बुधवार, दिसंबर 16, 2009

कोई चेहरा गाज़र के हलुवे की प्लेट सा लगता है

                 सुबह सुबह मुँह खोलो तो निकलती है ढेर सारी भाफ़ ..ऐसा लगता है कोई चाय की केटली रखी हो दिल के भीतर । आलिंगन के लिये बढ़ते हुए हाथ गर्म कम्बल की तरह दिखाई देते हैं , सुबह की गुनगुनी धूप में मफलर से लिपटा हुआ कोई चेहरा गाज़र के हलुवे की प्लेट सा  लगता है  ।दोपहर , जल्दी बाय बाय कहकर चली जाने वाली प्रेमिका की तरह और शाम नकाब पहनकर आती किसी खातून की तरह लगती है । रात पेट भरने के बाद रज़ाई में घुसते समय सुख के अहसास में इतनी उछल कूद होती है मानो कोई ज़लज़ला आ गया हो  ।
                माफ कीजियेगा ..यह सारे सुविधाभोगी जीवन के बिम्ब हैं ।.लेकिन उन करोड़ों लोगों का क्या जिन्हे कड़कड़ाती ठंड में भी यह सब नसीब ही नहीं है । अभी उस दिन एक दोस्त ने कहा कि उसे ठंड अच्छी नहीं लगती ..सुबह सुबह अखबार में ठंड से मरने वालों की संख्या देखकर वह काँप जाता है ।
                 लेकिन कोई तो है ..जो इस भयानक ठंड से लड़ने के लिये तैयार बैठा है ..वह मेरे देश का आम आदमी है जिसे उसका दुश्मन नज़र तो आ रहा है ऐसा दुश्मन जिसके चेहरे पर शोषक की एक ठंडी मुस्कान है ..लेकिन इस ग़रीब आदमी के पास उसका मुकाबला करने के लिये कुछ नहीं है ..कुछ है तो  बस दिमाग़ में विद्रोह की एक आग और समूह की ताकत  .. लीजिये ..कविता पढ़िये ..



                       ठंड


मैं नहीं गया कभी कश्मीर
न मसूरी न नैनीताल
दिल्ली क्या
भोपाल तक नहीं गया मैं


नहीं देखे कभी
तापमान के चार्ट
अखबारों में नहीं पढ़ा
टी.वी.पर नहीं देखा
किस साल कितने लोग
ठन्ड से मरे


शहर से आये बाबू से
नहीं पूछा मैने
तुम्हारे उधर ठंड कैसी है
नहीं हासिल हुए मुझे
शाल स्वेटर दस्ताने और मफलर
 

मुझे नहीं पता
ठंड से बचने के लिये
लोग क्या क्या करते हैं


ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
और.....


पैदा की आग ।

                        - शरद कोकास 
(चित्र गूगल से साभार)

43 टिप्‍पणियां:

  1. शानदार सधी रचना!!

    सुविधाभोगी जीवन के बिम्ब..वो भी खूब रहे.

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  2. thand se bachane ke liye aag aur lakdiyan to chahiye hi bina isake thand kahan jaane wala hai..

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  3. जब कुछ और न हो तो
    जुटानी ही पड़ती हैं लकड़ियाँ
    पैदा करनी होती है आग
    रह जाती है
    वही जीवन को
    बचाने का एक मात्र साधन।

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  4. का भैया, तमाचा मारे हो क्या। गाल लाल क्यों हो रहा है?

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  5. बिलकुल सही कहा आपने। किसी को तन ढांपने को कपडा नहीं तो कहीं कपडे की मिल का मालिक करोडों अरबों मे खेल रहा है और उस पर तुका ये कि सारी मेहनत ये गरीब आदमी ही करता है। कविता अच्छी लगी धन्यवाद्

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  6. sharad ji bahut achchhi kavita hai apni baat bahut sundarta se kahi gayi hai .

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  7. भैया .... बहुत मार्मिकता के साथ .... बहुत सुंदर कविता..... दिल को छू गई....

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  8. आग तो होनी ही चाहिये,चाहे मेरे सीने मे हो या तेरे सीने में!

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  9. कितनी गहरी बात को आपने इन पंक्तियों में प्रस्‍तुत किया बहुत ही भावमय प्रस्‍तुति, आभार ।

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  10. क्या बात है शरद जी ,
    शीत में तो शरद की धार बढ गई सी लगती है ...वाह मजा आ गया चेहरा देख के जो गाजर के हलवे की प्लेट की तरह दिखता है

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  11. ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....


