नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें नौवाँ दिन
मिता दास की कविता रसोई में स्त्री पर अपने विचार व्यक्त करते हुए रंजना ने कहा “ रसोई में औरत के दिल में भी कुछ कुछ साथ साथ पकता रहता है । “ शोभना चौरे ने कहा मिता ने नारी के कुशल प्रबन्धन को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त किया है । सद्भावना दर्पण के सम्पादक गिरीश पंकज ने मिता की कविता की नमक के स्वाद के साथ तुलना करते हुए कहा कि समकालीन कविता में सद्भाव का नमक बना रहे । दीपक भारतदीप ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में कहा कि नई पीढ़ी इंटरनेट पर कहानी कविताओं में कथ्य,तथ्य और भाव देख रही है । गम्भीर कवितायें ज़्यादा सशक्त होती हैं । अशोक कुमार पाण्डेय ने इसी ज़मीन पर लिखी कुमार अम्बुज की कविता को याद करते हुए कहा कि यह छोटी कविता सच में बड़ी बात कहती है । काजल कुमार ने इस तरह की कविताई को सुनार का काम कहा । निशांत ने कहा कि कभी किसी की पंक्तियाँ हृदय में गहरे तक उतर आती हैं उन पर टिप्पणी करने से हम खुद को रोक नहीं पाते । समीर लाल ने इसे औरत की आम ज़िन्दगी के आसपास खोई कविता का पता बताती हुई कविता कहा । वहीं चन्द्रमोहन गुप्त ने इस कविता को काम के दबाव तले कसमसाती साहित्यिक प्रतिभाओं की घुटन को बयान करती कविता कहा । वन्दना को हर औरत में छुपी हुई एक कवयित्री नज़र आई । अनिल पुसदकर ने सहज भाव से कहा मुझे कविता की ज़्यादा समझ नहीं है लेकिन मैं उन्हे पढ़ने से परहेज नहीं करता । दिगम्बर नासवा ने इसे रोज़मर्रा के शब्दों से निकली जीवंत रचना माना और विधु ने कहा मिता दास के शब्द और दिल की हलचल बड़े बड़े कवियों को पीछे छोड गई है । अजित वडनेरकर ,अविनाश वाचस्पति ,अल्पना वर्मा ,वाणी गीत , एम.वर्मा, श्रीश श्रीधर पाठक ,सच्चाई, लावण्या,विनोद कुमार पाण्डेय , लोकेश ,ललित शर्मा , सुमन ,पवन चन्दन ,और अली को यह रचना बेहद पसन्द आई । आज नवरात्रि के अंतिम दिन प्रस्तुत कर रहा हूँ एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी कवयित्री निर्मला पुतुल की कविता । मूल संताली कविता का हिन्दी में रूपांतर किया है अशोक सिंह ने । यह कविता शहरी लोगों के उस चेहरे को बेनकाब करती है जो आदिवासियों को एक दूसरी दुनिया के मनुष्य़ की तरह देखता आया है। स्त्री विमर्श और नारी के लिये घड़ियाली आँसू बहाने वाले तमाम तथाकथित सभ्य लोगों को आईना दिखाती यह कविता ,भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित निर्मला पुतुल के कविता संग्रह “ नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द “ से साभार ।- आपका -शरद कोकास
एक बार फिर
( अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस समारोह का आमंत्रण पत्र पाकर ) एक बार फिर
हम इकट्ठे होंगे एक विशाल सभागार में
हम इकट्ठे होंगे एक विशाल सभागार में
किराये की भीड़ के बीच
एक बार फिर
ऊंची नाकवाली अधकटे ब्लाउज पहनी महिलायें
करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व
और प्रधिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने
एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से माइक पर चीखेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियाँ बटोरते
हाथ उठाकर देंगी साथ होने का भरम
एक बार फिर
शब्दों के उड़नखटोले पर बिठा
वे ले जायेंगी हमें संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहँ से टकरायेंगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जायेंगे उसमें
निहित हमारे सपने
एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगी
माननीया मुख्यमंत्री
और गौरवान्वित होंगे हम
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से
एक बार फिर
बहस की तेज आँच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिये जायेंगे दहेज-हत्या ,बलात्कार
यौन-उत्पीड़न
वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबन्दी कर लड़ने के
कई –कई संकल्प
एक बार फिर
अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुजरेंगे शहर की गलियों से
पुरुष सत्ता के खिलाफ़
हवा में मुट्ठी-बन्धे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की उष्मा से
गर्म हो जायेगी शहर की हवा
एक बार फिर
सड़क किनारे खड़े मनचले सेंक सकेंगे अपनी आँखें
और रोमांचित होकर बतियाएँगे आपस में कि
यार,शहर में वसंत उतर आया
एक बार फिर
जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकठ्ठे हो हम लगायेंगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा-पेण्टी वाली सिने तारिकायें
बेशर्मी से नायक की बाँहों में झूलती
दिखाएँगी हमें ठेंगा
धीरे –धीरे ठण्डी पड़ जायेगी भीतर की आग
और एक बार फिर -
छितरा जायेंगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में ।
- निर्मला पुतुल