रविवार, सितंबर 27, 2009

सड़क किनारे खड़े मनचले सेंक सकेंगे अपनी आँखें

नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें नौवाँ दिन

मिता दास की कविता रसोई में स्त्री पर अपने विचार व्यक्त करते हुए रंजना ने कहा “ रसोई में औरत के दिल में भी कुछ कुछ साथ साथ पकता रहता है । “ शोभना चौरे ने कहा मिता ने नारी के कुशल प्रबन्धन को अपनी लेखनी के माध्यम से अभिव्यक्त किया है । सद्भावना दर्पण के सम्पादक गिरीश पंकज ने मिता की कविता की नमक के स्वाद के साथ तुलना करते हुए कहा कि समकालीन कविता में सद्भाव का नमक बना रहे । दीपक भारतदीप ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में कहा कि नई पीढ़ी इंटरनेट पर कहानी कविताओं में कथ्य,तथ्य और भाव देख रही है । गम्भीर कवितायें ज़्यादा सशक्त होती हैं । अशोक कुमार पाण्डेय ने इसी ज़मीन पर लिखी कुमार अम्बुज की कविता को याद करते हुए कहा कि यह छोटी कविता सच में बड़ी बात कहती है । काजल कुमार ने इस तरह की कविताई को सुनार का काम कहा । निशांत ने कहा कि कभी किसी की पंक्तियाँ हृदय में गहरे तक उतर आती हैं उन पर टिप्पणी करने से हम खुद को रोक नहीं पाते । समीर लाल ने इसे औरत की आम ज़िन्दगी के आसपास खोई कविता का पता बताती हुई कविता कहा । वहीं चन्द्रमोहन गुप्त ने इस कविता को काम के दबाव तले कसमसाती साहित्यिक प्रतिभाओं की घुटन को बयान करती कविता कहा । वन्दना को हर औरत में छुपी हुई एक कवयित्री नज़र आई । अनिल पुसदकर ने सहज भाव से कहा मुझे कविता की ज़्यादा समझ नहीं है लेकिन मैं उन्हे पढ़ने से परहेज नहीं करता । दिगम्बर नासवा ने इसे रोज़मर्रा के शब्दों से निकली जीवंत रचना माना और विधु ने कहा मिता दास के शब्द और दिल की हलचल बड़े बड़े कवियों को पीछे छोड गई है । अजित वडनेरकर ,अविनाश वाचस्पति ,अल्पना वर्मा ,वाणी गीत , एम.वर्मा, श्रीश श्रीधर पाठक ,सच्चाई, लावण्या,विनोद कुमार पाण्डेय , लोकेश ,ललित शर्मा , सुमन ,पवन चन्दन ,और अली को यह रचना बेहद पसन्द आई । आज नवरात्रि के अंतिम दिन  प्रस्तुत कर रहा हूँ एक संताल आदिवासी परिवार में जन्मी कवयित्री निर्मला पुतुल की कविता । मूल संताली कविता का हिन्दी में रूपांतर किया है अशोक सिंह ने । यह कविता शहरी लोगों के उस चेहरे को बेनकाब करती है जो आदिवासियों को एक दूसरी दुनिया के मनुष्य़ की तरह देखता आया है। स्त्री विमर्श और नारी के लिये घड़ियाली आँसू बहाने वाले तमाम तथाकथित सभ्य लोगों को आईना दिखाती यह कविता ,भारतीय ज्ञानपीठ द्वारा प्रकाशित निर्मला पुतुल के कविता संग्रह “ नगाड़े की तरह बजते हैं शब्द “ से साभार ।-                           

आपका -शरद कोकास                                                                                                                         
                                            एक बार फिर                               
                        ( अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस समारोह का आमंत्रण पत्र पाकर )  
                                                                                                                                                                    


एक बार फिर
हम इकट्ठे होंगे एक विशाल सभागार में
किराये की भीड़ के बीच


एक बार फिर
ऊंची नाकवाली अधकटे ब्लाउज पहनी महिलायें
करेंगी हमारे जुलूस का नेतृत्व
और प्रधिनिधित्व के नाम पर
मंचासीन होंगी सामने


