मेरे पिता स्व.जगमोहन कोकास ,मध्यप्रदेश के बैतूल शहर से शिक्षक की नौकरी करने के लिये निकले और महाराष्ट्र के भंडारा नामक शहर में आ बसे । अपने से बड़े दो किसान भाईयों की मदद और अपना परिवार पालने की ज़द्दोज़हद में कुछ इस तरह फँसे रहे कि रिटायरमेंट से पहले अपना मकान नहीं बना पाये । तनख्वाह इतनी कम थी कि कर्ज़ भी नहीं मिला । जब तक मकान बना तब तक बेटी की शादी हो चुकी थी और दोनो बेटे अपनी नौकरी के लिये दूसरे शहर जा चुके थे । एक मेहनतकश,ईमानदार और ज़िम्मेदारियों के बोझ से लदे मध्यवर्गीय के साथ ऐसा हो सकता है । परिवार के साथ रहने का सुख हर इंसान जीवन भर ढूँढता रहता है।माता-पिता भी जीवन भर कोशिश करते है कि बच्चों को बेहतर परिवेश दे रहने के लिये और अन्य सुविधायें भी लेकिन जब सुविधायें मिलती है तब तक रोजी-रोटी की कश्मकश बच्चों को उनसे दूर कर देती है। आजकल बच्चे भी उच्च शिक्षा के लिये कम उम्र में ही घर से निकल जाते हैं और फिर नौकरी काम-धन्धे में ऐसे उलझते हैं कि कभी घर लौट नहीं पाते । बेटियों का विवाह के पश्चात अपने माँ-बाप से दूर चले जाना तो उनकी नियति है ।आम मध्यवर्गीय की इस व्यथा को उतारने की कोशिश की है मैने इस कविता में । यह कविता उन सभी माता-पिता के लिये और उन सभी बच्चों के लिये जो एक दूसरे से दूर हैं । शायद एक पिता का दर्द भी आपको इसमें नज़र आये .....।
रिटायरमेंट के बाद बना मकान
चिड़िया ने देखा
घोंसले का स्वप्न
पिता ने जुटाई थोड़ी सी पूंजी
तिनका तिनका हिम्मत
उमीदों की नींव पर
बन गया एक मकान
रिटायरमेंट के बाद
छत ढलने से पहले ही
ढलने लगे थे स्वप्न
यहाँ महकेगी रसोई
यहाँ खिलेगा गुलमोहर
यहाँ बसेंगे बहू-बेटे
दीवार नहीं थे बच्चे
जिनसे पिता चाहते थे सुरक्षा
छत भी नहीं थे बच्चे
जिनसे बुढ़ापे में हो छाँव की अपेक्षा
बूढॆ पिता नहीं जानते थे
बच्चे दीवार और छत की तरह
एक जगह टिके नहीं रहते
बच्चे पंछियों की तरह बढ़ते हैं
पर फैलाते हैं
दाने-पानी की खोज में
आंगन में अकेले बैठे पिता
सुनते हैं
परदेस जाते बेटे के कदमों की आवाज़
झाड़ते हैं
बिटिया के गुड्डे-गुड़ियों पर जमी धूल
बन्द पड़े सूने कमरे की ओर ताकते हुए
वे याद करते हैं
किराये के छोटे से मकान में बिताये
चहल पहल भरे दिन ।
--- शरद कोकास
(चित्र :मेरे निर्माणाधीन मकान का जो होम लोन की मदद से काफी पहले बन चुका है , दूसरा व तीसरा चित्र बाबूजी के बनाये हुए मकान और बाग़ीचे का जिसके लिये यह कविता लिखी गई , जो मैने बाबूजी को कभी नही सुनाई इस लिये कि यह सुनकर उन्हे दुख होता )