मृत्यु जीवन का एक शाश्वत सत्य है और एक सजीव के लिये अनिवार्य लक्षण । मृत्यु के पश्चात देह का अंतिम संस्कार भी उतना ही महत्वपूर्ण है जितना जीते जी देह का संवर्धन । जब मैं किसी बम विस्फोट ,दुर्घटना या प्राकृतिक आपदा के समाचार में यह पढ़ता हूँ कि 'मृतक की लाश तक नहीं मिली' तो मन क्षोभ से भर जाता है । शायद यह हमारे संस्कार ही हैं कि हम चाहते हैं कि मृत देह को पूरे सम्मान के साथ इस पंचतत्व में विलीन किया जाये । आदिम मनुष्य द्वारा निर्मित मनुष्य की पहली पत्थर की कब्र से लेकर चिकित्सा के विध्यार्थियों के लिये की गई देह दान तक की परम्परा में यही भाव शामिल है ।
इस अंतिम संस्कार की परम्परा का निर्वाह मनुष्य ही करता है । हम देखते हैं कि ऐसे समय कुछ लोग निर्लिप्त भाव से इस कार्य में लगे रहते हैं ।यहाँ तक कि अब कुछ ऐसी संस्थायें भी हो गई हैं जो लावारिस मृत देह का अंतिम संस्कार करती हैं । साहित्य में मनुष्य की इस प्रवृत्ति का वर्णन विभिन्न विधाओं में हुआ है और मुझे इस वक़्त प्रेमचन्द की कहानी "कफन " से लेकर मनोज रूपड़ा की कहानी "दफन " तक इस विषय पर लिखी कहानियाँ याद आ रही हैं ।कविता में शायद यह सम्भव नहीं था फिर भी अंतिम संस्कार की तैयारियों के दृश्य मुझे ऐसे ही मनुष्यों के सेवा भाव पर लिखने के लिये प्रेरित करते रहे ,फलस्वरूप इस कविता का जन्म हुआ । यह कविता " कथादेश " के जनवरी 2010 अंक से साभार ।
अर्थी सजाने वाले
अपने जीते जी सम्भव नहीं जिस दृश्य को देख पाना
उस दृश्य में उपस्थित हैं वे
भीड़ में दिखाई देते हुए भी भीड़ से अलग
जो सिर्फ जनाज़े को कन्धा लगाने नहीं आये हैं
अर्थी सजाने की कला में भी वे माहिर हैं
कला इस मायने में कि बाँस इस तरह बाँधे जायें
कि अर्थी मज़बूत भी हो और उठाने में सुविधाजनक
देह जिस पर अपनी पूरे आकार में आ जाये
साँसों की डोर का टूटना तो एक दिन निश्चित था
बस अर्थी में बन्धी रस्सी बीच में ना टूट पाये
कोई गुमान भी नहीं अर्थी सजानेवालों के जेहन में
वे इसे कला कहने का कोई औचित्य भी नहीं मानते
मृत्यु की भयावहता से आतंकित होकर भी
अपने प्रकट रूप में वे भयाक्रांत नहीं होते
सामाजिक के प्रचलित अर्थ में असामाजिक भी नहीं
भावना और व्यवहार की आती- जाती लहरों के बीच
संयत होकर निर्वाह करते हैं अपने धर्म का
स्त्रियों को रोता देखकर भी वे नहीं रोते
भौतिक जगत से मनुष्य की विदाई के इस अवसर पर
जहाँ आयु से अधिक मुखर होता है अनुभव
उनकी क्रियाओं में अभिव्यक्त होता है उनका ज्ञान
वे जानते हैं अग्निसंस्कार के लिये
किस मौसम में कितनी लकड़ियाँ पर्याप्त होंगी
उन्हें कैसे जमाएँ कि एक बार में आग पकड़ लें
देह को कब्र में उतारकर पटिये कैसे जमाएँ
खाली बोरे,इत्र,राल,फूल,हंडिया,घी,लोभान
कफन दफन का हर सामान वे जुटाते हैं
अर्थी उठने से पहले याद से कंडे सुलगाते हैं
अर्थी सजाकर वे आवाज़ देते हैं
मृतक के बेटे ,भाई, पति या पिता को
उन्हे पता है अर्थी सजाने की ज़िम्मेदारी भले उनकी हो
कन्धा लगाने का पहला हक़ सगों का है
उनके सामान्य ज्ञान में कहीं नहीं है शामिल
दुनिया के पहले इंसान की कब्र का कोई ज़िक्र
उन्हें नहीं पता अंतिम संस्कार की परम्परा
किस धर्म में कब दाखिल हुई
क्या होता था मनुष्य की मृत देह का
जब उसका कोई धर्म नहीं था
मोक्ष,आत्मा-परमात्मा,लोक-परलोक, जन्नत-जहन्नुम जैसे शब्द
दाढ़ी-चोटी वालों के शब्दकोश में सुरक्षित जानकर
वे चुपचाप सुनते हैं स्मशान के शांत में