एक बार फिर
किसी विशाल बैनर के तले
मंच से माइक पर चीखेंगी
व्यवस्था के विरुद्ध
और हमारी तालियाँ बटोरते
हाथ उठाकर देंगी साथ होने का भरम


एक बार फिर
शब्दों के उड़नखटोले पर बिठा
वे ले जायेंगी हमें संसद के गलियारों में
जहाँ पुरुषों के अहँ से टकरायेंगे हमारे मुद्दे
और चकनाचूर हो जायेंगे उसमें
निहित हमारे सपने


एक बार फिर
हमारी सभा को सम्बोधित करेंगी
माननीया मुख्यमंत्री
और गौरवान्वित होंगे हम
अपनी सभा में उनकी उपस्थिति से


एक बार फिर
बहस की तेज आँच पर पकेंगे नपुंसक विचार
और लिये जायेंगे दहेज-हत्या ,बलात्कार
यौन-उत्पीड़न
वेश्यावृत्ति के विरुद्ध मोर्चाबन्दी कर लड़ने के
कई –कई संकल्प


एक बार फिर
अपनी ताकत का सामूहिक प्रदर्शन करते
हम गुजरेंगे शहर की गलियों से
पुरुष सत्ता के खिलाफ़
हवा में मुट्ठी-बन्धे हाथ लहराते
और हमारे उत्तेजक नारों की उष्मा से
गर्म हो जायेगी शहर की हवा


एक बार फिर
सड़क किनारे खड़े मनचले सेंक सकेंगे अपनी आँखें
और रोमांचित होकर बतियाएँगे आपस में कि
यार,शहर में वसंत उतर आया


एक बार फिर
जहाँ शहर के व्यस्ततम चौराहे पर
इकठ्ठे हो हम लगायेंगे उत्तेजक नारे
वहीं दीवारों पर चिपके पोस्टरों में
ब्रा-पेण्टी वाली सिने तारिकायें
बेशर्मी से नायक की बाँहों में झूलती
दिखाएँगी हमें ठेंगा
धीरे –धीरे ठण्डी पड़ जायेगी भीतर की आग
और एक बार फिर -
छितरा जायेंगे हम चौराहे से
अपने-अपने पति और बच्चों के
दफ्तर व स्कूल से लौट आने की चिंता में ।
                                - निर्मला पुतुल

शनिवार, सितंबर 26, 2009

हम तो कविताओं के ब्लॉग की ओर झांकते भी नहीं..

जया जादवानी की कविताओं पर ललित शर्मा ने कहा इन कविताओं में बहुत गहराई है । रंजना के लिये इस से अधिक एक औरत का सच कुछ नहीं हो सकता । विपिन बिहारी गोयल , राज भाटिया , वन्दना , अजेय , मयूर , चन्द्रमोहन गुप्ता , हरकीरत हक़ीर , गिरीश पंकज , चन्दन कुमार झा , महफूज़ अली , सुमन  और अदा को यह कवितायें बेहद पसन्द आईं । वाणी गीत ने कहा '" सभी कवितायेँ लाजवाब हैं ...कुछ सम्मानित ब्लोगर्स बहुत अकड़ कर कहते रहे हैं..हम तो कविताओं के ब्लॉग की ओर झांकते भी नहीं.. यदि महिलाएं सिर्फ ऐसी कवितायेँ ही लिख सकती हैं ...तो बेहतर होगा की वे कविताओं के सिवा और कुछ लिखें भी नहीं ...महज कुछ पंक्तियों में इतनी बेहतर अभिव्यक्ति लेखन की किस विधा में होगी ..| मुझे नहीं पता आप किन सम्मानित ब्लॉगर्स के बारे में कह रही हैं ,मेरे ब्लॉग पर तो सारे कविता प्रेमी ब्लॉगर्स आते हैं । उनके सहित मैं आप सभी का हृदय से आभारी हूँ । “ संजीव तिवारी और आशीष खंडेलवाल ने इन कविताओं की प्रस्तुति पर आभार व्यक्त किया है । शोभना चौरे ने कहा कि स्त्री की ज़िन्दगी रोटी के इर्द गिर्द ही घूमती है ।इसी विचार पर केन्द्रित है आज अष्टमी पर कथाकार और कवयित्री मिता दास की यह कविता जो यह बताती है कि एक स्त्री के लिये ग्रहस्थी सम्भालते हुए कविता कहानी लिखना कितना कठिन काम है ।-          शरद कोकास 
नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें आठवाँ दिन                                     रसोई में स्त्री                                                         


