सुप्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण से लवली गोस्वामी की मुलाकात
19 सितम्बर 1927 को जन्मे हिंदी के सुप्रसिद्ध कवि कुँवर नारायण नई कविता आन्दोलन के अग्रणी कवियों में से रहे हैं . कविता के अलावा कहानी ,लेख ,समीक्षाएँ साथ ही सिनेमा व् रंगमंच पर भी उन्होंने काफी लिखा है .उन्होंने कवासी और बोर्खेस की कविताओं के अनुवाद भी किये हैं .
कुँवर नारायण जी इन दिनों काफी बीमार हैं उन्हें ब्रेन हैमरेज हुआ है और वे कोमा में हैं . लगभग दो माह पहले हमारी मित्र और हिंदी की युवा कवि लवली गोस्वामी उनसे मिलने उनके निवास पर गईं थीं . प्रस्तुत है उनकी कलम से इस मुलाकात का विवरण, जो संस्मरण भी है ,साक्षात्कार भी और अपने प्रिय कवि से मुलाकात के बहाने अपने साहित्यिक पुरखों के ऋण से उऋण होने का एक प्रयास भी - शरद कोकास
“ मैं दिग्भ्रमित नहीं, एक जानकार की उदासीनता हूँ.” (कुँवर नारायण)
मैं उनके घर के सामने से
गुजरने वाली गली में खड़ी थी. मुझे घर नंबर तो सही दिख रहा था, लेकिन मैंने “बेल”
गलत वाली दबाई। वहां मौजूद दो
स्विचों में से मुझे निचली मंजिल की घंटी वाली स्विच दबानी थी। अक्सर ऐसा होता है,
पता नहीं किन विचारों में घिरी रहती हूँ कि उजबक और हास्यास्पद गलतियां दोहराती रहती हूँ। जैसे जिस दरवाजे पर
साफ़ "पुश " लिखा हो उसे अपनी तरफ खींचकर खुद को और लोगों को परेशां करना फिर माफ़ी मांगना और
खुद को कोसना।
उपरी मंजिल से एक महिला की
आकृति मुझे सवालिया निगाहों से देखती पूछती है – “..यस ?”
"जी, मुझे कुँवर नारायण जी से मिलना है"
मैं जवाब देती हूँ.
“ग्राउंड फ्लोर ”वह
नीचे की तरफ इशारा करती है. शायद तब तक उनके पुत्र अपूर्व नारायण जी जिन्हे मैंने
फोन करके अपने आने की सूचना दी थी और कुंवर जी से
मिलने का वक़्त लिया था, मेरी आवाज सुन लेते हैं। बीसेक साल का एक युवक कुछ क्षणों
में मेरे सामने प्रकट होता है और विनम्रता पूर्वक कहता है - "आइए... ". मैं
उसके पीछे चलती हूँ। वह एक दरवाजा पार करके मुझे एक छोटे कमरे तक ले जाता है. वहां मुझे अपूर्व खड़े मिलते हैं. मैं
उन्हें नमस्ते कहती हूँ। खिड़की के पास कोने में पड़े एक सोफे एक सौम्य महिला आकृति
विराजमान है. ये भारती जी होंगी ऐसा मैंने अंदाजा लगाया। उन्हें नमस्ते कहा.