    पैदा की आग । बहुत बढिया शरद भाई,

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  12. 31 दिसंबर की रात

    नोएडा की एक सड़क के पास रात 1बजे चाय के खोखे के पास गत्ता जलाकर आग तापते कुछ मज़दूर...तभी एक चमचमाती कार में टुन्न रईसों के लड़के-लड़कियां हाथों में जाम लिए हुए तेज़ी से पास आकर रूकते हैं और टोंट के लहज़े में कहते हैं--हे चीयर्स, हैप्पी न्यू ईयर, लेट अस सेलीब्रेट...कार चली जाती है तो एक जवान मज़दूर कहता है...ये क्या कह रहे थे, भईया...एक अधेड़ जवाब देता है...सब
    अमीरों के चोंचले हैं...

    जय हिंद...

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  13. जूझने की ललक ......... न हारने की चाह और बस कर्म करने वाले मेहनतकश के सफ़र को बाखूबी उतारा है शरद जी आपने ........... आपकी कविताएँ हमेशा आम आदमी से जुड़ी होती हैं ...... बहुत लाजवाब ..........

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  14. ye aag hi to jeene ka sabab banti hai aise jujharuon ke...........ek bahut hi sashakt rachna.

    pls visit at - http://vandana-zindagi.blogspot.com

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  15. '' पैदा की आग '' !
    यही आग सामूहिक हो जाय बस..

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  16. ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....

    पैदा की आग ।

    बहुत खूब...

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  17. बहुत सुन्दर रचना है..एक गरीब की बेबसी का सजीव चित्रण है इन पंक्तियो में.....
    ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....


    पैदा की आग ।

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  18. बहुत ही भावमयी कविता है आपकी....
    कुछ जाने पहचाने दृश्य परिलक्षित कराती हुई...

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  19. बहुत अच्छी तरह पिरोया है एक एक शब्द. धुंधली होती तस्वीर को साफ़ साफ़ दिखाने के लिए बधाई .
    इसे विधि की विडंबना ही कहें तो अच्छा है. जिनको जरुरत है उन्हें मिलता नहीं और जिनके पास है उन्हें कद्र नहीं.अगर हमारे पास है तो कम से कम भगवन का शुक्रिया तो करें .साथ ही थोड़ी मस्ती भी हो जाए " घोड़ों को मिलता नहीं घास देखो ,गधे खा रहे हैं चव्यनप्राश देखो "

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  20. मुझे नहीं पता
    ठंड से बचने के लिये
    लोग क्या क्या करते हैं
    ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....

    पैदा की आग ।
    बहुत सुंदर ।

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  21. वाह , शरद भैया, लाज़वाब।
    बहुत मर्मभेदी बात सन्मुख रखी है।
    काश की शहर के रईसजादे समझ सकें इस पीड़ा को।

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  22. आज कई दिन बाद बैठा तो सबसे पहले यह कविता पढी।
    सच में बहुत अच्छी बन पडी है शरद भाई
    जब ठढ इतनी हो…कुहरा इतना गहरा तो बस आग़ की तलाश ही सार्थक है।

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  23. शरद जी आपकी इस रचना को पढ़ कर मैं खड़े हो कर तालियाँ बजा रहा हूँ...शब्द नहीं हैं मेरे पास प्रशंशा के ...वाह...इश्वर आपकी लेखनी की धार को सतत बनाये रखे...
    नीरज

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  24. kamaal karte hain bhai saaheb !

    aapki har rachnaa aapki hi tarah vilakshan hoti hai

    badhaai !

