शुक्रवार, अक्टूबर 30, 2009

आखिर हम घर किसके लिये बनाते हैं ?

मेरे पिता स्व.जगमोहन कोकास ,मध्यप्रदेश के बैतूल शहर से शिक्षक की नौकरी करने के लिये निकले और महाराष्ट्र के भंडारा नामक शहर में आ बसे । अपने से बड़े दो किसान भाईयों की मदद और अपना परिवार पालने  की ज़द्दोज़हद में कुछ इस तरह फँसे रहे कि रिटायरमेंट से पहले अपना मकान नहीं बना पाये । तनख्वाह इतनी कम थी कि कर्ज़ भी नहीं मिला । जब तक मकान बना तब तक  बेटी की शादी हो चुकी थी और दोनो बेटे अपनी नौकरी के लिये दूसरे शहर जा चुके थे । एक मेहनतकश,ईमानदार और ज़िम्मेदारियों के बोझ से लदे मध्यवर्गीय के साथ  ऐसा हो सकता है । परिवार के साथ रहने का सुख हर इंसान जीवन भर ढूँढता रहता है।माता-पिता भी जीवन भर कोशिश करते है कि बच्चों को बेहतर परिवेश  दे रहने के लिये और अन्य सुविधायें भी लेकिन जब सुविधायें मिलती है तब तक  रोजी-रोटी की कश्मकश बच्चों को उनसे दूर कर देती  है। आजकल बच्चे भी उच्च शिक्षा के लिये कम उम्र में ही घर से निकल जाते हैं और फिर नौकरी काम-धन्धे में ऐसे उलझते हैं कि कभी घर लौट नहीं पाते । बेटियों का विवाह के पश्चात अपने माँ-बाप से दूर चले जाना तो उनकी नियति है ।आम मध्यवर्गीय की इस  व्यथा को उतारने की कोशिश की है मैने इस कविता में । यह कविता उन सभी माता-पिता के लिये और उन सभी बच्चों के लिये जो एक दूसरे से दूर हैं । शायद एक पिता का दर्द भी आपको इसमें नज़र आये .....।

                    
                                   रिटायरमेंट के बाद बना मकान



  घने होते शहर में 
  चिड़िया ने देखा
  घोंसले का स्वप्न
  पिता ने जुटाई थोड़ी सी पूंजी
  तिनका तिनका हिम्मत
  उमीदों की नींव पर
  बन गया एक मकान
  रिटायरमेंट के बाद

 छत ढलने से पहले ही
 ढलने लगे थे स्वप्न
 यहाँ बिराजेंगे देवता
 यहाँ महकेगी रसोई
 यहाँ खिलेगा गुलमोहर
 यहाँ बसेंगे बहू-बेटे

 दीवार नहीं थे बच्चे
 जिनसे पिता चाहते थे सुरक्षा
 छत भी नहीं थे बच्चे
 जिनसे बुढ़ापे में हो छाँव की अपेक्षा




 बूढॆ पिता नहीं जानते थे
 बच्चे दीवार और छत की तरह
 एक जगह टिके नहीं रहते
 बच्चे पंछियों की तरह बढ़ते हैं
 पर फैलाते हैं
 एक दिन उड़ जाते हैं
 दाने-पानी की खोज में



 आंगन में अकेले बैठे पिता
 सुनते हैं
 परदेस जाते बेटे के कदमों की आवाज़
 झाड़ते हैं 
बिटिया के गुड्डे-गुड़ियों पर जमी धूल
 बन्द पड़े सूने कमरे की ओर ताकते हुए
 वे याद करते हैं
 किराये के छोटे से मकान में बिताये
 चहल पहल भरे दिन ।

             --- शरद कोकास
(चित्र :मेरे निर्माणाधीन मकान का जो होम लोन की मदद से काफी पहले बन चुका है , दूसरा व तीसरा चित्र बाबूजी के बनाये हुए मकान और बाग़ीचे का जिसके लिये यह कविता लिखी गई , जो मैने बाबूजी को कभी नही सुनाई इस लिये कि यह सुनकर उन्हे दुख होता )