कितनी ही रचनायें 
नमक दानी के सिरहाने 
दम तोड़ देती हैं
रसोई में


खाना बनाती स्त्री 
जब शब्द गढ़ती है 
हाथ हल्दी से पीले हो जाते हैं 
आटा गून्धते हुए 
मसालों की गन्ध से घुंघुवाती मिलती है

उस दिन कहानी के क्लाइमेक्स पर थी
फ्रिज खोलकर टमाटर निकाले 
शब्द दौड़कर
जा बैठे फ्रिज में रखे दही के कटोरदान में


एक दिन तो हद हो गई 
अदरक का टुकड़ा पीसते पीसते
पीस डाले सारे बेहतरीन शब्द
और कविता गढ़ते गढ़ते
खुद कविता हो गई ।

-मिता दास                                                                                                                                          

शुक्रवार, सितंबर 25, 2009

मै निर्वसना तट पर स्वप्न देखती देह का


ब्रज मोहन श्रीवास्तव,राह भाटिया,शोभना चौरे, हेमंत कुमार,और अभिषेक ओझा को छठवें दिन प्रकाशित निर्मला गर्ग की कविता “ चश्मे के काँच “ बेहद पसन्द आई । गिरीश पंकज ने कविता पर कविता में अपनी टिप्पणी देते हुए कहा “ बूढ़ी आँखों पर चश्मा / केवल चश्मा नहीं होता /वह थकी उदास आँखों का एक घोषणापत्र होता है । “एम.वर्मा ने कहा “उनका क्या करें जो वक़्त के पहले ही इस अहसास से बूढ़े हो चुके हैं । “ बबली ने बहुत व्यथित हृदय से लिखा है “लोग कोशिश भी करते हैं कि अपनी जवानी बरकरार रहे लेकिन उम्र छिपाई नहीं जा सकती ।“ आशा जोगलेकर ने इस पंक्ति को रेखांकित किया “ यही खयाल बूढ़ी का प्रेम के विषय में भी है ।
            नवरात्र के सातवें दिन प्रस्तुत कर रहा हूँ सुविख्यात कथाकार एवं कवयित्री जया जादवानी की कुछ छोटी छोटी कवितायें । स्त्री के मन को प्रकट करने के लिये अधिक शब्दों की ज़रूरत नहीं है । केवल 4 या 5 पंक्तियों की यह कवितायें अपने आप में असीमित विस्तार लिये हुए हैं । इनमें छुपे अर्थ तलाशने की कोशिश करें ।  - आपका -शरद कोकास                                                                                      

नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-सातवाँ दिन


स्त्रियाँ                                                                                                   
एक
 

वे हर बार छोड़ आती हैं
अपना चेहरा
उनके बिस्तर पर
सारा दिन बिताती हैं
जिसे
ढूँढने में
रात खो आती हैं ।

दो 




जैसे हाशिये पर लिख देते हैं
बहुत फालतू शब्द और
कभी नहीं पढ़ते उन्हे
ऐसे ही वह लिखी गई और
पढ़ी नहीं गई कभी
जबकि उसी से शुरू हुई थी
पूरी एक किताब ।


तीन



वह पलटती है रोटी तवे पर
और बदल जाती है पूरी की पूरी दुनिया
खड़ी रहती है वहीं की वहीं 
स्त्री 
तमाम रोटियाँ सिंक जाने के बाद भी  ।