मृतक के व्यक्तित्व और क्रियाकलापों का बखान
कर्मकांड पर चल रही असमाप्त बहस से अलग
उनके संतोष में विद्यमान रहता है
एक अनूठा विचार
चलो..मिट्टी खराब नहीं हुई आदमी की ।
- शरद कोकास
कॉमरेड ज्योति बसु को श्रद्धांजलि । चित्र गूगल से व शरद के कैमरे से साभार । कविता कथादेश जनवरी 2010 से साभार ।
मुम्बई दिनांक 28 दिसम्बर 2009 । गेट वे ऑफ इंडिया के सामने खड़ा हूँ । ऐसा कहा जाता है कि अंग्रेज़ों ने भारत पर अपने विजय की खुशी में इसे बनवाया था । उन लोगों ने जिनके राज्य में कहते हैं कभी सूरज नहीं डूबता था । जिस अरब सागर को हम अपना कहते थे उसी अरब सागर के रास्ते वे व्यापार करने आये थे और उसे अपने अधिकार में ले लिया था । मैं देख रहा हूँ कि यह दरवाज़ा अब भी खुला हुआ है ।
सामने पाँच सितारा ताज़ होटेल की इमारत है जिसे आतंक वादी अपना निशाना बना चुके हैं । मेरा ध्यान उस टूट फूट वाले हिस्से पर चल रहे मरम्मत के काम की ओर चला गया है । आतंकवाद पर चल रही बहसों से बेखबर मज़दूर खुश हैं उन्हे काफ़ी दिनों से काम मिला हुआ है । शांति के प्रतीक कबूतर उड़ाये जा रहे हैं कि अब देश आज़ाद है ।
गेट्वे ऑफ इंडिया के सामने पर्यटकों की भारी भीड़ है हर एक के चेहरे पर खुशी । यहाँ से लौटकर सब अपनी अपनी परेशानियों में डूब जायेंगे । एक युवा अपनी प्रेमिका से कह रहा है ...स्माइल प्लीज़ और उसकी तस्वीर ले रहा है यह कैसा प्रेम है कि उसे मुस्कराने के लिये भी हिदायत देना पड़ रहा है ।
मैं इस जनतंत्र का एक मामूली सा कवि जाने क्या क्या सोच रहा हूँ और इन सब दृश्यों को कविता में ढालने की कोशिश कर रहा हूँ .. । लीजिये अब कविता बन ही गई है तो आप भी पढ़ लीजिये .. इस श्रंखला की पहली कविता ।
मैं बचपन से मुम्बई जाता रहा हूँ । उस समय से जब माटुंगा रेल्वे वर्कशॉप में बड़े मामाजी स्व.दयानन्द शर्मा वर्क्स मैनेजर थे और माटुंगा में रेल्वे के एक बड़े से बंगले में रहा करते थे । मैने मुम्बई को सबसे पहले "मामा के गाँव "की तरह जाना । फिर 1975 में चाचाजी श्री वीरेन्द्र कोकाश भी वहाँ आ गये सबर्बन रेल्वे में । फिर बैतूल से छाया बुआ विवाह के पश्चात वहीं आ गई और मधु दीदी भी । सभी के यहाँ कुछ न कुछ आयोजन होते रहते थे जो मुम्बई में छुट्टियाँ बिताने के लिये सबब बन जाते थे और इस तरह लगभग हर साल मुम्बई का एक चक्कर लग ही जाता था ।
फिर कुछ ऐसा हुआ कि अपनी रोजी-रोटी के चक्कर में उलझता गया और मुम्बई जाना लगभग बन्द हो गया । इस बार बरसों बाद मुम्बई जाना हुआ तो वहाँ पहुंच कर ऐसा लगा जैसे अपने किसी बचपन के दोस्त से बरसों बाद मुलाकात हुई हो । मुम्बई मैं कभी पर्यटक की तरह नहीं गया इसलिये मैने मुम्बई को एक पर्यटक की तरह कभी नहीं देखा ,न ही उस तरह जैसे कि अक्सर लोग फिल्मों में और धारावाहिकों में मुम्बई को देखते हैं । बचपन से ही पैदल घूमने की आदत रही सो मैं और मेरा ममेरा भाई अनिल हम दोनो जेब में लोकल का फ्री पास और एक दस का नोट रखे दिन भर स्टेशन दर स्टेशन भटकते रहते थे ।
इस बार मुम्बई में भटकते हुए दस-बारह छोटी छोटी कवितायें लिखीं । यह इस शहर की खासियत है कि यहाँ के दृश्य देखकर कविता अपने आप भीतर जन्म लेने लगती है । कई बार तो मुझे लगता है कि मेरे भीतर के कवि ने भी कहीं समन्दर के किनारे मुम्बई में ही जन्म लिया होगा... इसलिये कि स्कूल के उन दिनों जब मैं कविता लिखना सीख रहा था और शिल्प का मुझे बिलकुल ज्ञान नहीं था एक कविता मुम्बई में भी रची गई थी समन्दर के किनारे के दृश्य देख कर ।
