सोमवार, जनवरी 18, 2010

चलो..मिट्टी खराब नहीं हुई आदमी की ।

                मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य है और एक सजीव के लिये अनिवार्य लक्षण । मृत्यु के पश्चात देह का अंतिम संस्कार भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना  जीते जी देह का संवर्धन । जब मैं किसी बम विस्फोट ,दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के समाचार में यह पढ़ता हूँ कि 'मृतक की लाश तक नहीं मिली' तो मन क्षोभ से भर जाता है । शायद यह हमारे संस्कार ही हैं कि हम चाहते हैं कि मृत देह को पूरे सम्मान के साथ इस पंचतत्व में विलीन किया जाये । आदिम मनुष्य द्वारा निर्मित मनुष्य की पहली पत्थर की कब्र से लेकर चिकित्सा के विध्यार्थियों के लिये की गई देह दान तक की परम्परा में यही भाव शामिल है ।
                इस अंतिम संस्कार की परम्परा का निर्वाह मनुष्य ही करता है । हम देखते हैं कि ऐसे समय कुछ लोग निर्लिप्त भाव से इस कार्य में लगे रहते हैं ।यहाँ तक कि अब कुछ ऐसी संस्थायें भी हो गई हैं जो लावारिस मृत देह का अंतिम संस्कार करती हैं । साहित्य में मनुष्य की इस प्रवृत्ति का वर्णन विभिन्न विधाओं में हुआ है और मुझे इस वक़्त प्रेमचन्द की कहानी "कफन " से लेकर मनोज रूपड़ा की कहानी "दफन " तक इस विषय पर लिखी कहानियाँ याद आ रही हैं ।कविता में शायद यह सम्भव नहीं था फिर भी अंतिम संस्कार की तैयारियों के दृश्य मुझे  ऐसे ही मनुष्यों के सेवा भाव पर लिखने के लिये प्रेरित करते रहे ,फलस्वरूप इस कविता का जन्म हुआ । यह कविता " कथादेश " के जनवरी 2010 अंक से साभार । 


                              अर्थी सजाने वाले


अपने जीते जी सम्भव नहीं जिस दृश्य को देख पाना
उस दृश्य में उपस्थित हैं वे
भी में दिखाई देते हुए भी भी से अलग
जो सिर्फ जनाज़े को कन्धा लगाने नहीं आये हैं
अर्थी सजाने की कला में भी वे माहिर हैं
कला इस मायने में कि बाँस इस तरह बाँधे जायें
कि अर्थी मज़बूत भी हो और उठाने में सुविधाजनक
देह जिस पर अपनी पूरे आकार में आ जाये
साँसों की डोर का टूटना तो एक दिन निश्चित था
बस अर्थी में बन्धी रस्सी बीच में ना टूट पाये
 

कोई गुमान भी नहीं अर्थी सजानेवालों के जेहन में
वे इसे कला कहने का कोई औचित्य भी नहीं मानते
मृत्यु की भयावहता से आतंकित होकर भी
अपने प्रकट रूप में वे भयाक्रांत नहीं होते
सामाजिक के प्रचलित अर्थ में असामाजिक भी नहीं
भावना और व्यवहार की आती- जाती लहरों के बीच
संयत होकर निर्वाह करते हैं अपने धर्म का
स्त्रियों को रोता देखकर भी वे नहीं रोते


भौतिक जगत से मनुष्य की विदाई के इस अवसर पर
जहाँ आयु से अधिक मुखर होता है अनुभव
उनकी  क्रियाओं में अभिव्यक्त होता है उनका ज्ञान
वे जानते हैं अग्निसंस्कार के लिये
किस मौसम में कितनी लकड़ियाँ पर्याप्त होंगी
उन्हें कैसे जमाएँ कि एक बार में आग पक लें
देह को कब्र में उतारकर पटिये कैसे जमाएँ
खाली बोरे,इत्र,राल,फूल,हंडिया,घी,लोभान
कफन दफन का हर सामान  वे जुटाते हैं
अर्थी उठने से पहले याद से कंडे सुलगाते हैं


