" झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की " से लेकर " झील ने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की " तक बहुत कुछ घटित हो चुका है । प्रेम में सोचने पर भी प्रतिबन्ध..? ऐसा तो कभी देखा न था ..और उस पर संस्कारों की दुहाई ..। और उसका साथ देती हुई पुरानी विचारधारा ..कि प्रेम करो तो अपने वर्ग के भीतर करो.. । लेकिन ऐसा कभी हुआ है ? ठीक है , प्यार के बारे में सोचने पर प्रतिबन्ध है, विद्रोह के बारे में सोचने पर तो नहीं । फिर वह विद्रोह आदिम संस्कारों के खिलाफ हो , दमन के खिलाफ हो या अपनी स्थितियों के खिलाफ़ ..। देखिये " झील से प्यार करते हुए " कविता श्रंखला की अंतिम कविता में यह कवि क्या कह रहा है ...
झील से प्यार करते हुए –तीन
झील की सतह से उठने वाले बादल पर
झील ने लिखी थी कविता
मेरी उन तमाम कविताओं के ऐवज में
जो एक उदास दोपहरी को
झील के पास बैठकर
मैने उसे सुनाई थीं
कविता में थी
झील की छटपटाहट
मुझे याद है झील डरती थी
मेरे तलवार जैसे हाथों से
उसने नहीं सोचा होगा
हाथ दुलरा भी सकते हैं
अपने आसपास
उसने बुन लिया है जाल संस्कारों का
उसने मनाही दी है अपने बारे में सोचने की
जंगल में बहने वाली हवा
एक अच्छे दोस्त की तरह
मेरे कानों में फुसफुसाते हुए गुज़र जाती है
दोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है
मैं झील की मनाही के बावज़ूद
सोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।
शरद कोकास
( स्पार्टकस और उसकी प्रेमिका वारीनिआ के चित्र गूगल से साभार )
जब तक झील
जवाब देंहटाएंनदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।
prem aur bagawat ek dusare ke purak hai
jaha prem hai usko pane ke liye aaj kal bagawat hoti hai---
शरद जी, झील को प्रतीक बनाकर बहुत उम्दा कविताएं पेश की हैं आपने.
जवाब देंहटाएंझील सी स्थिरता और नदी की गति, दोनों ही आवश्यक हैं जीवन के लिये।
जवाब देंहटाएंसुपर्ब....
जवाब देंहटाएंझील के प्रतीकात्मक रूप में सुंदर प्रस्तुति.
जवाब देंहटाएंइस कविता को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि जीवन को उसकी विस्तृति में बूझने का यत्न करने वाले कवि हैं। जो मिल जाए, उसे ही पर्याप्त मान लेने वाले न तो दुनिया के व्याख्याता होते हैं और न ही दुनिया बदलने वाले। दुनिया वे बदलते हैं जो सच को उसके सम्पूर्ण तीखेपन के साथ महसूस करते हैं और उसे बदलने का साहस भी रखते हैं।
जवाब देंहटाएंनिःशब्द हूँ, अपने शब्दों की अक्षमता को महसूस किया मैंने ! सिर्फ इतने ही जुटा पाया..बेहद ही गहरी और चिरस्मरणीय अभिव्यक्ति..! बधाई और दिल से नमन इस रचना को !!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंझील में आदिम संस्कारों का ठहरा हुआ नीर है
जवाब देंहटाएंनदी में प्यार देने की, दर्द सहने की असीम संभावनाएं हैं।
..अच्छी लगी कविता।
जब तक झील
जवाब देंहटाएंनदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ
झील का नदी बन कर बहना ...यानि निर्धारित सीमाओं से बाहर आना और बनायीं हुई मान्यताओं से जूझना ....बहुत सुन्दर प्रतीक के माध्यम से आपने मन के भावों को बुना है ....सुन्दर अभिव्यक्ति
झन्नाटेदार झील...
जवाब देंहटाएंहोश में आऊं तो कुछ कहूं...
जय हिंद...
मैं झील की मनाही के बावज़ूद
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ
गोया सोचना और न सोचना अपने अख्तियार में है। शरद साहब, झील के बारे में सोचना कभी नहीं थम सकेगा, कभी नहीं।
झील के बारे में सोचना कभी नहीं थम सकता ।सुंदर कविता ,झील से गहरे भाव ।
जवाब देंहटाएंउसने नहीं सोचा होगा ,
जवाब देंहटाएंहाथ दुलरा भी सकते हैं।
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति। बधाई शरद भाई।
सच
जवाब देंहटाएंइस के बारे मे तो सोचा ही न था
7.5/10
जवाब देंहटाएंबेहतरीन / लाजवाब
कई पाठकों ने सुन्दर समीक्षा की है.
