भोपाल गैस कांड में जो प्रभावित लोग ज़िन्दा बच गये थे वे भी आज खुश कहाँ हैं ? पिछले 25 बरसों में जाने कितने लोग धीरे धीरे मर चुके हैं गैस के प्रभाव की वज़ह से । वे जिनके फेफड़े और अन्य अंग प्रभावित हो गये थे वे ,जिनकी बीमारी की मूल वज़ह वह गैस थी और यह बात उन्हे भी नही पता थी । सोचिये उन गर्भवती स्त्रियों ,बच्चों और बूढों के बारे में ज़हरीली गैस जिनकी कोशिकाओं में समा गई थी । यह वैज्ञानिक तथ्य आपको पता है ना ..हम साँस कहीं से भी लें श्वसन क्रिया कोशिकाओं में होती है ।
खैर जिस तरह हिरोशिमा और नागासाकी के विकीरण के प्रभाव को लोग भूल गये उसी तरह आज लोग इस बात को भूल चुके हैं कि यूनियन कार्बाइड नाम की कोई हत्यारी फैक्टरी भी थी । कुछ दिनो तक लोगों ने लाल एवरेडी का बहिष्कार किया फिर भूल गये । पीड़ितों को मुआवज़ा अवश्य मिला लेकिन लोग यह भूल गये कि मुआवज़े के पैसे से दवा खरीदी जा सकती है ज़िन्दगी नहीं ।
यह हमारे देश की संस्कृति है कि हत्यारे के नकली आँसू देखकर उसे गले लगा लिया जाता है । हत्यारा फिर फिर हँसता है और गले मिलकर फिर पीठ में छुरा घोंप देता है । 25 बरस पहले मुझे समझ नहीं थी लेकिन गैसकांड पीड़ितों और समाज के हित में काम करने वाली संस्थाओं के आन्दोलन देख कर लगता था कि अब शायद दोबारा देश में ऐसा न हो ,लेकिन वह एक झूठा स्वप्न था ,मानवता की हत्या करने वाली बहुत सारी मल्टीनेशनल कम्पनियाँ फिर आ गईं है....बल्कि इस बार उन्हे नेवता देकर बुलाया गया है । हत्या का तरीका भी अब बदल गया है । इसलिये अब दोबारा देश में ऐसा हो तो आश्चर्य नहीं होना चाहिये ।
मैने कविता लिखना सीखा ही था उन दिनों और लिखना-पढना शुरू ही किया था । उस उम्र का एक स्वाभाविक असर था कि आक्रोश मन में जन्म ले रहा था ...कैसे लोग हैं जो इस ज़हरीली गैस कांड के बाद भी देश में बसंतोत्सव मनाने जा रहे हैं ..इस गुस्से को शांत करने के लिये एक कविता लिखी गई थी जो उस समय अखबार में छपी भी थी .. आज गैस कांड की इस पच्चीसवीं बरसी पर इसे प्रस्तुत कर रहा हूँ .. इस निवेदन के साथ कि इसके बिम्बों को उस घटना के सन्दर्भ में समझने की कोशिश कीजियेगा और सोचियेगा कि क्या आज हम फिर इन कड़वी सच्चाइयों को भूल कर उत्सवधर्मिता में मग्न नहीं हो गये हैं ?
बसंत क्या तुम उस ओर भी जाओगे ?
बसंत क्या तुम उस ओर जाओगे
क्षण दो क्षण में बूढ़े हो गये
देश की हवाओं में घुले
आयातित ज़हर से
बीज कुचले गये
वनस्पतियाँ अविश्वसनीय हो गईं
जानवरों के लिये भी
जाओ उस ओर तुम देखोगे
और सोचोगे पत्तों के झड़ने का
अब कोई मौसम नहीं होता
नन्हे नन्हे पौधों की कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
पहले की तरह खिलखिलाते हुए
आश्चर्य मत करना देखकर
वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
-शरद कोकास
(चित्र गूगल से साभार )
सटीक रचना . सच है जो जिन्दा है बचे है अब उनका जीवन मुर्दों के सामान है .....
जवाब देंहटाएंआश्चर्य मत करना देखकर
जवाब देंहटाएंवहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
अगवानी होगी तो बरगदों के हौसले भी तो टूटेंगे.