                                                                                       
देह स्वप्न                                                                                   

ले गया कपड़े सब मेरे
दूर.... बहुत  दूर
काल बहती नदी में
मैं निर्वसना
तट पर
स्वप्न देखती देह का ।
                                                                                                                                                  

अनंत में देह                               

एक पीले पड़ गये पत्ते पर
लिखती हूँ तुम्हारा नाम
देती हूँ उसे हरियाली
कोई दरवाज़ा खटखटाके माँगने आया है
उम्र मेरी ।

                                                                                                                                    
बचा लूंगी उसे                                                   

एकदम भभक कर बुझने से पहले
मैं बचा लूंगी उसे
हाथों की ओट से
ऐसे कैसे जायेगा प्रेम
मेरी असमाप्त कविता छोड़कर ।

खुद को                                                    

उठाती हूँ जल
अंजलि में
वरती हूँ खुद को
खुद से ।

जया जादवानी                                                                              
 

गुरुवार, सितंबर 24, 2009

हम कभी बूढ़े नहीं होंगे... ?


बुढ़ापा हर मनुष्य के लिये दुखदायी होता है । उम्र के इस दौर में पहुंचे बगैर हम कल्पना नहीं कर सकते इस उम्र के कष्टों की । इस उम्र में हर व्यक्ति दूसरों पर निर्भर हो जाता है । स्त्री तो खैर आर्थिक रूप से भी दूसरों पर निर्भर रहती है । इसलिये वह प्रार्थना करती है कि हे भगवान चलते फिरते उठा ले । लेकिन हम इन बूढ़ों का दर्द कहाँ समझते हैं । हमारे पास वक़्त ही कहाँ है इनके लिये । सेवा तो दूर कुछ देर इनके पास बैठकर हम इनकी बात तक सुनना पसंद नहीं करते ,भूल जाते हैं कि एक दिन हम भी बूढ़े होंगे । सास-बहू के धारावाहिकों से अलग बूढ़ी स्त्री का एक चित्र प्रस्तुत किया है कवयित्री निर्मला गर्ग ने अपनी इस कविता मे जिसका शीर्षक है "चश्मे के काँच " । आइये अपनी आंखों पर पड़ा चश्मा उतारकर इसे देखने का प्रयास करें ।सविता सिंह की कविता "मन का दर्पण" पर ललित शर्मा,अरविन्द मिश्रा,मिथिलेश दुबे ,आशा जोगलेकर,चन्द्रमोहन गुप्त की प्रतिक्रिया मिली आपसभीका धन्यवाद -शरद कोकास । 
नवरात्रि पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-छठवाँ दिन

                                                          चश्मे के काँच                                       
बूढ़ी औरत खो बैठी है अपना चश्मा
चौहत्तरवें बरस की उम्र में
उसकी झुर्रीदार अंगुलियाँ टटोलती हैं
कुछ न कुछ हर वक़्त
आले,तिपाई,बिस्तर
आसमान भी बाहर नहीं रहता उसकी ज़द के


चश्मे के काँच बाई-फोकल थे
नज़दीक होने का मतलब वहाँ आत्मीय होना नहीं था
बहुधा तो वह उबाऊ और ग़ैरज़िम्मेदार था
न दूर होने का मतलब दृश्यों से था


वहाँ थी यादें
वहाँ थे रिश्ते
अनुभवों के छोटे मगर गहरे तालाब थे


चश्मे का फ्रेम बना था उन्नीस सौ चवालीस में
तब फ्रेम टिकाऊ मगर कम खूबसूरत होते थे
वेरायटी का तो सवाल ही नहीं था
यही खयाल बूढ़ी का प्रेम के विषय में भी है ।
                                -निर्मला गर्ग                                                                   

बुधवार, सितंबर 23, 2009

सच का सामना कीजिये "सच के दर्पण" में

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला-समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-पाँचवा दिन

