इस कविता श्रंखला पर प्रसिद्ध आलोचक डॉ. कमला प्रसाद की टिप्पणी - " शरद कोकास की कविताओं में दफ्तरों के अनुभव जगह जगह आते हैं , नींद आने के पूर्व मानस में मचलते हैं . दिमागी गतिविधियों में जगह बना लेते हैं । वे झील को नदी देखना चाहते हैं अर्थात ठहरी गहराई काफी नहीं , उसमें प्रवाही सहजता और निर्मलता की ज़रूरत है । ऐसी पदावली उभरती है कविताओं में.....। प्रस्तुत कविता मेरे कविता संग्रह " गुनगुनी धूप में बैठकर " से ......
झील से प्यार करते हुए –दो
वेदना सी गहराने लगती है जब
शाम की परछाईयाँ
सूरज खड़ा होता है
दफ्तर की इमारत के बाहर
मुझे अंगूठा दिखाकर
भाग जाने को तत्पर
फाइलें दुबक जाती हैं
दराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ्यू लगे शहर की तरह
फाइलों पर जमी उदासी
टपक पड़ती है मेरे चेहरे पर
झील के पानी में होती है हलचल
झील पूछती है मुझसे
मेरी उदासी का सबब
मैं कह नहीं पाता झील से
आज बॉस ने मुझे गाली दी है
बड़बड़ाता हूँ चुभने वाले स्वप्नों में
कूद पड़ता हूँ विरोध के अलाव में
शापग्रस्त यक्ष की तरह
पालता हूँ तर्जनी और अंगूठे के बीच
लिखने से उपजे फफोलों को
झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव
झील बेबस है
मुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।
- शरद कोकास
( सभी चित्र गूगल से साभार )
झील के माध्यम से इंसानी कशमकश और रोजमर्रा की ज़िन्दगी की जद्दोजहद को बडे करीने से उकेरा है ………………कभी कभी इंसान बहुत कहना चाहकर भी कह नही पाता और खुद से जब जूझता है तब अन्दर का द्वंद यही रूप लेता है…………बेहतरीन प्रस्तुति……………दिल को छू गयी।
जवाब देंहटाएंआदरणीय शरद कोकास जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
बहुत समय बाद आपके यहां पहुंचा हूं
कुछ तो है इस कविता में, जो मन को छू गयी।
झील बेबस है
जवाब देंहटाएंमुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।
तारीफ के लिए हर शब्द छोटा है - बेमिशाल प्रस्तुति .............शरद जी
झील बेबस है
जवाब देंहटाएंमुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।
या शायद इरादतन ऐसा नहीं करती हैं .. शायद स्पर्श की साध ही हिलोरें पैदा कर देती हों
कश्मकश की यह स्थिति ही तो जनक होती होगी नई कविता की.
झील रात भर नदी बनकर
जवाब देंहटाएंमेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
कविता, जो मन को छू गयी!
बहुत अच्छी कविता, दिल को छू गई.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति !
जवाब देंहटाएंसाहब, जब इतने अच्छे भाव बाँधे थे, तो झील को भी थोड़ा वश में कर के नाव को पार लगा देते तो क्या गुनाह होता ;)
जवाब देंहटाएंये हमारी व्यक्तिगत राय ही है, बाकी सब बढ़िया, जारी रखिये ...
अनुभवों से गुजरती हुई सुन्दर रचना!
जवाब देंहटाएंबहुत खूब कहा है शरद जी, हवाओं पर किसी का वश नहीं...।
जवाब देंहटाएंहम तो फ़ैन होते जाते हैं आपके, आपकी झील के।
बहुत अच्छी कविता।
जवाब देंहटाएंbahut achchi lagi.
जवाब देंहटाएंज़िंदगी की कशमकश को बहुत अच्छे से उकेरा है ...अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंझील रात भर नदी बन कर मेरे साथ बहती है...
जवाब देंहटाएंरात से कहिए सुबह वो आपके साथ मार्निंग वाक पर चले...
जय हिंद...
रोजमर्रा के झंझावात भरे जीवन में झील का नदी बन बहना और अंतर्द्वंद्व एवं व्यथा से जूझते अंतर्मन में, हर दिन आशा का संगीतमय रस रंग घोल देना, झील के प्रेम को ही दर्शाता है. पर झील शायद हममें तूफ़ानों से जूझने का साहस तलाशती है इसलिए हवाओं के प्रति उदासीन रहती है.
जवाब देंहटाएंदिल को छूने वाली खूबसूरत अभिव्यक्ति. आभार.
सादर
डोरोथी.
झील बेबस है
जवाब देंहटाएंमुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है .
सुन्दर अभिव्यक्ति.
कमलाकर जी की टिप्पणी के बाद अपनी टिप्पणी नहीं बनती !
जवाब देंहटाएंझील बेबस है मुझे प्रेम तो करती है
जवाब देंहटाएंमगर हवाओं पर उसका वश नहीं है ...
कोमल अनुछुए , अनकहे एहसास !
फाइलें दुबक जाती हैं
जवाब देंहटाएंदराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ्यू लगे शहर की तरह
बहुत ही खूबसूरत रचना.
रामराम.
झील बेबस है
जवाब देंहटाएंमुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।-----
बहुत ही भावपूर्ण है.
झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल एँ------
अंतर्मन के व्यथा को झील के माध्यम से दर्शाना अच्छा लगा.
