शुक्रवार, फ़रवरी 25, 2011

हमदर्द क़ातिल समय में दोहराते हैं -कुल्हाड़ी तो होगी ? - चन्द्रकांत देवताले


आज ग्वालियर में पहला “ कविता समय सम्मान “ वरिष्ठ कवि चन्द्रकांत देवताले को दिया जा रहा है । इस सम्मान के लिये चन्द्रकांत देवताले जी को बधाई के साथ प्रस्तुत है इस क़ातिल समय की पहचान कराती  1996 की उनकी एक  कविता जो मुझे आज भी प्रासंगिक लगती है ।  

कुल्हाड़ी

“ तुम्हारे घर में क्या कुछ है बचाव के लिए ?”
” मैं समझा नहीं किसलिये ।“
” आत्मरक्षा के लिए , जैसे बन्दूक ...”
 चौंककर कहता हूँ , “ नहीं ।“
” तलवार - फरसा - धारिया जैसा कुछ है ? “
“ नहीं । “
” तो लठ्ठ तो होगा ही ? “
” नहीं यह भी नहीं ।“
” तो मारे जाओगे बिना पहचान । “

समझाते हैं ऐसा बताते हैं वक़्त के भविष्यवक्ता शुभचिंतक
मैं दूसरा ही पचड़ा ले बैठता हूँ
गँदले पानी , मच्छर , चूहों और गन्दगी के बारे में
वे हँसते हैं और मानवीय लहजे में जगाते हैं
गोया मेरे भीतर सोया हो मध्ययुगीन योद्धा कोई गहरी नींद
फिर पूछते हैं - “ कुल्हाड़ी ? “
और मैं चालीस बरस पहले की अपनी
प्रिय कुल्हाड़ी की याद में डूबने लगता हूँ
जिससे चीरा करता था ईंधन के लिए धावड़े के डूँड
यादों के गहरे पानी से खींच लाते हैं
हमदर्द क़ातिल समय में दोहराते हैं -
” कुल्हाड़ी तो होगी ? “
उस एक क्षण में भटक जाता हूँ शहर - दर- शहर
जगह जगह ढूँढ आता हूँ एकदम निराश
अब इन्हें कैसे बताऊँ उस कुल्हाड़ी के बारे में
जो न जाने कब विस्थापित हो गई
हमारे घर की ज़रूरत और सरहद से

वे चले जाते हैं कुछ नाराज़ी
और थोड़ी उपेक्षा के साथ
पर मैं जैसे अहसानमन्द उनका बैठा रह जाता हूँ
याद करते हत्था उस कुल्हाड़ी का
जिसे चमकाने , चिकना सुन्दर बनाने में
एक बार कितने खुरदरे गट्टेदार हो गये थे मेरे हाथ ।

-- चन्द्रकांत देवताले 

शनिवार, फ़रवरी 12, 2011

जिसे बार - बार भूल जाता है अड़तालीस साल का आदमी ।


कल कवि कुमार अम्बुज का फोन आया...”  कैसे हो शरद ? बहुत दिनों से तुम्हारा कोई समाचार नहीं मिला ? “ कुमार भाई की इस चिंता ने मुझे द्रवित कर दिया । इस उम्र में जब सब लोग अपनी अपनी चिंता में व्यस्त रहते हैं किसी को इतनी चिंता कहाँ होती है कि पूछे कोई किस  हाल में जी रहा है । कुमार अम्बुज जी पिछले दिनों नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृति ले चुके हैं और अपनी ज़िन्दगी की दूसरी पारी खेलने के लिये कमर कस रहे हैं । लेकिन यह कवि ही हो सकता है जो अपनी चिंता के साथ ज़माने भर की चिंता करे । प्रस्तुत है श्री कुमार अम्बुज की यह कविता उनके संग्रह “ क्रूरता “ से ।

अड़तालीस साल का आदमी

अपनी सबसे छोटी लड़की के हाथ से
पानी का गिलास लेते हुए
वह उसका बढ़ता हुआ कद देखता है
और अपनी सबसे बड़ी लड़की की चिंता में डूब जाता है

नाइट लैम्प की नीली रोशनी में
वह देखता है सोई हुई बयालीस की पत्नी की तरफ
जैसे तमाम किए- अनकिए की क्षमा माँगता है

नौकरी के शेष नौ - दस साल
उसे चिड़चिड़ा और जल्दबाज़ बनाते हैं
किसी अदृश्य की प्रत्यक्ष घबराहट में घिरा हुआ वह
भूल जाता है अपने विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ

अड़तालीस का आदमी
घूम- फिर कर घुसता है नाते - बिरादरी में
मिलता है उन्ही कन्दराओं उन्हीं सुरंगों में
जिनमें से एक लम्बे युद्ध के बाद
वह बमुश्किल आया था बाहर

इस तरह अड़तालीस का न होना चुनौती है एक
जिसे बार - बार भूल जाता है
अड़तालीस साल का आदमी ।  

                   -- कुमार अम्बुज  

बुधवार, फ़रवरी 02, 2011

एक नये रास्ते की सम्भावना भी यहीं से शुरू होती है

एकांत श्रीवास्तव 
       मेरे कवि मित्र एकांत श्रीवास्तव ने जब पहली बार यह कविता सुनी थी तो उन्हे यह कविता बहुत पसन्द आई  थी .. सो यह कविता एकांत के लिये , और आप सभी के लिये ..जो जीवन की राहों पर चल रहे हैं और सामना कर रहे हैं हर आने वाले मोड़ का .. 

 मोड़

मोड़ बहुत हैं
जीवन की राह पर
अनदेखे अनचीन्हे मोड़

सपाट रास्तों से उपजी
ऊब तोड़ते हैं मोड़
मोड़ पर साफ दिखाई देता है
तय किया रास्ता
आनेवाला दृश्य
मोड़ पर बदल जाती है
हवा की दिशा
बदल जाता है
धूप का पहलू
बारिश का कोण

कभी अचानक आते हैं मोड़
कभी मिल जाता आभास
कभी कोई दिशा संकेत
सावधान करते हैं मोड़

मोड़ पर अक्सर ठिठक जाते लोग
गति हो जाती कम
टूट जाती लय
रुकने की सम्भावना होती मोड़ पर
टकरा जाने की भी
थक जाने की सम्भावना होती है
भटक जाने की

एक नये रास्ते की सम्भावना भी
यहीं से शुरू होती है ।

                        - शरद कोकास  

( चित्र गूगल से साभार )