1984 की यह एक और कविता क्या आक्रोश झलकता था उन दिनो.... हाहाहा ..
बची हुई खाल
कल उन्होंने दी थी हमें कुल्हाड़ी
जो उन्होंने छीनी थी हमारे बाप से
जिसे हम अपने पैरों पर मार सकें
और रोटी की तलाश में
टेक दें अपने घुटने
उनकी देहरी पर
रोटी के टुकड़े को फेंकने की तरह
उन्होंने उछाला था आदर्श वाद
रोटी का एक टुकड़ा भी मिले तो
आधा खा कर संतोष करो
और बढ़ते रहो
आज उन्होंने
बिछा लिये हैं कंटीले तार
अपनी देहरी पर
ताकि ज़ख्मी हो सकें
हमारे घुटने
हमारे जैसे
याचकों के लिये
खुला है अवश्य
सामने का द्वार
पिछला रास्ता तो
संसद भवन को जाता है
कंटीली बाड़ के भीतर
वे मुस्काते है
हम कभी हाथ जोड़ते हैं
कभी हम हाथ फैलाते हैं
लेकिन एक दिन आयेगा
जब हमारी दसों उंगलियाँ
आपस में नहीं जुड़ेंगी
वे उस ओर मुड़ेंगी
जहाँ होगी एक मोटी सी गरदन
बाहर निकल आयेगी वह जीभ
जो बात बात पर
आश्वासन लुटाती है
तोड़ देंगे हम
अपने ज़ख्मी पैरों से
वह कँटीली बाड़
और घुस जायेंगे
उन हवेलियों में
जहाँ सजी होगी
चांदी के मर्तबानों में
हमारे खून पसीने से
पैदा की हुई रोटियाँ
छीन लेंगे हम उन्हें और
बाँट लेंगे
अपने सभी भाईयों के बीच
हम बता देंगे
माँस और हड्डियाँ
नुच जाने के बाद भी
बची हुई खाल
अपने बीच से
हमेशा के लिये
विदा कर सकती है
कसाईयों को ।
ओजमयी और सोचमयी साहित्यिक यात्रा के लिये अभिनन्दन।
जवाब देंहटाएंएक आग जिसे वक्त बेरहमी से बुझा देता है।
जवाब देंहटाएंnamaskaar !
जवाब देंहटाएंjai ho ! sharad jee .
saadr
पढ़कर...उतना ही आक्रोश भर आया अंदर...
जवाब देंहटाएंसच तो अपनी जगह है...अनदेखा करना जीने की शर्त बन जाती है...
बहुत सारगर्भित और प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति..
जवाब देंहटाएंइस आग को वक़्त नही बुझा सकता ...... इस आग की चिनगियाँ ज़िन्दा रहती हैं विचार की तरह, कविता में, और धीरे धीरे फैलती है.
जवाब देंहटाएंआज भी उतनी ही सार्थक जितनी उस वक्त कही गयी वो ही आक्रोश आज भी है जन जन मे …………एक बेहद सशक्त अभिव्यक्ति।
जवाब देंहटाएंयुवा मन का आक्रोश प्रदर्शित करती सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंwaah
जवाब देंहटाएंek bebasi ke baad ek rakt garma dene wala chitran bahut khoobsurat andaz me kiya hai.
aabhar.
हम बता देंगे
जवाब देंहटाएंमाँस और हड्डियाँ
नुच जाने के बाद भी
बची हुई खाल
अपने बीच से
हमेशा के लिये
विदा कर सकती है
कसाईयों को ।......VIJAYADASHMI KI BAHUT BAHUT SHUBHAKAAMNAAYEN....PRATEEKAATMAK RAAVAN TO HAR SAAL JALTA HAI...BAS KASSAIYON KO VIDA KARNE KI JAROORAT HAI..BEHTAREEN RACHANAA.....
कुछ तो कानून से डरो, अपनी दस उंगलियां नज़दीक कर लो :)
जवाब देंहटाएंआक्रोश भी तो आवश्यक है ..
जवाब देंहटाएंआक्रोश पर आपका हंसना...
जवाब देंहटाएंशायद अब यह बचकानापन लग रहा है...
एक आग जिसे वक़्त ने बेरहमी से बुझा तो नहीं दिया है.. :-)
आक्रोश के साथ ही आत्मविश्वास भी है कविता में!
जवाब देंहटाएंdard aur sachchayee se bhara hua aakrosh.......bemisaal.
जवाब देंहटाएंसच !
जवाब देंहटाएंआज उन्होंने
जवाब देंहटाएंबिछा लिये हैं कंटीले तार
अपनी देहरी पर
ताकि ज़ख्मी हो सकें
हमारे घुटने
हमारे जैसे
याचकों के लिये
खुला है अवश्य
सामने का द्वार
पिछला रास्ता तो
संसद भवन को जाता है
....प्रभावपूर्ण रचना