थोड़ी देर बाद कुँवर जी को सहारा देकर बैठकी में लाया जाता है। मुझे बताया गया था वे एक
कान से सुनने में पूरी तरह असमर्थ है और अभी– अभी डाक्टर
से चेकअप करा कर लौटे हैं। दो दिनों से वे एक कान से सुनने में असमर्थ हैं , देख तो वे
बहुत दिनों से नहीं पाते। उन्हें मेरे आने
के बारे में पहले से मालूम है। वे मेरी
हथेलियाँ थामने के लिए दोनों हाथ आगे करते हैं, मेरा नाम लेकर बुलाते है, मैं उनकी कुर्सी के पास बैठती हूँ, भारती जी मुझे एक
छोटा स्टूल देती हैं। मैं अन्दर –
अन्दर भींग रही थी, करुणा, आदर और प्रेम से, या इन सब के मिले –जुले से किसी अन्य भाव
से।
वे मेरा नाम भर
जानते हैं। थोडा रुककर परिचय
पूछते हैं,मैं कुछ बताती हूँ अपने बारे में। वे सुन नहीं पा रहे थे या, शायद मैं बोल नहीं
पा रही थी। उनसे बातें करने
के लिए मुझे बार – बार भारती जी की मदद
लेनी पड़ती है। मुझे स्वीडिश कवि
टॉमस ट्रांस्त्रोमर से जुडी एक घटना याद आती है। जीवन के अंतिम सालों में उन्हें पक्षाघात की
समस्या हो गई थी जिससे उनके शरीर के दाहिने भाग ने काम करना बंद कर दिया था। उस वक़्त टॉमस ठीक से बोल नहीं पाते थे किसी से
संवाद करने के लिए उन्हें पत्नी मोनिका की सहायता लेनी पड़ती थी। जीवन के कई साल मोनिका ही
उनकी आवाज बनी रहीं। वे संगीत के
बहुत अच्छे जानकार थे। उन्होंने ऐसी
धुनें बनायीं जिन्हें एक हाथ से बजाया जा सके। वे अक्सर अपने भाव संप्रेषित करने
के लिए संगीत का सहारा लेते थे। आयरिस नोबल
विजेता कवि सेमस हेनी ने एक बार टॉमस पर टिप्पणी करते हुए कहा था, जब वे बोल पाने में असमर्थ थे, उन्होंने अपनी बात मुझ और मोनिका तक प्रेषित करने के लिए कई बार
संगीत का सहारा लिया। सच ही लगता है, जब आपका भावबोध इतना परिष्कृत हो की शब्दों की ज़रूरत न पड़े
तो यह बात बहुत अजीब नही लगती। लेकिन मुझे संगीत बुनना नहीं आता है, और बोलना या
कम से कम अपनी भावना संप्रेषित करना मेरे लिए इसलिए भी ज़रूरी है कि कुंवर जी मुझसे
पहली बार मिल रहे हैं. मैं जानती हूँ कि संगीत न सही दुनिया की सबसे आदिम भाषा अब
भी उतनी ही सटीक है, स्पर्श की भाषा। मैं उनकी उंगलियों के पोर और नाख़ून हलके – हलके से स्पर्श
करती हूँ। उनके पास बैठी
कुछ बोलने की, अपने कुछ शब्द उन तक पहुँचाने की कोशिश करती हूँ, जिसमे भारती जी मेरी हर
संभव मदद करती हैं। भारती जी को इन
कोशिशों में मुब्तिला देखते - सुनते मेरे मन में कुँवर जी की पंक्तियाँ कौंधती
हैं.
“ स्त्री - पुरुष के संबंधों का अर्थ
साधना में विघ्न डालती अप्सरायें ही नहीं
एक ऋषि की सौम्य गृहस्थी भी हो सकती है.”
साधना में विघ्न डालती अप्सरायें ही नहीं
एक ऋषि की सौम्य गृहस्थी भी हो सकती है.”
ऐसा ही मुझे
ट्रांस्त्रोमर के साथ उनकी पत्नी मोनिका को वीडियो में देखकर
लगा था.
“ सादगी अभाव
नहीं
एक संस्कृति की
परिभाषा है... “
एक बार मैंने लिखा था – “ भव्यता निस्तब्धता से भर देती है. भव्यता संक्रमित भी करती है.ऊँचे पहाड़ उंचाई के अकेलेपन से आक्रांत करके आपको स्थिर कर देते हैं. श्मशान अपनी नीरवता, अपनी मनहूसियत का कुछ हिस्सा आपको निराशा के रूप में सौंप देता है.चंचल नदियाँ आपके अंतर में तरल कुछ छेड़ जाती हैं. भव्य ईमारतें आप में संभ्रात और पुरातन स्मृतियाँ जीवित कर देती हैं असीम समुद्र आपको गहरे चिंतन में धकेल देता है और आकाश का विस्तार आप में शून्य भर देता है. यह सब भव्यताएँ हैं , संक्रमित करने वाली भव्यताएं.आप में खुद को भरने वाली भव्यताएं. ”
इस वक्त जिस इन्सान के सामने मैं बैठी हूँ वह भी मेरे लिए ऐसी ही एक सकारात्मक भव्यता है. मैं भव्यताओं के समक्ष अक्सर शब्दहीन हो जाती हूँ. मेरा “कम बोलना” “न बोलने” में बदल जाता है.
**
“तुम्हे मेरी
कविता में क्या पसंद है ?”
