आज के दिन तो इसे न याद करते शरद जी॥ आपको और आपके प्रियजनों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनायें

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  6. @चन्द्रमौलेश्वर जी , दरअसल कल ही एक मित्र का फोन आया था , जिन्हे इस गैस कांड के समय गैस लग गई थी । वे अभी भी दीवाली पर पटाखों के नाम से काँप उठते हैं । भोपाल में जीवित बचे लोगों में जाने कितने लोग हैं जो ज़रा भी धूल व धुआँ बर्दाश्त नही कर पाते

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  7. शरद जी बहुत ही संवेदनशील कविता है...वह घटना ही ऐसी थी...

    एक भावुक और कवि हृदय ही उस घटना को यूं शब्द दे सकता है।

    आपका मेरे दोनों ब्लॉग पर इंतजार रहेगा।

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  8. अच्छा हैं आपने बंसत को उस ओर जाने को कहा ....ऋतुराज भी जाने कि ८४ में प्रकृति के बीच क्या अनहोनी हुई थी। उन्हें भी यह अभाष हो जाए उनके आने से पहले कही आ गया था पतझड़ ....जहां पत्ते ही और बहूत कुछ झड़ गये थे। बहूत ही संवेदनाओं से परिपूर्ण कविता ...मर्म जो समझे वो समझे यह दर्द मेरा न वोखर भी मेरा ही हैं।

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  9. भोपाल त्रासदी की जीवंत कविता । वसंत आये या ना आये पतझड ने वहां खूब कहर ढाया ।

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  10. मराठी ब्लॉग ची यू आर एल काय आहे ?

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