शनिवार, अक्टूबर 24, 2009

यह अक्तूबर का चमकदार उतार है


आज 24 अक्तूबर है .. हवा में कल रात थोड़ी ठंडक महसूस की मैने .. खिड़की से हवा का एक झोंका आया और उसने कहा .याद है तुम्हे, तुम्हारे मित्र कुमार अम्बुज ने इन्ही  दिनों के लिये एक कविता लिखी थी ..‘ अक्तूबर का उतार ‘.. अरे हाँ ,मुझे याद आया , मैने रैक से अम्बुज का वह संग्रह निकाला “ किवाड़ “ उसीमें से यह कविता पढ़ रहा हूँ .जो कुमार अम्बुज  ने 1988 में लिखी थी ....आप भी पढ़िये मेरे साथ..

                                                            अक्तूबर का उतार

छतों पर स्वेटरों को धूप दिखाई जा रही थी
और हवा में
ताज़ा धुले हुए चूने की गन्ध
झील में बतख़ की तरह तैर रही थी
यह एक खजूर की कूची थी जिसके हाथों
मारी जा चुकी थी बरसात की भूरी काई
और पुते हुए झक्क-साफ मकानों के बीच
एक बेपुता मकान
अपने उदास होने की सरकारी-सूचना के साथ
सिर झुकाये खड़ा था
टमाटरों की लाली शुरू होकर
चिकने भरे हुए गालों तक पहुंच रही थी
अंडे और दूध का प्रोटीन जेब खटखटा रहा था
खली और नमक की खुशबू
पशुओं की भूख में मुँह फाड़ रही थी
आदम-इच्छाओं में शामिल हो रहा था
हरे धनिये का रंग और अदरक का स्वाद
बाज़ार में ऊन और कोयले के भाव बढ़ रहे थे

रुई धुनकने वाले की बीवी के खुरदरे हाथ
सुई-डोरे के साथ
रज़ाई-गद्दों पर तेज़ी से चल रहे थे
( यही वह जगह होती है जहाँ सुई तलवार से
और डोरा रस्सी से बड़ा हो जाता है )
बढ़ई की भुजाओं की मछलियाँ
लकड़ी को चिकना करते हुए
खुशी से उछल रही थीं
तेज़ हो रही थी लोहा कूटने की आँच
खुल रहे थे बैलगाड़ियों के रास्ते
आलू की सब्ज़ी शाम तक चल जाने लायक इन दिनों में
एक मटमैली चिड़िया अपनी चोंच से
बच्चे की चोंच में दाना डाल रही थी

रावण का पुतला सालाना जश्न में जल चुका था
मगर आसमान में बारूद और आवाज़ें बाकी थीं
बाकी थी रोशनी और सजावट के लिये कुछ जगह
थोड़ी सी जगह
बच्चों के खेल के लिये निकल आई थी
और थोड़ी-सी पेड़ के नीचे एक बेंच पर

इस रोनी दुनिया में
मुस्कराये जाने की गुंजाइश के साथ
इमली का पेड़ लगातार हिल रहा था

यह सर्दियों की चढ़ाई थी
जब मकड़ियों के घर उजड़ रहे थे
और अक्तूबर का यह चमकदार उतार था
जिस पर से एक पूरा शहर फिसल रहा था

जैसे रिसक-पट्टी से फिसलता है
एक बच्चा  !

- कुमार अम्बुज

तो आप भी बक्सों से स्वेटर रज़ाई,कम्बल निकाल लीजिये और उन्हे धूप दिखाइये । और हाँ ..एक बात और कुमार अम्बुज कवि होने के अलावा एक चिंतक भी है । विगत दिनों धर्म को लेकर ब्लॉग्स पर एक बहस चली थी । शायद इसका सार्थक जवाब यहाँ मौजूद हो .. इस ब्लॉग कुमार अम्बुज में ।- आपका शरद कोकास
 (चित्र गूगल से साभार )