प्रतिक्रियाएं पढ़कर यकीन हुआ कि यहाँ सचमुच उत्कृष्ट कविताओं के पाठक हैं
ठहर गई सामाजिकता का प्रेम ,कवि को नापसंद है तो इसे स्वाभाविक ही मानूंगा !
जवाब देंहटाएंअच्छा लग रहा है यूँ हर बार अलग अलग ढंग से उसी झील से मिलना और उसे और बेहतर जानना
जवाब देंहटाएंमैं झील की मनाही के बावज़ूद
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ...
बहुत खूब शरद जी ... कई बार द्वंद सुलगते रहते हैं अंदर अंदर ही ... सही समय की तलाश में ... ये सोचना निरंतर सुलगना ही बदलाव की शुरुआत है ....
झील को प्रतीक बनाकर बहुत कह दिया …………एक स्त्री मनोभावो को भी चित्रित कर दिया साथ ही पुरुष भाव भी मुखरित हो गये…………सच संस्कारों की बेडियो मे जकडी नारी कभी खुद से न्याय नही कर पाती…………एक बार बहना जरूरी है नदी की तरह ……………बेहद उम्दा प्रस्तुति दिल को छू गयी।
जवाब देंहटाएंआज इस श्रृंखला की तीनो कविताएँ एक साथ पढ़ीं...
जवाब देंहटाएंबेहद ख़ूबसूरत कविताएँ ...जिनपर कुछ कहना मुश्किल....
बस बार -बार पढने को ही प्रेरित करती हैं.
चर्चा मंच के साप्ताहिक काव्य मंच पर आपकी रचना कल मंगलवार 14 -12 -2010
जवाब देंहटाएंको ली गयी है ..नीचे दिए लिंक पर कृपया अपनी प्रतिक्रिया दे कर अपने सुझावों से अवगत कराएँ ...शुक्रिया ..
http://charchamanch.uchcharan.com/
जब तक झील
जवाब देंहटाएंनदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ
....bahut saarthak sandesh deti rachna ...
मैं झील की मनाही के बावज़ूद
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ ।
.
बेहतरीन कविता ..........काबिलेतारीफ .
kya kahoon???
जवाब देंहटाएंबहुत गहन!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही गहन भावों को समेटे बेहतरीन शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंदोस्त ! प्रेम के लिये वर्ग दृष्टि ज़रूरी है
जवाब देंहटाएंबहुत गहन अभिव्यक्ति...प्रेम को वर्ग द्रष्टि से बांटने वालों के खिलाफ विद्रोह समय की आवाज़ है..बहुत सुन्दर
मैं झील की मनाही के बावज़ूद
जवाब देंहटाएंसोचता हूँ उसके बारे में
और सोचता रहूंगा
उस वक़्त तक
जब तक झील
नदी बनकर नहीं बहेगी
और बग़ावत नहीं करेगी
आदिम संस्कारों के खिलाफ
बहुत सुन्दर कोकाश साहब , लगता है मनो आपके अन्दर का कोई खिलापत आन्दोलन बाहर उमड़ रहा हो !
बेहतरीन कविता...
जवाब देंहटाएंझील की छटपटाहट,नदी बनने का विचार ,मेरी कविता के एवज में,
जवाब देंहटाएंवाह ! क्या बात है.
शरद ! बधाई .
bahut gahre bhavo ko saheje hai ye kavita.........
जवाब देंहटाएंaabhar........
झील आकर्षण देती है तो नदी साथ में चलने की प्रेरणा |दोनों का अपना सोंदर्य और बोध है |बहुत सुंदर कविता \
जवाब देंहटाएंvery delicately expressed idea. nice post.
जवाब देंहटाएंपीड़ा तो दोनों ही जगह है चाहे वह झील हो या मन !
जवाब देंहटाएंझील की गहराई में गहन संवेदना छुपी है !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
उसने नहीं सोचा होगा ,
जवाब देंहटाएंहाथ दुलरा भी सकते हैं।
............बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति बधाई