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  25. ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....
    पैदा की आग ।
    -----------------
    जी हाँ
    ठंड से ये ही मरते हैं
    और
    आग पैदा करना भी इन्हें ही आता है।
    --हम तो बस कागजी शेर हैं।
    --सशक्त रचना।

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  26. शरद भाई, कवि ने बता ही दिया कि उसे ठण्डी जगहों का अनुभव ही नहीं है. ईमान दार कविता है, लेकिन उसे सलाह दीजिए, अगर कहीं ठण्डी जगह में फँस ही गए, मज़बूरन, जैसे अभी कुछ दिन पहले झार खण्ड के 60 मज़दूर रोह्ताँग में फ़ँसे थे, तो उस् का यह दर्शन काम नहीं करेगा, कि ठण्ड बड़्हेगी, और लकडी का जुगाड़ किया जायेगा.
    बच्पन में चींटी और चिड़िया कविता तो पढ़ी होगी उनने. लकड़ी का जुगाड़ ठण्ड बढ़ने से बहुत पहले करना पड़ता है ठ्ण्डे इलाक़ों में.आखिर बरफ के बीच में चुटकी बजा के तो नहीं मिलने वाली वो.
    आप की सोच ,और दृष्टि को कभी आपका भूगोल भी तय करता है.हमेशा राजनीति और विचारधारा नहीं.
    ise viDambanaa hee kahE^ge ki jis vaigyaanik soch ke ham pakshdhar hai^ voh soch आप की कविता के aarambh me die gaye vilaaspoorN माहौल मे ही उत्पन्न होती है. जिसे हम और आप गलत मानते हैं.
    इस प्रेरक पोस्ट के लिए शुक्रिया.

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  27. बहुत भावपूर्ण कविता है। ठंड गरीब के लिए श्राप है। वैसे यहाँ मुम्बई में तो काफी गर्मी हो रही है। पंखा पूरे जोर से चल रहा है।
    घुघूती बासूती

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  28. सुन्दर है। शानदार है।
    लेकिन अब लकड़ियां भी तो मयस्सर नहीं भैया शहर में।

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  29. यही तो है वह मानवीय जिजीविषा जो मनुष्य को चाँद पर जा बिठा आई और अब वह ब्रह्माण्डजेता बनने को उद्यत है !

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  30. लगा जैसे कविता एकदम अचानक से खत्म हो गयी। मैं तो अभी कुछ और, कुछ और, कुछ और की अपेक्षा कर रहा था।

    हमेशा की तरह शरद जी की लेखनी से एक और सशक्त सामयिक कविता।
    भूमिका इस बार भी कविता का भान दिला गयी।

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  31. बेहतर कविता...

    हमारे दादाजी कहा करते थे जब बहुत ज्यादा ठड़ हो जाया करती थी, कि भैया अब तो दो मुट्ठी ठंड़ हो गयी...
    उनका मतलब होता था कि अब दोनों मुट्ठियां कांखों के बीच दबानी पड़ रही हैं...

    और तब यही आग सुलगा करती थी...
    अब भी सुलग रही है....

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  32. भूमिका, कविता और भाव सभी बहुत सुन्दर लगे. हम तो अभी दिन में शून्य से तीन डिग्री कम में बैठे लिख रहे हैं. अलबत्ता आग है, ऊष्मा है.

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  33. मैं नहीं गया कभी कश्मीर
    न मसूरी न नैनीताल

    main wahi ka hoon, Ek pahadi isliye barbas hi 'Javed Akhtar' Saa'b ka ye she'r yaad ho aata hai:

    Dhalta Sooraj, faila jungle,rasta gum.
    Humse poocho kaisa manjar hota hai?

    Haan par hamare paas razai bhi hoti thi aur heeter bhi,
    Bus doordarshan 'Clear' nahi aata tha kharab mausam ke karan to razai se uthkar antenna hilane jaana bhi ek bada kaam tha.

    Isse zayada samvedanhinta ki parakshtha kya hogi ki tab shayad 'Samachaar' sun ke 'ch ch ch' kar dete the.

    "ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....


    पैदा की आग ।
    "

    Ek pagli 'Deepa Di' kai saalon se wahin padi rehti thi. 1998 ki thand usski saasein jama gayi.
    Ab bhi wo jagahj khali hai. Uski bhuji hui beediyon aur jami hui saason ke 'Jeevashm' ke saath.

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  34. isi aag me hai wo garmi,jise dhoondhta hai har insaan.....yah kavita,yun kahen yah agni tareefe kabil hai

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  35. kash fir sab log isi tarh aag jala paye aur dili bhopal sab bhool jaye .
    man ko choo gai ye rachna

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  36. ज्यों ज्यों बढ़ी ठंड
    मैने इकठ्ठा की लकड़ियाँ
    और.....
    पैदा की आग ।
    Yahi aag to hai jo jinda rakhati hai or banati, mitati hai insaan ko...

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