सोमवार, अक्टूबर 19, 2009

मुँह ढाँककर सो जाने के लिये नहीं आती हैं छुट्टियाँ ।

दीवाली के कुछ दिनो बाद छुट्टियाँ समाप्त हो जायेंगी । त्योहार पर घर आये शहरों में पढ़ने वाले बच्चे, फौजी जवान , शहर में रहकर नौकरी करने वाले गाँव के युवक और रोज़ी-रोटी की तलाश में शहर दर शहर भटकते मजदूर फिर लौट जायेंगे । छुट्टियों में घर लौटना क्या होता है यह वही जान सकता है मजबूरियों ने जिसे घर से दूर कर दिया हो । लेकिन छुट्टियाँ भी जीवन का एक हिस्सा होती हैं , घर में कुछ समय रहने का सुख तो होता है लेकिन चिंतायें ,परेशानियाँ ज़िम्मेदारियाँ यहाँ भी कहाँ पीछा छोड़ती हैं । इस दृश्य को एक कवि की दृष्टि से देखा है मैने अपनी इस कविता ” छुट्टियाँ “ में ।

                                              छुट्टियाँ


मशीन के पुर्जे सी ज़िन्दगी में 

तेल की बून्द बनकर आती हैं छुट्टियाँ
गाँव में बीमार माँ की आँखों में 
जीने की अंतिम आस बनकर
उतर आती हैं छुट्टियाँ 

बहन की सूनी कलाईयों में चूड़ियाँ 
पिता के नंगे जिस्म में कुर्ता 
भाई की आँखों में 
आगे पढ़ने की ललक 
रूप बदलती जाती हैं छुट्टियाँ 

पत्नी की देह पर अटके चीथड़ों में 
परिवर्तन की आस बन जाती हैं छुट्टियाँ 
तुलसी के बिरवे के लिये जलधारा 
लक्ष्मी गाय मोती कुत्ते के लिये 
स्पर्श की चाह बन जाती हैं छुट्टियाँ 

बाग-बगीचों खेत खलिहान 
नदी पहाड़ अमराईयों के लिये 
गुजरे कल की याद 
बन जाती है छुट्टियाँ




आने का इंतज़ार करते हैं हम  
न खत्म होने की कामना
हमारी सोच की सीमा से पहले ही

अचानक खत्म हो जाती हैं छुट्टियाँ

सच पूछो तो 

मुँह ढाँककर सो जाने के लिये
नहीं आती हैं छुट्टियाँ ।

                   -शरद कोकास 


(चित्र गूगल से और रजनीश के. झा के ब्लॉग 'कुछ अनकही सी' से  साभार )

सोमवार, अक्टूबर 12, 2009

पैसे से क्या क्या तुम यहाँ खरीदोगे ...?


सुबह देखा तो सारे अखबार विज्ञापनों से भरे हुए हैं । पुष्य नक्षत्र में दिनभर खरीदारी कीजिये ,सोना,चान्दी,हीरा,मूंगा,नीलम,ज्वेलरी,एलेक्ट्रोनिक सामान ,टीवी फ्रिज,कार,बाइक ,ज़मीन-ज़ायदाद। ऐसा कहा जा रहा है कि इस दिन यह सब खरीदने से घर में लक्ष्मी की कृपा बनी रहेगी इसलिये लोग बिना ज़रूरत भी अनाप – शनाप गैरज़रूरी सामान खरीद रहे है । और कुछ इसलिये भी कि उन्हे ज़रूरत का अहसास दिलाया जा रहा है । अरे ..आपके  घर में यह नये तरह का टीवी नहीं है ? कैसे आधुनिक हैं आप ? अरे आप अभी तक पुराने किस्म की ज्वेलरी पहन रही हैं ,आपको शर्म नहीं आती ? क्या भाईसाहब अभी तक वही पुराना स्कूटर ? 
जिस देश में करोड़ों लोगों को ठीक से दो वक़्त की रोटी नहीं मिलती उस देश में उन्हे बताया जा रहा है फलाने ऑवन में खाना जल्दी पकता है इसलिये यह तो आपके यहाँ होना ही चाहिये । इसकी आपको सख़्त ज़रूरत है ।
ठीक है जिनकी क्षमता है वे खरीद सकते हैं और बाक़ी लोगों से कहा जा सकता है जो है उसीमें खुश रहो ,संतोष ही सबसे बड़ा धन है । हाँलाकि अब तो यह बात भी नहीं है ,कहा जा रहा है खरीदो खरीदो चाहे कर्ज़ लेकर खरीदो ।लेकिन यह तो  हद हो गई कि अब बाज़ार हमें बतला रहा है कि हमें किस चीज़ की ज़रूरत है ।
बाज़ार हमे बतला रहा है कि पत्नी से प्यार करने के लिये उसे क्या देना चाहिये ।भाई बहन को उपहार में क्या दे कि वह आपको भाई माने ? किस उपहार के देने से आपका बच्चा आपकी इज़्ज़त करेगा ? 
घरेलू और नितांत उपयोगी वस्तुओं तक तो ठीक है ,प्रेम,सौहार्द्र,भाईचारा, हँसी-खुशी भी अब हमें बाज़ार की सलाह से खरीदना होगा ? क्या हमें बतलाना होगा कि इन सबकी हमारे जीवन में ज़रूरत क्यों है ? और इन्हे हासिल करने के लिये हमारी संस्कृति में क्या प्रावधान है ? जीवन के मूल राग तो हमे पुरखों से मिले हैं। 
इन्ही भावों पर बिम्बों के माध्यम से कुछ कहने की कोशिश की है इस  छोटी सी कविता में  ।
                                   