सूरज खड़ा होता है मेरे दफ़्तर के बाहर,
जवाब देंहटाएंमुझे अंगूठा दिखाकर भाग जाने को तत्पर ।
कोकास भाई आपकी परेशानी बहुत ख़ूबसूरत है, मुबारक बाद।
कविता पसंद आई। व्यापक अर्थसंभावनाओं वाली कविताएं हैं।
जवाब देंहटाएंआज के परिपेक्ष में वाकई खुश रहना कितना मुश्किल है ...!!
जवाब देंहटाएंसुंदर प्रस्तुति.
बधाई.
मन के भाव उभारने में प्रतीकों का सुन्दर प्रयोग।
जवाब देंहटाएंनदी अंदर ही बहती रहती है या कहीं से बाहर भी टपकती है ?
जवाब देंहटाएंभाई शरद जी .... बहुत ही मनभावन रचना .... आभार
जवाब देंहटाएंझील के पानी में होती है हलचल
जवाब देंहटाएंझील पूछती है मुझसे
मेरी उदासी का सबब
मैं कह नहीं पाता झील से
आज बॉस ने मुझे गाली दी है
डा. कमला प्रसाद की टिपण्णी बिल्हुल सच है आपकी इस रचना पर ....
मानवीय संवेदनाओं को झेला है जैसे आपने इस रचना में ... बहुत कमाल की रचना है .
डाक्टर कमलाप्रसाद जी ने सही ही टिप्पणी दी है ।आपकी रचनायें वसुधा में भी प्रकाशित होती होंगी । आज की रचना - सूरज का अंगूठा दिखा कर भाग जाने को आतुर होना। करफयु लगे शहर की तरह यह उपमा अच्छी लगी । फाइलों की उदासी का चेहरे पर टपकना । बास की गाली का जिक्र झील से न कर पाना । शापग्रस्त यक्ष की उपमा भी श्रेष्ठ लगी
जवाब देंहटाएंबेहतरीन प्रस्तुति .गहरे जज्बात के साथ लिखी गई सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंसच है हवाओं पर तो किसी का बस नहीं चलता.मन के अंतर्द्वंद को बखूबी उकेरा है
जवाब देंहटाएंहाँ सच में यही सब होता है एक दफ्तर की जिंदगी जीते हुए...शाम को जब ऑफिस का प्रकाश दम तोड़ देता है एक उदासी यूँ ही बंजार जमीन सी दरारों सी उभर आती है...बोस कुछ उल्टा बोलता है तो यूँ ही मन भीतर ही भीतर कसकता है.
जवाब देंहटाएंगहन अभिव्यक्ति.सुंदर..सोचने पर मजबूर करती.
कमला जी की टिप्पणी मानीख़ेज़ है…
जवाब देंहटाएंअनुभूतियों की अँधेरी सुरंग में फफोलों की चुभन को जीना और अनकही सी व्यथा से एकाकार होकर झील का नदी बन कर बहना ही तो कवि की सबसे बडी (दुर्लभ) उपलब्धि है । तभी तो वह कविता को नाव बना कर छोड सकता है ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता ... झील को बिम्ब बनाये हुए दफ्तर की बातें और कितनी सहजता से आपने अलग अलग बिम्बो का प्रयोग करके इन बातों को समझाया है ...
जवाब देंहटाएंफाइलें दुबक जाती हैं
जवाब देंहटाएंदराज़ों की गोद में
बरामदा नज़र आता है
कर्फ्यू लगे शहर की तरह
....bahut sundar kavita....
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंमै सुबह कविता की नाव बनाकर
जवाब देंहटाएंछोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
भावमय करते शब्द बहुत ही सुन्दर ....।
झील रात भर नदी बनकर
जवाब देंहटाएंमेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव
....bahut khoobsurat bimb sayonjan ke madhyam se aapne ek thake haare, daftar ke ooh-poh ke beech ghistte chalte aadmi ke mansik dwandh ko ukera hai...
aapki kavitayen gahree jheel ke tarh gahare arth samete huye hoti hai..
झील रात भर नदी बनकर
जवाब देंहटाएंमेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव
आप का झील के माध्यम से अपने आपको व्यक्त करना, प्रेम, विवशता, क्रोध, खीज सारे भाव तो हैं इसमे ।
'झील रात भर नदी बनकर
जवाब देंहटाएंमेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में'
मन जुड़ा गया.
यह वो कविता है जिसे बोलकर दूसरों को सुनाने का मन होता है...
जवाब देंहटाएंपालता हूँ तर्जनी और अंगूठे के बीच
लिखने से उपजे फफोलों को...
झील रात भर नदी बनकर
मेरे भीतर बहती है
मै सुबह कविता की नाव बनाकर
छोड़ देता हूँ उसके शांत जल में
वैदिक काल से आती वर्जनाओं की हवा
झील के जल में हिलोरें पैदा करती है
डुबो देती है मेरी कागज़ की नाव
झील बेबस है
मुझसे प्रेम तो करती है
लेकिन हवाओं पर उसका कोई वश नहीं है ।
ठीक वैसे ही जैसे ...मैंने कहा था की
जवाब देंहटाएं.हँसाते है, रुलाते हैं ,अपने किस्से सुनाते हैं ....
'सपने' अक्सर हमसे मिलने सपनों में ही आते हैं
जान कर सच में ख़ुशी हुई कि आप हिंदी भाषा के उद्धार के लिए तत्पर हैं | आप को मेरी ढेरों शुभकामनाएं | मैं ख़ुद भी थोड़ी बहुत कविताएँ लिख लेता हूँ | हाल ही में अपनी किताब भी प्रकाशित की | आप मेरी कविताएँ यहाँ पर पढ़ सकते हैं- http://souravroy.com/poems/
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