अर्थी सजाकर वे आवाज़ देते हैं
मृतक के बेटे ,भाई, पति या पिता को

उन्हे पता है  अर्थी सजाने की ज़िम्मेदारी भले उनकी हो
कन्धा लगाने का पहला हक़ सगों का है 


उनके सामान्य ज्ञान में कहीं नहीं है शामिल
दुनिया के पहले इंसान की कब्र का कोई ज़िक्र
उन्हें नहीं पता अंतिम संस्कार की परम्परा
किस धर्म में कब दाखिल हुई
क्या होता था मनुष्य की मृत देह का
जब उसका कोई धर्म नहीं था 



मोक्ष,आत्मा-परमात्मा,लोक-परलोक,
जन्नत-जहन्नुम जैसे शब्द
दाढ़ी-चोटी वालों के शब्दकोश में सुरक्षित जानकर
वे चुपचाप सुनते हैं स्मशान के शांत में
मृतक के व्यक्तित्व और क्रियाकलापों का बखान
कर्मकांड पर चल रही असमाप्त बहस से अलग
उनके संतोष में विद्यमान रहता है
एक अनूठा विचार


चलो..मिट्टी खराब नहीं हुई आदमी की
   
                        -  शरद कोकास 
कॉमरेड ज्योति बसु को श्रद्धांजलि । चित्र गूगल से व शरद के कैमरे से  साभार । कविता कथादेश जनवरी 2010 से साभार ।



                

33 टिप्‍पणियां:

  1. मिट्टी खराब नहीं हुई आदमी की।

    आखिर मे यही उपसंहार है और संतोष्।

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  2. कविता से अधिक उसके भाव ठीक लगे

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  3. भावमय बेहतरीन प्रस्‍तुति, आभार ।

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  4. शरद भाई, कुछ दिनों बाद इंसान के मरने के बाद का तामझाम भी बाजार और एनजीओ के हाथों में होगा। सबकुछ हाईटेक और ई-पद्धति से।

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  5. इंसान में सबसे बड़ा गुण यही तो है की उसने समाज में काम बाँट लिए हैं। हर आदमी का अपना काम होता है। इसीलिए कहते हैं --जिसका काम उसी को साजे। अच्छी प्रस्तुति।

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  6. प्राचीन काल में छोटे छोटे स्‍तर तक काम के बंटवारे की व्‍यवस्‍था थी .. कला का विकास आत्‍म संतुष्टि के लिए होता था .. बाजार में पैसा कमाने के लिए नहीं होता था .. क्‍यूंकि गृहस्‍थों के यहां से आनेवाला अनाज तय था .. आज तो मध्‍यम वर्ग से लेकर निम्‍न वर्ग तक के लोगों का कितना जीवन इस सोंच में निकल जाता है कि वे करें क्‍या .. उसके बाद बाजार की प्रतिस्‍पर्धा .. कोई भी राजा बन सकता है और कोई दो शाम की रोटी के लिए भी तरस सकता है .. वास्‍तव में आज की यह भयावह त्रासदी है !!

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  7. आप द्वारा दी गई श्रद्धांजलि सर्बोत्तम

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  8. सब कुछ सच लिखा है पर क्या करें यही तो नियति है
    बहुत अच्छी श्रद्दांजलि

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  9. नमन है मेरा ....... आपने कुछ ऐसे लोगों के बारे में लिखा है जिनका जीवन सच में हवन है .... कर्म करना ही जानते हैं जो .... ऐसा कर्म करना मेरे मानने में सबसे बड़ा धर्म है ...... हाथ जोड़ कर मेर प्रणाम हैं ऐसे इंसानो को .............

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  10. कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।

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  11. बहुत मार्मिक प्रस्तुति.... सच है.... आखिर में तो यही होना ही है.....

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  12. हृदय को अन्दर तक झकझोरती कविता.
    धन्यवाद भैया.

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  13. जीवन के परम सत्य को सटीक अभिव्यक्ति दी है आपने.