                                                            ज़रूरत                                                      

क्या ज़रूरी है
दिया जाए कोई बयान
ज़रूरतों के बारे में


पेश की जाए कोई फेहरिस्त
हलफनामा दिया जाए


चिड़िया से पूछा जाए

क्यों ज़रूरी है अनाज का दाना
चूल्हे से तलब की जाए
आग की ज़रूरत
पशुओं से मांगा जाए
घास का हिसाब
कपड़ों से कपास का
छप्पर से बाँस का
हिसाब मांगा जाए


हल्दी से पूछी जाए
हाथ पीले होने की उमर
दवा की शीशी से पूछा जाए
दवा का असर


फूलों से रंगत की
बच्चों से हँसी की ज़रूरत पूछी जाए


क्या ज़रूरी है
हर ज़रूरी चीज़ के बारे में
किया जाए कोई सवाल ।

                        - शरद कोकास 
(इस चित्र में जबलपुर की यह एक कॉस्मेटिक्स की दुकान है जहाँ एक गरीब चायवाला चाय देने आया है , दुकान के मालिक सुनील विश्वकर्मा चाय पीते हुए  प्रसन्न हैं क्योंकि उन्हे इस वक़्त चाय की सख़्त ज़रूरत जो है . यह चित्र ऑफ सीज़न का है ,इन दिनो  तो उनके यहाँ भारी भीड़ है । इस चित्र को देखकर क्या क्या सोच सकते हैं आप ? )  


बुधवार, अक्टूबर 07, 2009

मेरी आँखों के जल में झिलमिलाता चांद

नवरात्र के बाद शरद पूर्णिमा भी आकर चली गई ,फिर अब करवा चौथ ,रात पूर्णिमा और चांद यह शब्द युग्म अपने आप में एक कविता की तरह लगता है , सभी तरफ चांद की ही बातें हैं । खिड़की से बाहर देखो तो चांद , सड़क पर चलते हुए देखो तो चांद । मुझे याद आ रही है बरसों पहले लिखी एक प्रेम कविता । सफल प्रेम की या असफल प्रेम की ..? यह तो आप को तय करना है ।

                                                  तफरीह                                                          

तफरीह चल रही थी                       
चांद की आसमान में                     
ज़मीन पर हमारी            
बैठी थी वह                       
दुपहिये की पिछली सीट पर     


बेनकाब था चांद आसमान में      
यहाँ थी मुखौटों की भीड़               
मुश्किल था असल चेहरा पहचानना  


मैने कहा चांद को देखो     
हमारे साथ चल रहा है         
उसने कहा
तुम सड़क पर निगाह रखो                                                 
तुम्हारा क्या मुझे तो जीना है   


मै नहीं देख पाया                                
उसकी निगाहें                                                         
चांद पर थी या नहीं                                                            
वह भी कहाँ देख पाई                                                                  
मेरी आँखों के जल में                                                                      
झिलमिलाता हुआ चांद ।                               

- शरद कोकास                                                                                         
(चित्र में दुर्घटनाओं के लिये कुख्यात भिलाई की एक व्यस्त सड़क )