ममांग दाई न केवल पूर्वोत्तर बल्कि समकीन भारतीय अंग्रेजी लेखन की एक प्रतिनिधि हस्ताक्षर है। वह पत्रकारिता ,आकाशवाणी और दूरदर्शन ईटानगर से जुड़ी रही हैं । उन्होंने कुछ समय तक भारतीय प्रशासनिक सेवा में नौकरी भी की , बाद में छोड़ दी । अब स्वतंत्र लेखन । उन्हें `अरूणाचल प्रदेश : द हिडेन लैण्ड´ पुस्तक पर पहला `वेरियर एलविन अवार्ड ` मिल चुका है और इसी वर्ष साहित्य सेवा के लिए वे पद्मश्री सम्मान से नवाजी गई हैं। प्रस्तुत हैं ममांग दाई की तीन कवितायें जो उनके के संग्रह `रिवर पोएम्स´ से साभार ली गई हैं :
०१- बारिश
बारिश के अपने नियम हैं
अपने कायदे,
जब दिन होता है खाली - उचाट
तब पहाड़ की भृकुटि पर उदित होता है
स्मृति का अंधड़।
हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे।
०२- सन्नाटा
कभी - कभी मैं झुका लेती हूँ अपना शीश
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं ढँक लेती हूँ अपना चेहरा
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं मुस्कुराती हूँ
और तब भी
लेकिन तुम्हें नहीं आती है यह कला।
०३-वन पाखी
मैंने सोचा कि प्रेम किया तुमने मुझसे
कितना दुखद है यह
कि इस वासंती आकाश में
सब कुछ है धुंध और भाप।
आखिर क्यों रोए जा रहे हैं वन पाखी?
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( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )
आदरणीय शरद जी
जवाब देंहटाएंनमस्कार !
कभी - कभी मैं झुका लेती हूँ अपना शीश
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं ढँक लेती हूँ अपना चेहरा
और विलाप करती हूँ
सुन्दर कविता का बहुत सही अनुवाद डॉ. सिद्धेश्वर सिंहं द्वारा किया गया है!
बहुत ही सुन्दर
..........दिल को छू लेने वाली प्रस्तुती
तीनो कवितायें अच्छी लगीं. कवियत्री, सिद्धेश्वर जी एवं शरद जी आपको बधाई............
जवाब देंहटाएंसन्नाटा कविता अंदर तक सन्नाटा भर देती है। पहली कविता में भी बिलकुल नए बिम्ब हैं।
जवाब देंहटाएंजब अनुवाद इतना सुन्दर है तो किवताएँ कितनी सुन्दर होंगी!
जवाब देंहटाएंडॉ.सिद्धेश्वर सिंह जी को बहुत-बहुत शुभकामनाएँ!
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
जवाब देंहटाएंप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (7-4-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
बहुत ही सुन्दर शब्द रचना ।
जवाब देंहटाएंकभी - कभी मैं मुस्कुराती हूँ
जवाब देंहटाएंऔर तब भी
विलाप करती हूँ।
चेहरा हँसता, मन रोता है।
तीनो कविताएँ बहुत गहरे तक असर करती हैं....
जवाब देंहटाएंविशुद्ध कविताऍ...शब्दाडम्बर से दूर - सहज, सरल व अर्थपूर्ण अभिव्यक्ति....अच्छा अनुवाद ।
जवाब देंहटाएंबारिश और सन्नाटा ... दिल में उतार गयीं ... कमाल की अभिव्यक्ति है ...
जवाब देंहटाएंआनन्द आया तीनों रचनायें पढ़ कर...आभार.
जवाब देंहटाएंमैंने सोचा कि प्रेम किया तुमने मुझसे
जवाब देंहटाएंकितना दुखद है यह
कि इस वासंती आकाश में
सब कुछ है धुंध और भाप।
आखिर क्यों रोए जा रहे हैं वन पाखी?
sabhi rachnaye unchch koti ki hai ,sarahaniye karya hai .
कभी - कभी मैं झुका लेती हूँ अपना शीश
जवाब देंहटाएंऔर विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं ढँक लेती हूँ अपना चेहरा
और विलाप करती हूँ
कभी - कभी मैं मुस्कुराती हूँ
और तब भी
विलाप करती हूँ।
लेकिन तुम्हें नहीं आती है यह कला।
.. अपने मन के आँगन में घूमती एक कोने में ठिठक गयी यह रचना.. आपका आभार
...
.....
जवाब देंहटाएं‘हरे पेड़ होने लगते हैं और हरे -और ऊंचे।
जवाब देंहटाएंहाय! कहां गए वो दिन:( अब कहां है वो हरे पेड?
gazab.......
जवाब देंहटाएंतीनों कविताएं दिल पर असर करतने वाली, बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंतीनों कवितायेँ बहुत अच्छी है ...
जवाब देंहटाएंरोते हुए मुस्कुराने की कला सिर्फ स्त्रियों को आती है , नदी को नहीं !
एकदम गहरे में उतरती हैं तालाब में एक साथ तीन पत्थर उछाल कर फेंक दिए...
जवाब देंहटाएंअब तक की सबसे शानदार प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंआज कर्मनशा पर सुना भी. :)
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