2 दिसम्बर 1984 की रात भोपाल में ज़हरीली गैस कांड हुआ था और उसके बाद 1985 में पूरे साल इसकी चर्चा रही । बहुत सारे लोगों ने लिखा , कवियों ने कवितायें , लेख , अपना विरोध किसी न किसी तरह दर्ज़ करते रहे । मैं उन दिनों लगभग 2 माह भोपाल में ही था , फिर लौट आया , नौकरी की मजबूरी थी । उस साल जब बसंत ऋतु का आगमन हुआ तो मुझे और कुछ नहीं दिखाई दिया , सिवाय उन चेहरों के जो ज़हरीली गैस का शिकार हुए थे । ज़ाहिर है ..1985 की बसंत की कविता को कुछ इसी तरह होना था ... ।
बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
जहाँ पेड़ देखते देखते
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गये
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गये
अंकुरित होने से पहले
और जहाँ
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिये भी
जाओ उस ओर
तुम देखोगे और सोचोगे
पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता
ऊगते हुए
नन्हे नन्हे पौधों की
कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह
खिलखिलाते हुए
आश्चर्य मत करना
देखकर वहाँ
निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
-शरद
कोकास