वे मुझसे सवाल
करते हैं, जब मैं उन्हें बताती हूँ कि मैंने आपको लगभग पूरा पढ़ा है। लगभग इसलिए कि यह
पंक्तियाँ लिखे जाने तक उनका संग्रह “चक्रव्यूह” और सिनेमा पर लिखी उनकी नयी किताब
“लेखक का सिनेमा ” मेरे पास नहीं हैं। मैंने सिर्फ यही दो किताबें नहीं पढ़ीं हैं। मैंने कहा मुझे आपकी “सरलता” पसंद है। वे सुन न सके। भारती जी ने मेरा जवाब
दोहराया। फिर बातें होती
रही. दर्शन, साहित्य, इतिहास और कला के समकालीन और ऐतिहासिक सन्दर्भ, व्यक्ति, स्थान
और किताबें हमारे बीच आते – जाते रहे। मैं उन्हें देखती उनकी कविता की स्मृतियों में डूब रही थी.
मैं उनके हाथ देखती हूँ.
“अब मेरे हाथों
को छोड़ दो
गहरे पानी में
वे डूबेंगे नहीं
उनमे समुद्र भर
आएगा ...”
मैं उस कवि से
बात कर रही थी, जो कवि की मासूमियत से नहीं, एक द्रष्टा के दर्प से, दर्शन की वस्तुगतता
से मनुष्यता की कोमलता की तरफ लौटता
है. साथ ही साथ मैं उनकी कविता
से भी बात कर रही थी। जब एक कवि की वाणी में द्रष्टा का दर्प मौजूद हो तो यह समझाना चाहिए कि इस
दर्प की जड़ें जीवनानुभाव की अथाह गहराइयों में सुदूर कहीं गड़ी होंगी। कविता, जलीय पौधे के
फूल की तरह होती है जो सतह तक जीवित रहने के सामर्थ्य और जिद का कलात्मक सुन्दर
रूप बनकर पहुँचती है. फूल को सतह तक पहुचने के लिए प्रकाश की अदम्य चाह होनी चाहिए। इसके साथ ही उसकी
रीढ़ में, गहराइयों में व्याप्त अँधेरे और जल के अथाह दबाव से लड़ने का सामर्थ्य भी
होना चाहिए। कविता वह जलीय फूल है, जो दुखों,
प्रश्नों और विकलता के उन बीजों से पैदा होती है जो हमारे मन में, अनुभवों में,
गहरे कहीं दफ्न होते जाते हैं. असमंजस और कई तरह के दूसरे मानसिक दबावों से जूझती कवि के अथाह अंधकार से निकलकर कविता वैसे ही काग़ज तक पहुँचती है, जैसे कोई फूल पानी की सतह से उपर तक। अधिकतर पढ़ने वाले सिर्फ उसका दृश्य रूप या “साकार” होना
पढ़ पाते हैं, जो पीडाएं कविता की जननी होती है उसे कितने लोग समझ पाते हैं ?
“ किसी के सामने
टूटने से बेहतर है
अपने अन्दर टूटना
..”
बीज का अस्तित्व भी
नवांकुर पौधे के दो-पहले
पत्तों और जड़ोंका आकर लेने में “टूटता” ही है।
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कुंवर नारायण, जो
इंगित करते हैं कि “वहां विभाजित स्वार्थों के जाल बिछे दिखते/ जहाँ अर्थपूर्ण
संधियों को होना चाहिए”, संतुलन के कवि है, सरलता के कवि है, दार्शनिकता के कवि
है, तीनों वाक्यों को मिलाकर कहा जाए तो एक संतुलित दार्शनिक
- सरलता के कवि है। अपनी ही कविता
में वे स्पष्ट कहते हैं “अति को जानो/ वहां ठहरो मत/ लौटो/ अपने अन्दर उसी संतुलन
बिंदु पर/ जहाँ संभव है समन्वय..” ये समन्वय, ये
संतुलन ही, बार –बार उनकी दर्पिली ध्वनि का मूलभाव
बनकर उनके कवितार्थों को आलोकित
करता है। वे कठिन कटु
सत्यों को कहते हुए भी अतिशय तिक्त नहीं होते. क्योंकि वे तीक्ष्णता को जानकर उसे
अस्वीकार करके लौट चुके हैं.
