पिछली कविता में अनेक पाठकों ने कविता के नये नये अर्थ तलाशने का प्रयास किया । अच्छा लगा । देवेन्द्र जी बहुत करीब तक पहुंचे । प्रस्तुत है एक और कविता । यह 1992 की कविता है । यह न भुलाया जा सकने वाला वर्ष है । मुझे उम्मीद है इस कविता मे भी आपको कुछ नये अर्थ दिखाई देंगे ।
कोंपल के कानों में
समझौतों का तूफान
मस्तिष्क में जड़ें जमा चुके
विचारों के दरख़्त को
शक्ति के पत्ते टूटे
संकल्प की डालियाँ
नैतिकता के पीले पत्तों को
उड़ा ले गई
अभिजात्यवर्गीय हवा
आकांक्षाओं का रूमानी सावन
बिन बरसे बीत गया
लेकिन भरोसा इतना तो है
वर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।
शरद कोकास
ह्र्दय की गहराई से निकली अनुभूति रूपी सशक्त रचना
जवाब देंहटाएंबेहद गहन कविता और जो आपने सोचा शायद अब वो सच होने लगा है उसका उदाहरण राम मन्दिर बाबरी मस्ज़िद फ़ैसला है …………अब वैसे सैलाब नही आते……नयी कोंपलें मन्त्र फ़ूंक रही हैं।
जवाब देंहटाएंलेकिन भरोसा इतना तो है
जवाब देंहटाएंवर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।
बहुत सशक्त और सार्थक लेखन ...गहन विचार
आकांक्षाओं का रूमानी सावन
जवाब देंहटाएंबिन बरसे बीत गया
उजाड़ गया संस्कारों के नीड़
बहुत सुंदर !
आप की आशाएं पूरी होती हुई दिखाई दे रही हैं ,आज का युवा वर्ग फ़ालतू के झगड़ों में नहीं पड़ता ,कोंपलों के कानों में मंत्र फूंक दिया गया है दरख़्त भी सघन होने लगे हैं
बस हम सभी को आशावान रहने की ज़रूरत है आप की तरह
गहन अभिव्यक्ति!
जवाब देंहटाएंलेकिन भरोसा इतना तो है
जवाब देंहटाएंवर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।
यह भरोसा कायम रहे...और दरख्त सघन से सघनतर हो .
अच्छी लगी ये आशवादी रचना
इस्मत जी से सहमत हूँ... कविता की सकारात्मकता बहुत अच्छी लगी.
जवाब देंहटाएंलेकिन भरोसा इतना तो है
जवाब देंहटाएंवर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।
... तूफ़ान गुजर जाने के बाद की त्रासदी कम भयावाह नहीं होती, जितनी जल्दी समझ जाय इंसान उतना ही अच्छा.. नयी कोपलें ही आशा और विश्वास का संचार करती है......
बहुत अच्छी सार्थक रचना
gahraayi liye huye sashakt rachna
जवाब देंहटाएंaabhaar
पीले पतों=पीले पत्तों
जवाब देंहटाएंशक्ति के पत्ते टूटे
संकल्प की डालियाँ
नैतिकता के पीले पतों को
उड़ा ले गई
अभिजात्यवर्गीय हवा
...इन पंक्तियों में उस दौर की त्रासदी खूब अभिव्यक्त होती है। कवि कहना चाहता है कि यूँ तो डालियाँ पत्ते नहीं उड़ातीं लेकिन यह वह दौर था जब डालियाँ ही पत्ते उड़ा ले जा रही थीं। नैतिकता के पत्ते पीले नहीं पड़ते लेकिन यह वह दौर था जब नैतिकता के पत्ते पीले पड़ चुके थे।
...लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह सिर्फ अभिजात्य वर्गीय हवा थी। आप कह सकते हैं कि सर्प थे, सपेरे थे और थी एक जहरीली हवा जो आगे चलकर आंधी में परिवर्तित हो चुकी थी।
...अंत में इस कविता में निहित आशावाद, कविता की सार्थकता सिद्ध करती है।
@देवेन्द्र जी स्पेलिंग की ग़लती की ओर ध्यान दिलाने के लिए धन्यवाद । आपकी टिप्पणी बहुत सार्थक एवं सटीक विश्लेषण करती है कविता का ।
जवाब देंहटाएंमज़बूत दरख्त बनने का मन्त्र तो फूकना ही पड़ेगा किसी न किसी पीढ़ी को।
जवाब देंहटाएंdimaag science me uljha hai kavita doob kar padhni hogi... ek baari me samajh nhin aai...
जवाब देंहटाएंकविता की अकुलाहट विचारों में मंथन पैदा करती है !
जवाब देंहटाएंसमय-शिला पर लिखा हुआ एक अमिट दस्तावेज़ है यह कविता !
really impressed....
जवाब देंहटाएं@ deepak ji...I can feel wat r u saying.. :)
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
जवाब देंहटाएंदरख़्तों को सघन करने का ।
बहुत ही सशक्त बात कही है आपने इन पंक्तियों में ...।
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
जवाब देंहटाएंदरख़्तों को सघन करने का ।
बहुत गहरी बातें और विचारणीय प्रस्तुति
--------ka kahu-----
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया...।
जवाब देंहटाएंयाद नहीं कब झिंझोड़ गया
जवाब देंहटाएंसमझौतों का तूफान
तब से जब समझौता एक्सप्रेस शुरू हुई थी :)
गणतंत्र दिवस की शुभकामनाएं॥
बेहद सशक्त लगी! उत्तम कविता!
जवाब देंहटाएंलेकिन भरोसा इतना तो है
जवाब देंहटाएंवर्जना की हथेलियों से
सर ढाँककर
भीगने का सुख भोगने वाली पीढ़ी
झंझावात के थमने पर
कोंपल के कानों में मंत्र फूँकेगी
दरख़्तों को सघन करने का ।
ek shabd ,laazwaab .gantantra divas ki badhai ,jai hind .
वो सुबह कभो तो आएगी !
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