रविवार, मई 27, 2012

1988 की कवितायें

1988 में कवितायें कम लिखीं ।  तीन प्रेम कवितायें जो 1987 में लिखी थीं उन्हें फाइनल किया और उसके अलावा " नीन्द न आने की स्थिति में लिखी कुछ कवितायें " चलिये पहले यह तीन प्रेम कवितायें .. " झील से प्यार करते हुए "

झील से प्यार करते हुए – एक

झील की ज़ुबान ऊग आई है
झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की
झील के मन में है ढेर सारी नफरत
उन कंकरों के प्रति
जो हलचल पैदा करते हैं
उसकी ज़ाती ज़िन्दगी में
झील की आँखें होती तो देखती शायद
मेरे हाथों में कलम है कंकर नहीं
           
झील के कान ऊग आये हैं
बातें सुनकर
पास से गुजरने वाले
आदमकद जानवरों की
मेरे और झील के बीच उपजे
नाजायज प्रेम से
वे ईर्ष्या करते होंगे

वे चाहते होंगे
कोई इल्ज़ाम मढना
झील के निर्मल जल पर
झील की सतह पर जमी है
खामोशी की काई
झील नहीं जानती
मै उसमें झाँक कर
अपना चेहरा देखना चाहता हूँ

बादलों के कहकहे
मेरे भीतर जन्म दे रहे हैं
एक नमकीन झील को
आश्चर्य नहीं यदि मैं एक दिन
          नमक के बड़े से पहाड़ में तब्दील हो जाऊँ ।  

9 टिप्‍पणियां:

  1. जब सूर्य सोखता होगा झील को, बहुत सालता होगा उसे..वह निश्चय ही उसे नमक का पहाड़ बना देगा।

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  2. झील की ज़ुबान ऊग आई है
    झील ने मनाही दी है अपने पास बैठने की
    झील के मन में है ढेर सारी नफरत
    उन कंकरों के प्रति
    जो हलचल पैदा करते हैं
    उसकी ज़ाती ज़िन्दगी में
    झील की आँखें होती तो देखती शायद
    मेरे हाथों में कलम है कंकर नहीं..... प्रबल है झील का भय , अपने देखने पर भी विश्वास नहीं

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  3. एक बेहद गहन और सशक्त अभिव्यक्ति

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  4. आपकी इस श्रृंखला की तीनो कविताएँ मुझे बेहद पसंद हैं..मैने FB पर एक बार शेयर भी किया था.

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    1. धन्यवाद रश्मि जी ... आप ने इन कविताओं के मर्म को जाना था ,

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  5. झील की आँखें होती तो देखती शायद
    मेरे हाथों में कलम है कंकर नहीं
    या शायद झील को इस बात का एहसास हो गया होगा तभी तो इतनी गहराई में उतरने दिया

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  6. बहुत सुन्दर है ये कविताओं की श्रृंखला ...कितना कुछ बयां करती है ..एक चलचित्र की तरह ..मानवीय मनोस्तिथियों का बेहद बारीकी से खाका खींचती हुवी...

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  7. kankar bhi or kalam dono hi usaki jati jindagi me halchal to machati hi hai ....ascharya nahi ki vo ek din namak ke pahad me tabdeel ho jaye ........behatareen soch .........

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