शनिवार, मई 01, 2010

“हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे


            मई 1984 में जबलपुर में मध्यप्रदेश हिन्दी साहित्य सम्मेलन का कविता रचना शिविर हुआ था । दस दिनों तक कविता पर लगातार बातचीत होती रही । हम सभी शिविरार्थी युवा थे 22-24 साल की उम्र ,सवाल तो इस तरह करते थे जैसे क्लास में बैठे हों । और जवाब देने वालों में भी साहित्य के बड़े बड़े महारथी थे ।जब मज़दूरों पर कविता लिखने की बात आई तो एक युवा साथी ने सवाल किया .. मज़दूर मेहनत करता है लेकिन कारखाने का मालिक मुनाफा कैसे कमाता है ? उत्तर मिला .. सीधी सी बात है वह 20 रुपये का काम एक दिन मे करता है और उसकी मजदूरी 10 रुपये तय की जाती है । इस तरह उसे मजदूरी देने के बाद मालिक के एक दिन मे दस रुपये बच जाते है । अब उसके कारखाने मे 1000 मजदूर है तो उसके एक दिन मे 10000 रुपये बच जाते हैं । महीने में 30 x 10000 = 300000 और साल में 12 x300000 = 36,00000 .. | अब छत्तीस लाख में नयी फैक्टरी तो डाली जा सकती है ना ।
            बहरहाल , अब मजदूर ने तो अर्थशास्त्र पढा नही है न ही उसे यह गणित आता है । उसे तो बस काम करना आता है , वह करता है । उसे तो यह भी नहीं पता होता कि उसका शोषण हो रहा है । लेकिन जो पढ़े लिखे है वे तो जानते हैं ।
आज मजदूर दिवस पर जाने कितने मजदूर उसी तरह मजदूरी मे लगे होंगे और उन्हे पता भी नही होगा कि आज मजदूर दिवस है । हमे पता है इसलिये हम मजदूरों के पक्ष में लिख रहे हैं ..भले ही वे न पढ़ पायें लेकिन  हाँ उन मजदूरों को हम यह ज़रूर बतायें कि हम क्या लिख रहे है और क्यों लिख रहे हैं । इन्हे कमज़ोर मत समझिये जिस दिन ये समझ जायेंगे उस दिन अपना छीना हुआ हिस्सा मांग लेंगे ... मशहूर शायर फैज़ अहमद "फैज़" ने  कहा है ..
                                    “हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे
                                    एक खेत नहीं एक गाँव नहीं हम सारी दुनिया माँगेंगे “
उस शिविर में मजदूरो पर कविता लिखने की पारी में मैने भी एक कविता लिखी थी । मुझे पंक्ति मिली थी ..”कल का दिन बिगड़ी हुई मशीन सा था “ मैने क्या लिखा था आप भी पढिये ..
.
                     बीता हुआ दिन

कल का जो दिन बीता
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल कितनी प्रतीक्षा थी
हवाओं में फैले गीतों की
गीतों को पकड़ते सुरों की
और नन्हे बच्चे सी मुस्कराती
ज़िन्दगी की
कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल राजाओं के
मखमली कपड़ों के नीचे
मेरे और तुम्हारे
उसके और सबके
दिलों की धड़कनें
काँटे मे फँसी मछली सी
तड़पती थीं

सचमुच प्रतीक्षा थी तुम्हारी
ओ आसमान की ओर बहती हुई हवाओं
तुम्हारी भी प्रतीक्षा थी
लेकिन कल का दिन
बिगड़ी हुई मशीन सा था
कल का वो दिन
आज फिर उतर आया है
तुम्हारी आँखों में
आज भी तुम्हारी आँखें
भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
कल का खेल
खेल रही हैं ।

                    ---शरद कोकास
 

45 टिप्‍पणियां:

  1. अर्थशास्त्र जानने दिया नहीं जाता इसलिए जानते नहीं हैं.
    'बिगड़ी हुई मशीन सा दिन'
    श्रमिक दिवस पर कविता मेहनतकश की व्यथा को खूब बखान कर रही है.

