मंगलवार, मार्च 23, 2010

सिर्फ इक्कीस बरस का जीवन जिसने जिया ..

नवरात्रि आठवाँ दिन
इन कवयित्रियों को आपने पढ़ा - प्रथम दिन से लेकर आपने अब तक फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल और अज़रा अब्बास , दून्या मिख़ाइल और शीमा काल्बासी की कवितायें पढ़ीं ।
इन पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आपने पढ़ीं -नवरात्रि के सातवें दिन प्रकाशित  शीमा काल्बासी  की कविता पर जो बातचीत हुई उसमे अपनी सहभागिता दर्ज की अशोक कुमार पाण्डेय ने ,शिरीष कुमार मौर्य ने ,लवली कुमारी ,हरि शर्मा ,पारुल ,राज भाटिया , सुमन , डॉ.टी.एस.दराल , हर्षिता, प्रज्ञा पाण्डेय ,मयंक , हरकीरत हीर” , के.के.यादव , खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज ., सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा , रश्मि प्रभा  , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि, पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा , डॉ.रूपचन्द शास्त्री मयंक “,अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, और रजनीश परिहार और पुष्पा ने । आप सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ  
इन्हे आज पढेंगे आप - ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 
इनका परिचय दे रहे हैं – इस कविता के अनुवाद के साथ ,कर्मनाशा ब्लॉग के सिद्धेश्वर जी  ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का : ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का का जन्म २१ अक्टूबर १९२१ को  लुबलिन ( पोलैंड) में हुआ था 
 और नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत संगठन के० ओ० पी०  की सक्रिय सदस्य थीं। उसे और उनकी बहन को  मई १९४१ को गेस्टापो ने गिरफ़्तार कर लिया  और कुछ महीनों के बाद खास तौर पर  
महिला बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया था।  
वहीं ग्राज़्यना को १८ अप्रेल १९४२ को अन्य ११ पोलिश महिला बंदियों के साथ नाज़ी फायरिंग स्क्वाड 
द्वारा उड़ा दिया गया । इस तरह हम देखते हैं कि मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन इस कवयित्री ने जिया। वह तो अभी  
ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु: और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी  गई।उसकी जितनी भी कवितायें उपलब्ध है  उनसे गुजरते हुए सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और  तन्हाई  से उपजी  तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कुछ कविताओं का प्रसारण १९४३ में बीबीसी लंदन से कैम्प के समाचारों के साथ हुआ था। प्रस्तुत कविता जारेक गाजेवस्की द्वारा मूल पोलिश से अंग्रेजी में किए गए अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है।


परायी धरती
( ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कविता )

नीची इमारतों की खामोश भूरी कतार
और उसी की तरह भूरा - भूरा आसमान
यह भूरापन जिसमें नहीं बची है कोई उम्मीद ।
उदासी में डूबे अलहदा किस्म के इंसानों के झुण्ड
भयानक तस्वीरें, अनोखी अजनबियत और बहुत ज्यादा सन्नाटा।

इस मृत खालीपन में
घर की याद घसीटती है अपनी ओर
जिससे उपजता है सूनापन
घेरती है पीली कठोर और गूँगी निराशा
जिसमें दम घुटता है भावनाओं का
और वे भटकती हैं अँधेरे - अंधे कोनों में।
सुनो , बावजूद इसके
आजाद जंगलों में अंकुरित होते हैं नए - नन्हें वृक्ष ।

क्या हमें ? क्या हमें सहन करना है ?
यह सब जो विद्यमान है शान्तचित्त ।
मैं खोती जा रही हूँ अनुभव अपने अस्तित्व का
कुछ नहीं देख पा रही हूँ
 ही कर रही हूँ किसी सूत्र का अनुसरण ।
हम यह जो छोड़े जा रहे हैं निशान
वे इस परायी रूखी धरती पर
वे कितने छिछले हैं कितने प्राणहीन ।
मात्र इतना
कि हम यहाँ आए थे
और कोई अर्थ नहीं नहीं था हमारे होने का ।

                  ------------- ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 

 
यह कविता घोर निराशा के इस समय में भी आशा का संचार करती है और कई सवाल खड़े करती है .. यह मनुष्य को झकझोर कर पूछ्ती है  .. इस पराई धरती पर हमारे होने का क्या अर्थ है ..? यह कविता आपको कैसी लगी ज़रूर बताइयेगा  - शरद कोकास