नवरात्रि के चौथे दिन प्रकाशित शुभा की कविता " मैं हूँ एक स्त्री " पर तो अच्छी खासी बौद्धिक बहस छिड़ गई है । इस बहस में भाग ले रहे हैं सुश्री निर्मला कपिला ,रंजना ,सर्वश्री ललित शर्मा,दिनेश राय द्विवेदी ,गिरीश पंकज ,विनोद कुमार पाण्डेय ,अशोक कुमार पाण्डेय ,राज भाटिया ,समीर लाल ,मिथिलेश दुबे दीपक मशाल .विनय शंकर चतुर्वेदी ,चन्द्रमोहन गुप्त और मुनीश । द्विवेदी जी ने जिस "ब्राह्मणों की दुनिया " फ्रेज़ को नवीन प्रयोग कहा है अशोक ने उसका सही विश्लेषण किया है । भाटिया जी को समझने में ज़रा मुश्किल हुई यह कविता ब्राह्मणों के खिलाफ है या पुरुषों के खिलाफ । इसे स्पष्ट किया गया कि यह उस पुरोहितवाद के खिलाफ है जो आज नव साम्राज्यवादी रूप में दक्षिणपंथ के उभार के साथ फिर सर उठा रहा है अन्यान्य रूपों में।समीर लाल जी ने इस कविता में व्यक्त आक्रोश को ज्वालामुखी की संज्ञा  दी । बहरहाल यह बहस तो सहस्त्राब्दियों से चली आ रही है । इस पर आगे भी बात होती रहेगी  । फिलहाल पाँचवे दिन प्रस्तुत है कवयित्री सविता सिंह की कविता " सच का दर्पण " । आइये इसमे अपना चेहरा देखें । आपका -शरद कोकास                                                                                

                                          सच का दर्पण                                                                         
                                                                                                                                                

बहुत सुबह जग जाती हैं मेरे शहर की औरतें
वे जगी रहती हैं नींद में भी
नींद में ही वे करती है प्यार, घृणा और संभोग
निरंतर रहती है बंधी नींद के पारदर्शी अस्तित्व से
बदन में उनके फुर्ती होती हैं
मस्तिष्क में शिथिलता
उनके हाथ मज़दूरों की तरह काम करते हैं
बनी रहती हैं फिर भी अभिजात संभ्रांत वे
नाश्ता बनाती हैं सुबह – सुबह
भेजती है मर्दों को दफ्तर
बच्चों को स्कूल
फिर बंध जाती है पालतू-सी
सुखी – दुखी अपने घरों से
दोपहर कभी उच्छृंखल नहीं लगती उन्हें
मनहूसियत भले घेर ले पूरे दिन को
हर पल की तरह वह एक पल होता है उनके लिए
गुज़र जाने वाला

शाम होती है
सड़को पर जल जाती है बतियां
इंतज़ार करती हैं मेरे शहर की औरतें
खिड़कियों से देखती बाहर
देखती शहर के शोरगुल के बीच से गुज़रते जुलूस को
जो त्यौहारों का कुतूहल पैदा करता है उनमें
लौट आते है मर्द, बच्चे
पहले दिन से ज्यादा गंभीर ज्यादा बुध्दिमान
लौट नहीं पातीं अपने भीतर से औरतें
उनके अंदर बुझा रहता है आत्मा का प्रकाश
अंधेरे रहते है लगातार उन पर सवार
अंधेरी सुरंग–सा फैला रहता है उनमें सभ्यता का भय
किसी भय में जागती होती है नींद की देवी
जिसमें तैरती रहती हैं छायाएं मृत्यु की
छाए रहतें हैं बड़े डैनों वाले पक्षी उनके मन के आकाश में
उनके एकांत का जंगल
काटता रहता है स्वयं अपने पेड़
रात-बिरात पैदा करता है खौफ़नाक आवाजें
डरी रहती है बिस्तर में भी अपने पुरुषों के संग
बेवजह ख़लल नहीं ड़ालती उनकी नींद में
रहती हैं सेवारत बरसाती प्रेम सहिष्णुता
चाहिए उन्हें वैसे भी ज्यादा शांति
बहुत कम प्रतिरोध अपने घरों में
फिर भी
अपने एकांत के शब्दरहित लोक में
एक प्रतिध्वनि – सी
मन के किसी बेचैन कोने से उठती जल की तरंग-सी
अपने चेहरे को देखा करती है
एक दूसरे के चेहरे में
बनाती रहस्यमय ढंग से
एक दूसरे को अपने सच का दर्पण ।
                                                                                                                                            