“मैं उन चेष्टाओं
की
शेष पूंजी हूँ
जिसे तुम नहीं
समय प्राप्त करेगा “
कोई भी कविता
सिर्फ कवि की अपनी चेतना की उपज नहीं होती। कई प्रकार से वह पूर्वज कवियों का ऋणी होता है। कोई साधारण मनुष्य भले ही कविता की भूमिका को अपने जीवन
में नकार दे लेकिन कोई भी पढ़ा – लिखा मनुष्य इस बात से इंकार नहीं कर सकता कि जो शब्द, वाक्य- रचना,कहावत, भावाभिव्यक्ति के
औजार अथवा बिम्ब वह अपनी सामान्य बातचीत में इस्तेमाल कर रहा है वे कहीं न कहीं साहित्य
की देन हैं। इस तरह जो भी
कविता नयी लिखी जाती है उसमे गुजर चुके या गुजर रहे कई कवियों की ध्वनि होती है. यह
ध्वनि सिर्फ तब ही होगी जब आप कविता की परम्परा का अध्ययन करेंगे, ऐसा नहीं है। जानते न जानते, चाहते न
चाहते हम अपनी भाषा में कविता लेकर आते ही हैं, भले ही वह लोकप्रिय सिनेमा के असर
से आये या सदियों से चली आ रही मिथकीय अथवा लोक – साहित्य की वाचिक परम्परा से. इस समय में लिखी जा रही हर कविता अपनी
पूर्वज कविताओं की संतान है. अपने पितरों का आभार प्रकट करना उसका विनम्र कर्तव्य
है. वैसे तो यह पुनीत कर्तव्य समाज का
भी है कि वह भाषा को बनाने के लिए साहित्यकारों का आभार प्रकट करे।
जब कोई कवि भाषा में कविता रच रहा होता है, ठीक
उसी समय कविता अपने रचे जाने के समानांतर उस भाषा को भी रच रही होती है, और
तो और कविता “कवि” को भी रच रही होती है.
**
“ मैं अपनी अनास्था
में अधिक सहिष्णु हूँ
अपनी नास्तिकता
में अधिक धार्मिक
अपने अकेलेपन में
अधिक मुक्त
अपनी उदासी में
अधिक उदार “
(आत्मजयी)
कुँवर नारायण जी
के तीनों प्रबंध काव्यों में “सरलता” एक अंतरिम लय की तरह बहती
है, कुछ – कुछ विवाल्दी के संगीत की तरह। जिसमे नरम ढलान से नीचे की ओर बहते पानी की धार की अटूट लय होती है. साथ ही साथ एक विनम्र वेग भी होता है। इस सौम्य कलकल में उन बूंदों का तादात्म्य भी मौजूद है जो ढलान
की समरूपता टूटने से उछलती शेष जलराशि से अलग होती सी लगाती है लेकिन वेग इतना
प्रचंड नहीं होता कि कोई भी बूंद छिटक कर उतनी दूर जा गिरे कि खुद को अनाथ महसूसे। विवाल्दी का संगीत भी
मुझे ऐसा ही लगता है. सौम्य, लयात्मक, भव्य और एकसार। कुँवर नारायण जी का व्यक्तिव भी ऐसा ही है लयात्मक और
सौम्य लेकिन अपनी विनम्रता में भव्य।
मैं उन्हें इस
अवस्था में अधिक परेशां नहीं करना चाहती, इसलिए लौटती हूँ,इस निश्चय के साथ कि जो अब लौटी तो कृतज्ञतर लौटूंगी ।
-
लवली गोस्वामी
( लेख में जो
कविता पंक्तियाँ उपयोग की गयी हैं. कुँवर नारायण की कविताओं से ली गयी हैं. )
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (24-07-2017) को "क्यों माना जाए तीन तलाक" (चर्चा अंक 2676) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
धन्यवाद रूपचंद जी
हटाएंबहुत बहुत धन्यवाद शास्त्री जी ,आप हमेशा अपने कर्तव्य का निर्वाह करते हैं
हटाएंलवली जी के मुलाक़ात का विवरण पढ़कर अच्छा लगा कुँवर नारायण जी को प्रणाम और स्वास्थ्य लाभ की कामना करता हूँ
जवाब देंहटाएंधन्यवाद संजय
हटाएंबढ़िया मुलाक़ात का विवरण - अच्छा लगा पढ़कर - शीघ्र स्वस्थ हो
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत धन्यवाद समीर भाई ..
हटाएंबहुत रोचक विवरण...आदरणीय कुँवर नारायण जी के शीघ्र स्वास्थ लाभ की प्रभु से कामना...
जवाब देंहटाएंVery nice narrative, honest and intimate, full of authenticity and happiness.
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक
जवाब देंहटाएंThanks for sharing valuable information ! Gifts Online
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