मैने बचपन से आज तक जो कुछ भी लिखा है सब कुछ मेरी डायरियों में सुरक्षित है । सो कविता की इस पहली डायरी से बचपन में लिखी यह कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ । कविता में शिल्प या कथ्य या विचारों की परिपक्वता को कृपया नज़रअन्दाज़ कर दीजियेगा और एक किशोर की कविता की तरह ही इसे पढियेगा । इस बार की मुम्बई यात्रा में जो कवितायें मैने “ सिटी पोयम्स मुम्बई ” के नाम से लिखी हैं वे दो –तीन दिनों बाद दूंगा ।
कोलाहल
लहरों के पार डूबता सूर्य का जीवन
उसकी अस्पष्ट वाणी दबकर रह गई कोलाहल में
प्रकृति के सागर से विशालतम
रेत को रौन्दता हुआ यह जनमानस का सागर
यह कोलाहल
इसमें सिमट आई हैं
खुशी की किलकारियाँ
आनन्द की अनुभूति
प्रेम की गुनगुनाहट
और क्रोध की चिनगारियाँ
क्या नहीं है इसमें
प्यार के झूठे –सच्चे वादे
साथ साथ जीने की कसमें
दिखावे की रसमें
इसमे निहित है कुछ उभरती आवाज़ें
मिल के भोपुओं की
जिनकी चिमनियों से निकल रहा है
अय्याशी का धुआँ
ये अट्टहास गूंजता है प्रासादों में
छिपा है स्वार्थ का राक्षस
ऐश्वर्य की बू
आश्वासनों और वादों में
लेकिन......................
इन बड़ी बड़ी आवाज़ों के पीछे
कुछ ऐसी आवाज़ें भी हैं
जो शायद डूब चुकी हैं
ये उठ नहीं सकतीं
क्योंकि इनमें है
दिनभर के श्रम की थकान
पेट की आग
और...............................
एक मांग
अन्न वस्त्र और मकान
इसमें है दर्द की स्वर लहरियाँ
झोपड़पट्टी में ज़िन्दा लाश सी
ग़रीबी की ठठरियाँ
दुख की आहें
और..............................
बेबसी का मौन
पर इन दबे स्वरों को सुनेगा कौन ?
उनकी पहुंच नहीं आसमानों तक
उनकी पहुंच नहीं इन कानों तक
ये आवाज़ें दबती जायेंगी अन्धेरे के साथ
इस तट की रेत में
और लहरों से टकराकर
इनका अस्तित्व यूँ ही समाप्त हो जायेगा ।
- शरद कोकास
c/o Mr D N Sharma c-97 wenden avenue matunga ,mumbai
( प्रथम बार सार्वजनिक की गई यह अनगढ़ कविता अगर आपने यहाँ तक पढ़ ही ली है तो कृपया इसके लिये मेरा धन्यवाद स्वीकार करें – शरद कोकास )
कई दिनों के बाद यात्रा से लौटा हूँ ..मुम्बई गया था ,बीमार चाचा जी से मिलने । व्यस्तता और भागदौड़ कुछ ऐसी रही कि ब्लॉगर मित्रों से और कवि कथाकार मित्रों से मुलाकात ही नहीं कर पाया । जाते समय सोचता रहा कि सबसे मिलूंगा लेकिन यह सम्भव नहीं हुआ । यहाँ तक कि वहाँ मेल देखने का भी समय नहीं मिला । बीच में एक दिन समीर लाल जी से सम्वाद हुआ तो उन्होने कहा " चाचा जी का खयाल रखिये, उन्हे पूरा समय दीजिये । हमारे बुज़ुर्गों से बड़ी हमारी कोई धरोहर नहीं हो सकती ..बाक़ी सब तो चलता रहेगा ।" सो यह हिदायत भी ध्यान में रही ।
परसों ही रेल से लौटा हूँ । यात्रा करते हुए फिर इस कवि के दिमाग़ में बहुत सारे बिम्ब इकठ्ठा हो गये हैं। कुछ कवितायें मुम्बई की ज़िन्दगी पर भी मन में पक रही हैं । लोहे के घर में बैठकर यात्रा करते हुए फिर कुछ नये लोग मिले हैं । बहुत पहले एक कविता लिखी थी रेल में बिना टिकट यात्रा करने वाले एक ग़रीब मजदूर को देख कर जो मेरे कविता संग्रह " गुनगुनी धूप में बैठकर " में शामिल है । अभी लौटते हुए उस कविता के लिये एक दृश्य मिल गया ,सो कविता और साथ में यह चित्र आपके लिये । शायद आपको आठ पंक्तियों की इस कविता में व्यवस्था और उसके प्रति आक्रोश के निर्वाह की एक झलक मिल जाये । आप सभी को नये साल की हार्दिक शुभकामनायें .... शरद कोकास