                    सविता सिंह                                                                                 




मंगलवार, सितंबर 22, 2009

मुझे एक बलात्कारी से गर्भ धारण करना है

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें-चौथा दिन  


नीलेश रघुवंशी की कविता “हंडा” के विषय में अशोक कुमार पाण्डेय कहते हैं “औरत के पूरे सामाजिक आर्थिक परिवेश में स्थान तलाशने की जद्दोज़ेहद कविता के पूरे सौष्ठव में उपस्थित है।वहीं अजय कुमार झा का कहना है “कवयित्री ने हंडे में नारी जीवन का सारा सारांश समेट कर रख दिया है । “शोभना चौरे और निर्मला कपिला इसे ग्रामीण महिला का जीवन दर्शन मानती है ।लोकेन्द्र इस हंडे में पूरा नारित्व देखते हैं । हेम पाण्डेय का कहना है “यह स्थिति के बदलाव हेतु सार्थक शुरुआत है । चन्द्र कुमार जैन का  कहना है “यह प्रस्तुति कविता में बची हुई गंध जैसी प्रतीत हो रही है । “ मुकेश कुमार तिवारी ने कहा “कविता हंडे में रचे बसे हुये संसार में स्त्री देहमुक्त हो अपने वुजूद को तलाशती विवश है।“ ललित शर्मा ने वर्तमान परिप्रेक्ष्य मे छत्तीसगढ़ी में हंडे की की नियति बताते हुए कहा है कि ” शरद भाई,अब जमाना बदल गे भाई पहिली जैसे नई ये कड़हा,रहे के कनवा रहय सबे बेचा जाये। “ अमलेन्दु अस्थाना,योगेश स्वप्न और राज भाटिया जी को जहाँ यह कविता पसन्द आई है वहीं रवि रतलामी जी ने पहली बार मेरे इस ब्लॉग पर कदम रखकर मेरे ब्लॉग बुखार को नियंत्रित करने के लिये मुझे आवश्यक तकनीकी सलाह दी है । मै उनके प्रति आभारी हूँ ।
            आज नवरात्र के चौथे दिन प्रस्तुत है कवयित्री शुभा की यह कविता जो मैने अनामिका द्वारा सम्पादित संकलन “ कहती हैं औरतें “ से ली है । साभार –  शरद कोकास                                                                                               


                                                              मै हूँ एक स्त्री                                              
मै हूँ एक स्त्री                                                                                                  
कौन कह सकता है मैं शर-विध्या सीखना चाहती  हूँ                                                  
मैं उस धूर्त और दयनीय ब्राह्मण दोणाचार्य की मूर्ति भी नहीं बना सकती                           
क्योंकि वह पर पुरुष है                                                                                       
मैं एकलव्य नहीं बन सकती                                                                                 
मेरा अंगूठा है मेरे पति का                                                                                  
                                                                                                                                               
मैं शम्बूक भी नहीं बन सकती                                                                              
क्योंकि मुझे एक बलात्कारी से गर्भ धारण करना है                                                   
एकलव्य और शम्बूक मैं तुम्हारे एकांत से                                                                
ईर्ष्या करती हूँ                                                                                               
क्योंकि मैं एक स्त्री हूँ और ब्राह्मणों की दुनिया                                                         
भंग करना चाहती हूँ                                                                                       
                                                                                                                                             