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  2. वो दिन भी आएगा जिस का इंतजार है एक सदी से भी अधिक से। वह आएगा जरूर।

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  3. आज अगर मशीन (कंप्‍यूटर) बिगड़ जाती
    कौन आकर उसे कंधे पर ढोकर ले जाता
    वही तो मजदूर कहलाया जाता
    वही तो मजदूर कहलाया जात
    फिर भी न तो टिप्‍पणी पाता
    और न मजूरी पूरी ही पाता।

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  4. शायद कल को मजदूरों को उनका वाजिब हिस्सा मिले..बस यही दुआ है और यही इन्तजार.

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  5. आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।
    भेड़िए की आँख तो बदस्तूर चमक रही है

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  6. आप जैसे बुद्दीजीवि अगर मज़दूर वर्ग के हित मे लिखते रहेंगे तो वो दिन ज़रूर आयेगा जब मज़्रदूरो को उनका हक़् बिन मांगे मिलने लगेगा.....!!!


    इस सुन्दर कविता के लिये बधाई !!!!!


    __ राकेश वर्मा

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  7. ऐसी कवितायें रोज रोज पढने को नहीं मिलती...इतनी भावपूर्ण कवितायें लिखने के लिए आप को बधाई...शब्द शब्द दिल में उतर गयी.

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  8. टिप्पणियां पढ़कर लगा गोया हम मजदूर नहीं हैं ?

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  9. कल का दिनबिगड़ी हुई मशीन सा था
    कल राजाओं के
    मखमली कपड़ों के नीचेमेरे और तुम्हारेउसके और सबकेदिलों की धड़कनेंकाँटे मे फँसी मछली सीतड़पती थीं
    Sundar, Kamovesh sthiti aaj bhee waisee hee hai !

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  10. देश का तेंतीस फीसदी इनकम टैक्स अकेले मुंबई से आता है, मुंबई में ही बारह लाख से ज़्यादा लोगों की कमाई रोज़ बीस रूपये से भी कम है...

    मुंबई के छह फीसदी इलाके में 54 फीसदी लोग बसते हैं...बाकी 94 फीसदी इलाके में 46 फीसदी लोगों के आशियाने हैं...मज़दूर कहां बसते होंगे, क्या बताने की ज़रूरत है...

    जय हिंद...

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  11. वो दिन भी आएगा

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  12. संवेदनशील अभिव्यक्ति ! मजदूर दिवस पर इस कविता-प्रस्तुति का आभार ।

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  13. @ सचमुच प्रतीक्षा थी तुम्हारी
    ओ आसमान की ओर बहती हुई हवाओं
    तुम्हारी भी प्रतीक्षा थी
    लेकिन कल का दिन
    बिगड़ी हुई मशीन सा था
    कल का वो दिन
    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।

    उस महाकाव्य सरीखी लम्बी कविता की प्रतीक्षा है।

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  14. मेरे और तुम्हारे
    उसके और सबके
    दिलों की धड़कनें
    काँटे मे फँसी मछली सी
    तड़पती थीं
    ..................
    आपका उस वक्त का लिखा आज भी उतना ही प्रासंगिक है शरद जी !
    आपने अपने जिन मजदूर मित्रों का चित्र लगाया है वह इतना मोहक है कि शब्दों मे उसे व्यक्त कर पाना मुश्किल है ,आपकी इतनी निर्मल भावना का हार्दिक सम्मान ।

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  15. आपकी कविताएँ निःशब्द कर देती हैं.

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  16. sharad bhai, sundar kavita. shrm ki pratishthaa ho, yahi hamaari koshish honi chahiye.yah kavitaa jeevit rahegee.

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  17. अच्छी कविता-- इंक़लाब ज़िन्दाबाद

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  18. किसी पिरामिड की संरचना को देखें तो उसकी विस्तृत और विशालकाय जड़े जमीं मे गहरे गड़ी होती हैं..सिर्फ़ एक अदने से शीर्ष को चोटी पर बनाये रखने के लिये..हमारा अर्थशास्त्रीय-समाजशास्त्रीय तंत्र भी इन्ही गिनी-चुनी ईंटों को सामाजिक पिरामिड के शीर्ष को अच्क्षुण रखने के लिये बाकी सारी आबादी को गहरी जमीन के अंधेरे मे पिरामिड का बोझ उठाये रखने के लिये विवश करता है..इसे गणितीय संतुलन का नाम दिया जाता है..