18 टिप्‍पणियां:

  1. पहले की तरह ही अद्भुत रचना....बहुत सुकून मिलता है....आपके पोस्ट से......
    .......
    .........
    विश्व जल दिवस....नंगा नहायेगा क्या...और निचोड़ेगा क्या ?
    लड्डू बोलता है ....इंजीनियर के दिल से....
    http://laddoospeaks.blogspot.com/2010/03/blog-post_22.html

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  2. एक 21 वर्षीया कवयित्री के विचार उन हालातों को ब्‍यां करते हैं जो कवयित्री ने महसूस किए परंतु उस महसूसन को शब्‍दों और भावों के जिस निराले रंग में ढाला, वो उनके भविष्‍य की बेहतर संभावनाओं को दर्शाते हैं परंतु नियति को कुछ और ही मंजूर था। सबके जीने के बावजूद इस जीने की प्रत्‍येक सीढ़ी की नेक अनेकता अपनी ओर विमर्श के लिए खींचती है। इस पर आरंभ से विमर्श जारी है और अंत तक जारी ही रहेगा। मेरा ऐसा मानना है।

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  3. कोई अर्थ नहीं नहीं था हमारे होने का।

    कुछ कर जाओ दोस्तो। कहीं अंत समय कहना न पड़ जाए।

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  4. कि हम यहाँ आये थे ...कोई अर्थ नहीं था हमारे होने का ....
    इतनी निराशा ....
    बावजूद इसके कि
    आजाद जंगलों में अंकुरित होते हैं नन्हे वृक्ष ...

    युद्ध की विभीषिकाएँ सभी जगह एक सी होती है ...सिर्फ युद्ध ही नहीं नव निर्माण की भी ...
    बदलते युग की प्रसव पीड़ा स्त्रियाँ ज्यादा संजीदगी से अनुभव करती हैं ...!!

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  5. मैं खोती जा रही हूँ अनुभव अपने अस्तित्व का
    कुछ नहीं देख पा रही हूँ
    बहुत गहरी वेदना को महसूस किया है और अपने जीवन के सिर्फ २१वे वसंत में ही अपने अस्तित्व से मुक्त होने का सामान इकठा कर दुनिया के सामने रख दिया है |
    गहन अनुभूतियो से भरी प्राणवान कविता |

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  6. शरद भाई .... आप की बदौलत इतनी अच्छी कवितायें पढने को मिल रही हैं .... शुक्रिया अभी नहीं ..., अभी सिलसिला जारी रहे ...

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  7. घोर नैराश्य को भी इतने जीवंत शब्दों में व्यक्त करना....जैसे हम सब महसूस कर पा रहें हों ..वो सन्नाटा,अजनबियत,सूनापन और निराशा....अपने होने का कोई अर्थ नहीं...फिर भी कहती हैं...
    सुनो , बावजूद इसके
    आजाद जंगलों में अंकुरित होते हैं नए - नन्हें वृक्ष ।

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  8. कभी कभी जिंदगी कम उम्र में भी ऐसे अनुभव करा देती है जिसको सौ जन्म में आप न पा सके, बहुत संवेदनशील रचना और जितनी सुंदर रचना उतना हृदयस्पर्शी अनुवाद.
    शरद जी सुन्दर रसास्वादन जो आपने व्रत के दौरान कराया है क्या यह सिलसिला अनवरत नहीं चल सकता. हम सभी अब इस इंतज़ार में ही रहते हैं कल क्या पढ़ने को मिलेगा.
    सचमुच लाजवाव.

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  9. शरद जी
    बहुत ही नेक और साहित्यिक प्रयास है यह.......दुनिया की बेहतरीन रचनाओं को चुन कर हम तक परोसने के लिए हार्दिक धन्यवाद......!

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  10. bahut khoob.. sanyog dekhiye ki ye kavita aapne 23rd march ko preshit ki...

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  11. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  12. नायाब प्रस्तुति!
    सुन्दर भावों से सजी रचना का बढ़िया अनुवाद!
    राम-नवमी की हार्दिक शुभकामनाएँ!

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  13. होने का अर्थ तो वक्त ही बताता है।
    कितनी खूबसूरती से सहेजा गया है ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का के होने का अर्थ!
    ..आभार।

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