                      शुभा                                                                                     

सोमवार, सितंबर 21, 2009

मैने तो ऎसी नारियाँ भी देखी है कि मर्द को बेच खाये

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें  -तीसरा दिन           

कात्यायनी की कविता पर द्विवेदी जी ने कहा “यहाँ स्त्री अभिव्यक्त नहीं हो रही है। अपितु वह पुरुष अभिव्यक्त हो रहा है जो अपने लिए एक खास औरत चाहता है। उसे स्त्री के जीवन से कोई मतलब नहीं है। वह अपने लिए स्त्री को उपकरण समझता है । शोभना चौरे जी ने कहा यह पुरुष के दोगलेपन को प्रकट करती है ।गिरीश पंकज जी कात्यायनी को जुझारू और सामाजिक परिवर्तन के लिये प्रतिबद्ध मानते हैं लेकिन इसके विपरीत अशोक कुमार पाण्डेय जी को अनामिका की कविता और इस कविता में मूल अंतर नज़र आया कि जहां अनामिका ने कविता रची है कात्यायनी ने गढी है। यह स्वाभाविक गुस्से या समर्थन की उपज नही लगती। राज भाटिया जी तो बेहद नाराज़ हैं वे कहते हैं पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ, कदापि नही, मैं तो ऎसा हरगिज नही सोचता, कविता पसंद आई, लेकिन सभी नारियां इतनी भी बेचारी नही कि पुरुषों को शर्मिंदा होना पडे, मैने तो ऎसी नारियाँ भी देखी है कि मर्द को बेच खाये लेकिन उनका मानना है सिर्फ़ नारी होने से कोई महान या कमजोर या दया का पात्र नही होता , नारी महान वो ही है जो महान काम करती है, वही पुजी जाती है, ओर मर्द भी बही महान है जो अच्छा काम करे । अपूर्व ने कहा “कात्यायनी की कविताएं वैसे भी मुझे ढ़ोंगी और हिपोक्रिट समाज के गाल पर तमाचा जैसी लगती हैं..वह समाज जिसका हिस्सा मैं भी हूँ..।“ डॉ. दराल का मानना है कविता में आक्रोश झलकता है, लेकिन आज की नारी इतनी दुर्बल नहीं है.। पारुल तो पढ़ने के बाद मन में उपजी खीज को चुपचाप पी लेना चाह्ती हैं उसे टिप्पणी कर के कम नही करना चाह्ती । बबली ने शिक्षा पर ज़ोर देते हुए कहा कि आजकल की औरते मर्दों से एक कदम आगे है! चाहे कोई भी काम हो औरते पीछे नहीं हटती और पूरे लगन के साथ उस काम को अंजाम देती हैं! एम.ए.शर्मा सेहर ने कहा ये कविता औरत को झकझोरतीहुयी कहती है - उठो पहचानो अपने आप को.... अपनी शक्ति को !
तो आज तीसरे दिन प्रस्तुत है युवा कवयित्री नीलेश रघुवंशी की यह चर्चित कविता “ हंडा "                                
                                                                    हंडा                                                                                          

एक पुराना और सुन्दर हंडा
भरा रहता जिसमे अनाज
कभी भरा जाता पानी 
भरे थे इससे पहले सपने

वह हंडा
एक युवती लाई अपने साथ दहेज में
देखती रही होगी रास्ते भर
उसमें घर का दरवाज़ा
बचपन उसमें अटाटूट भरा था
भरे थे तारों से डूबे हुए दिन

नहीं रही युवती 
नहीं रहे तारों से भरे दिन 
बच नही सके उमंग से भरे सपने
हंडा है आज भी
जीवित है उसमें
ससुराल और मायके का जीवन 
बची है उसमें अभी
जीने की गन्ध
बची है स्त्री की पुकार
दर्ज है उसमें 
किस तरह सहेजती रही वह घर

टूटे न कोई 
बिखरे न कोई 
बचे रह सकें मासूम सपने
इसी उधेड़बुन में 
सारे घर में लुढ़कता फिरता है हंडा      