    मेरे और तुम्हारे
    उसके और सबके
    दिलों की धड़कनें
    काँटे मे फँसी मछली सी
    तड़पती थीं

    काँटे मे फ़ँसी धड़कन....सच कहूँ तो शरद साहब इन पंक्तियों मे हमारे जैसे अदने पाठकों का दिल भी काँटे मे फ़ँसा ले गये आप..अद्भुत!
    मई दिवस पर बहुत उद्वेलनपूर्ण कविता..विषयानुकूल!

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  19. श्रम का निर्मम वस्तुकरण यही कराता है !
    सुन्दर कविता ..

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  20. बहुत बढ़िया है भाई ...

    मेरी कमजोरी है कि मैं अपने मन की बात कहने में खुद को अक्सर असमर्थ पाता हूँ
    और कभी कह भी लेता हूँ तो समझ में नहीं आता कि "किस से कहें ?"

    बहरहाल .... आप की रचनाओं पे ..."बहुत उम्दा" .. कहना ही है मेरे बस में .... कमज़ोरी है मेरी ... क्या करें .. "किस से कहें ?"

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  21. sab itna kah chuke ki ab kuch kahne ko bacha hinahi .........sirf itna hi ...............behtreen rachna........majdooron ka dard ubhar kar aaya hai.

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  22. कल का वो दिन
    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।
    निर्मम सत्य से रु ब रु कराती रचना... मन उद्वेलित कर गयी..

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  23. लेकिन कल का दिन
    बिगड़ी हुई मशीन सा था
    कल का वो दिन
    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।
    ..... Aapki har rachana jiwan ke yatharth dharatal par likhi hoti hain, jo man mein gahre utarkar bahut kuch sochne par mujboor katri hai... Majdoor diwas par betreen prastuti ke liye haardik shubhkamnayne......

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  24. क्या कोई देगा, कब तक देगा , हाथ हम क्यूँ फैलाएं
    क्यूँ न इसी मिट्टी से हम सपनों का महल बनायें

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  25. कल का वो दिन
    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।
    लाल सलाम. कुछ कहने की ज़रूरत ही नहीं है. शब्द बोल रहे हैं.

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  26. सही कहा, हमारे देश मै मजदुरो को उन की मेहनत का सिर्फ़ १०% ही मिलता है बाकी ९०% मिल मालिक ही खाते है

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  27. भेड़िये से चमकती आँखों में कल का खेल दिखा रही है यह कविता ...
    कल वाला कल कब आएगा ....कितनी आँखों में है ये प्रश्न भी ....

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  28. ''Hum mehnatkash jagwalon se jab apna hissa mangenge..'' IPTA ki yaad dila di aapne.
    aapki kavita to apne aap me ek uphaar hoti hi hai..

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  29. श्रमिक दिवस पर कविता मेहनतकश की व्यथा को खूब बखान कर रही है।

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  30. नमस्कार ,एक कहावत हमारे यहाँ प्रचलित है "कि मजदूर कि माँ उसे ये कह कर काम पे भेजती है कि बेटा काम करते हुवे ये याद रखना कि कल भी काम पे जाना है " यानि ज्यादा काम कर के शरीर को थका मत लेना कल भी काम पर जाना है |शंका दूर करे कृपया

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  31. भई उस दिन के इंतजार में न जाने कितनों की आखें पथरा गई।
    उम्मीद तो रखनी चाहिए , लेकिन खाली उम्मीद से भी क्या होगा।

    बढ़िया लिखा है ।
    आजकल पढना लिखना कुछ कम हो गया लगता है।

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  32. मजदूर दिवस ! श्रम दिवस पर हम मजदूर लोगों को याद कर लेते हैं और बाकी के 364 दिन उन्हें और उनकी पीड़ा को भूल जाते हैं ... अच्छा लगा कि आप के मजदूर लोग दोस्त हैं और आप में वो जज्बा भी है कि आप ने उनकी पीड़ा को अपनी कविता में स्थान दिया ।