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  14. ऎसा काम करने वाले लोग सच मै महान है, उन्हे नमन है, इस्व सुंदर लेख के लिये आप का धन्यवाद

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  15. दिल को छू लेने वाली, भावना को सम्हाल न पाने वाली कविता
    भाई जी आपने "माँ" के लिए जो आपने भाव प्रकट किये हैं
    वह आज भी विस्मृत नहीं हुआ है.

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  16. बहुत भावपूर्ण रचना!! आभार इस प्रस्तुति का!

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  17. बहुत सुन्दर रचना लिखा है आपने! हर एक पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी! इस बेहतरीन रचना के लिए बधाई! बहुत ही सुन्दरता से आपने श्रधांजलि अर्पित की है!

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  18. havan,
    iska arth bada vyapak hota he, jeevan ka havan, hom. uska parinaam, usaka ant...yahi he, yahi he yahi to he.

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  19. lash jalti dekhkar hum soch liya karte hai ,
    jo yahan paida huye do roj jiya karte hai .
    aapki rachna bahut hi marmik rahi ,dil se aapne unhe shrdhaanjali di .
    ek lekh dali hoon sabke vichoro se kai jaankaria mili aapki bhi rai ahmiyat rakhti hai .

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  20. अद्भुत!
    नितांत अछूते विषय को बहुत ही गहराई से आपने शाब्दिक -जामा पहनाया है, अच्छी कविता के लिए मुबारकबाद!!

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  21. Dil ko dukh diye is kavita ke bhaav ne....hamne kabhi is andaaz se socha hi nahi....han padh kar zindgi ka ek nazariya aur mila

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  22. आपकी कवितायें मैंने कथादेश में पहले ही पढ़ी थी पर ब्लॉग पर आज पहली बार आना हुआ ....मेरी हार्दिक बधाई शरद जी .

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  23. जिस पर किसी की नजर नहीं जाती , वही आपकी नजर ठहरती है ...
    आज से पहले इन लोगों के बारे में इस तरह सोचा ही नहीं ....मौत से निस्पृह होकर तल्लीनता से अपना काम करने वालों पर खूब लिख दिया आपने ...!!

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  24. मृतक के व्यक्तित्व और क्रियाकलापों का बखान

    कर्मकांड पर चल रही असमाप्त बहस से अलग

    उनके संतोष में विद्यमान रहता है

    एक अनूठा विचार





    चलो..मिट्टी खराब नहीं हुई आदमी की ।


    atoot satay
    jeevan bhar ke karm ka lekha jokha
    marne ke baad logon ke munh se apni taarefe

    bahut anuthe dhang se aapne sachchayi bayan kee hai

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  25. लावारिस मृत देह का अंतिम संस्कार करना बहुत नेक काम है.
    ..मशान चिंतन के भाव जगाती इस कविता के लिए बधाई.

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  26. हाँ भई, आये हैं तो जायेंगे भी, और जायेंगे तो इस सारे खटरांग की ज़रुरत भी पड़ेगी. अच्छा है कि कुछ लोग/संस्थान इसे कर्त्तव्य, परम्परा या व्यवसाय की तरह संभाले हुए हैं.

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  27. अरे
    वादा तो हेल्मेट का था!!!

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  28. भाई शरद जी,
    वैचारिक और भावनाओं के घटाघोप के बीच, मानवीय जीवन की वस्तुगत व्यवहारिकता और ज़मीनी परिणतियों को सहजता से उकेरती एक लाजवाब कविता।

    यह और बाकी दो कविताओं का कथादेश पर भी पढ़ना हुआ था।

    एक बात कहने की इच्छा है। आप कविता की शुरूआत में, परिचयात्मक वक्तव्य नहीं दिया करें। यह कविता के प्रभाव को कमजोर करता है, और उसे सीमित करता है।

    पाठक को इसके प्रभावों की विविधता और काल्पनिकता की उड़ान की खुली आजादी दें। यह कविता के प्रभाव को, स्पेस को नये आयाम देता है, और पाठक को उससे अपनी व्यक्तिगतता के साथ जुड़ने का अवसर देता है।

    अन्यथा ना लें।

    शुक्रिया।

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  29. कविताएं कथादेश में पढ़ी थीं। अर्थी सजाने वाले कविता पसंद आई।

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  30. कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है ।

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