-नीलेश रघुवंशी

रविवार, सितंबर 20, 2009

पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें 

नवरात्रि के प्रथम दिन प्रस्तुत अनामिका जी की कविता "स्त्रियाँ " दिनेश राय द्विवेदी जी को बहुत पसन्द आई उन्होने कहा  "सदियों से जिस तरह नारी को समाज में दमन का सामना करना पड़ा है और करना पड़ रहा है उस से अधिकांश नारियों में का इंसान होने का अहसास ही गुम हो गया है। यह अहसास पैदा हो जाए बहुत है। बाकी काम तो नारियाँ खुद निपटा लेंगी।" अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा "यह कविता इतनी प्रभावशाली है कि कई बार पढी गयी होने के बावजूद पढ़वा ले जाती है । "निर्मला कपिला ने कहा " बहुत सुन्दर रचना है नारी के सच का सच "। अलबेला खत्री ने इस प्रस्तुति पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा "शरद जी आप नारी तो नहीं हो..परन्तु नारी के स्वाभिमान व सम्मान ही नहीं उसके अन्तर की वेदना व संवेदना से भी भलीभांति परिचित हो और नारी के मार्ग में आने वाले कंटकों को सदैव दूर करने का प्रयास करते हो । " मीनू खरे ने कहा "अनामिका जी की अभिव्यक्ति अद्भुत लगी.। " डॉ. टी.एस. दराल ने कहा " नारी के कोमल अहसास का बहुत सुन्दर चित्रण. है । "विनोद कुमार पाण्डेय ,समयचक्र ,हेमंत कुमार,राज भाटिया तथा मिथिलेश दुबे को यह रचना पसन्द आई ।अनामिका जी की पंक्तियाँ " बेकार बेचैन और आवारा महिलाओं का ही शगल है यह  कहानियाँ और कविताएँ " पर टिप्पणी करते हुए नन्ही कोपल ने कहा " आजकल स्त्रियाँ आजकल कहानी कविताये ही नही बल्कि बहुत सुंदर सुंदर विचारयुक्त ब्लोग भी लिख रही है । इसी तरह आगे भी लिखती रहेगी ।"भूतनाथ जी ने कवि राजेश जोशी के "मैं हिन्दू होने पर शर्मिन्दा हूँ " की तर्ज़ पर कहा कि "  पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ ।"गिरीश पंकज जी ने कहा " अनामिका जी की कविता समकालीन पुरुष प्रवृत्तियों का पोस्टमार्टम करती है ,आशा है ऐसी ही श्रेष्ठ रचनायें पढ़ने को मिलेंगी ।
                              इस कड़ी मे आज दूसरे दिन प्रस्तुत है "सात भाईयों के बीच " कविता संग्रह के लिये प्रसिद्ध एक्टिविस्ट कवयित्री कात्यायनी की यह कविता ।                                                                          


नहीं हो सकता तेरा भला  



बेवकूफ जाहिल औरत
कैसे कोई करेगा तेरा भला
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो
इन्दिरा गान्धी इस मुल्क की रानी थी
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता )
रह गई तू निपट गंवार की गंवार ।
पी.टी.उषा को तो जानती तक नहीं
माग्ररेट अल्वा एक अजूबा है
तुम्हारे लिये ।
“क ख ग घ” आता नहीं
’मानुषी ‘ कैसे पढ़ेगी भला –
कैसे होगा तुम्हारा भला -
मैं तो परेशान हो उठता हूँ !
आजिज आ गया हूँ तुमसे
क्या करूँ मै तुम्हारा ?
हे ईश्वर !
मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दी
जिसका कुछ तो भला किया जा सकता
यह औरत तो बस भात रान्ध सकती है
और बच्चे जन सकती है
इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता है ?

                        कात्यायनी                                                                                              


( यह आवाज़ पुरुष के उस मन से आ रही है जो हमेशा अप्रकट रहता है इसी यथार्थ को बेनकाब किया है कवयित्री कात्यायनी ने - क्या सोचते हैं आप - शरद कोकास )