    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।

    कल का दिन शोषण का था
    गर आज के दिन को जागृति का दिन बना दें
    तो फिर
    भेड़िए की आँखों में वो चमक न होगी
    और वह कल का सा खेल कभी न खेल पाएगा ।

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  33. आप सभी का बहुत बहुत धन्यवाद ।
    @दर्शनलाल जी -मजदूर की माँ उससे यह इसलिये कहती है कि वह जानती है ..कल कुआँ खोदेंगे तभी पानी मिलेगा । हमारी तरह आनेवाली पीढ़ीयों के लिये धनसंचय के बारे में तो वह सोच भी नहीं सकती ।
    @डॉ.दराल- पढना-लिखना कम तो नहीं हुआ है । लेखन के ही काम मे लगाअ हूँ ..इधर कविता संग्रह की तैयारी भी चल रही है । वैसे आपका संकेत मैं समझ गया हूँ । वादा करता हूँ कि आगे से आपको कोई शिकायत नहीं होगी । धन्यवाद ।

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  34. जलजला आपके जज्बे को सलाम करता है। ये सेठ-व्यापारी, रजवाड़े दस लाख तो हम दस लाख करोड़.. ये कितने दिन अमरीका से जीने का सहारा मांगेंगे। हम मेहनतकश जब इस दुनिया से जब अपना हिस्सा मांगेंगे.. बहुत खूब कोकाश साहब। आपके ब्लाग पर आकर धन्य हो गया।

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  35. 'हम मेहनतकश जग वालों से' पंक्तियां फैज अहमद फैज की हैं। यह तो आप बेहतर जानते ही होंगे। मजदूर दिवस पर कविता की मजदूरी करने वाले कवि से उसका नाम तो न छीनें। शरद भाई आपने अपनी इस पोस्‍ट में उन्‍हें एक कवि कहकर छोड़ दिया।

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  36. मजदूर याने श्रमिक, हम कार्यालय मे बैठकर काम करने वाले शायद भूल ही जाते हैं। आपकी कविता पढ़कर याद किये। भाई टिप्पणी करना तो सूरज को दिया दिखाने के समान होगा। बस लोग सभी जगह "नाईस" लिख देते हैं। हम "वेरी नाईस" लिख दे रहे हैं। वाकई सुन्दर चित्रण है।

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  37. बिगड़ी हुई मशीन की तरह दिन को ठोंक पीट कर, सुख दुःख के गाढ़े रंगो को जीने वाले मजदूर स्त्री पुरुषों कों--मजदूर दिवस एक झुन झना ही तो है ! मगर आप जैसा लेखक उन्हें इतना मान सम्मान दे ! साहित्य का सरोकार वहीं पूरा हो जाता है ! आपके हृदय में स्थित इस सम्मान की भावना कों प्रणाम !

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  38. @राजेश भाई , सचमुच भूल गया था फैज़ साहब की बहुत इज़्ज़त हम लोग करते हैं । मैने भूल दुरुस्त कर दी है । इस ग़लती की ओर ध्यान दिलाने के लिये धन्यवाद ।

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  39. बहुत अच्छी प्रस्तुति संवेदनशील हृदयस्पर्शी

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  40. ओह ! शरद भैया .....साहिर की "रोटी " याद आ गयी..

    सत्य....
    कुछ और कहने की स्थिती मे नहीँ हूँ . ग्रिहस्त जीवन मे व्यस्त था. देर से आने के लिये माफी..
    सत्य

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  41. कल का जो दिन बीता
    बिगड़ी हुई मशीन सा था....vaah bahut khub.

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  42. कल का वो दिन
    आज फिर उतर आया है
    तुम्हारी आँखों में
    आज भी तुम्हारी आँखें
    भेड़िये की आँखों सी चमकती हुई
    कल का खेल
    खेल रही हैं ।
    jawab nahi ,shabd nahi ati sundar

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