बहुत सुन्दर रचना
मुझे कविवर ऋषभदेव शर्मा की एक कविता अनायास ही याद हो आई- वसंत मुझ पर मत आना जिसकी कुछ पंक्तियां उद्धृत कर रहा हूं..पूरी कविता तो कविताकोश में है ही।
जवाब देंहटाएंपाखंड हैं मेरी तमाम खुशबुएँ,
पाश बनकर बाँध लेती हैं पूरे जंगल को अपने-आप में
और ढाँप लेती हैं बेहोशी के जादू में
मेरे भीतर की सारी दुर्गंध को।
एक ज़िंदा कब्रिस्तान है मेरे भीतर
जिसमें दफ़न हैं जाने कितनी मासूम जानें-
बँधकर आई थीं इन्हीं खुशबुओं से
वे मेरे करीब।
सड़ाँध का एक सैलाब
छिपा है मेरी एक-एक खुशबू के पीछे।
पौधा हूँ, पर जीवभक्षी हूँ मैं।
वसंत, मुझ पर मत आना।
वह विपदा कभी भी भुलाया नही जा सकता मगर सच है एक त्रासदी के बाद भी कही भी कोई सुधार नही आया की हम अपने भविष्य में सुरक्षित रहने का दावा कर सके...सब भगवान के भरोसे..
जवाब देंहटाएंबहुत ही बढ़िया कविता एक सुंदर भाव को अंकुरित करती हुई..मुझे बहुत अच्छी लगी...कविता के लिए धन्यवाद शरद जी
कविता बहुत सटीक है । विकासशील और पिछडे विकास आयात कर लेते हैं लेकिन उसके बगल प्रभावों से निपटने की क्षमता और दृष्टि उनके पास नहीं होती ।
जवाब देंहटाएंvery nice
जवाब देंहटाएंno more words to say.
सीने में जलन, आंखों में तूफ़ान सा क्यों है,
जवाब देंहटाएंइस शहर में हर शख्स परेशान सा क्यों है...
जय हिंद...
आश्चर्य मत करना देखकर
जवाब देंहटाएंवहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को
सटीक कविता
आश्चर्य मत करना देखकर
जवाब देंहटाएंवहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
-दिल में कहीं गहरे उतर कर भेदा है इस रचना ने...बिना अहसासे ऐसा लिख जाना संभव नहीं, भाई..
साधुवाद इस रचना के लिए.
प्रकृति के माध्यम से मानव की अमानवीयता
जवाब देंहटाएंका बयां करना ... इतना सटीक बन गया है कि
क्या कहा जाय ... परिवेश ही सब बोल दे रहा है ,
अब मैं क्या बोलूँ ...
.................... आभार .......................
भोपाल कांड में मारे गये लोगों के प्रति दुख है।
जवाब देंहटाएंएक अच्छी रचना। दिल को छूने वाली।
जो महसूस किया लिखा।
राशेल कार्सन की मशहूर कृति
जवाब देंहटाएंखामोश वसंत की याद आ गयी
और भोपाल दुर्घटना पर जनसत्ता में लिखा
मेरा लेख -अब नहीं लौटेगा बसंत इस शहर में
की भी ....शुक्रिया !
वसंत, आसमान की धूप, चांदनी सब बेमानी हो गये हैं सदी के विश्वासघात के शिकार लोगों के लिये। कविता को उनके साथ खडा रहना होगा।
जवाब देंहटाएंbahut sunadar rachna,
जवाब देंहटाएंbahut khoob likha aapne!
आश्चर्य मत करना देखकर
जवाब देंहटाएंवहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
वाह, बेहद ख़ूबसूरत भाव !
सही मुद्दे को लेकर आपने बहुत ही सुंदर लिखा है! बहुत दुःख होता है इन सब घटनाओं को देखकर और सबसे ज़्यादा तकलीफ होती है उन मासूम लोगों के लिए जिनकी जान चली गई और उससे भी ज़्यादा दुःख पहुँचता है बचे हुए लोगों की हालत को देखकर!
जवाब देंहटाएंआश्चर्य मत करना देखकर
वहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ..
अति उत्तम पंक्तियाँ! इस उम्दा रचना के लिए बधाई!
नन्हे नन्हे पौधों की कमज़ोर रगों में
जवाब देंहटाएंइतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी !
हर शब्द परम सत्य की ओर इंगित करता हुआ, उस समय पर जिन नवजात शिशुओं का जन्म हुआ वह आज भी इसकी पीड़ा को भोग रहे हैं, और जब तक उनकी सांसे रहेंगी वह इस कष्ट से शायद ही मुक्ति पा सकें, बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
मन को छूती कविता !
जवाब देंहटाएंमन भारी हो गया, क्या कहें।
जवाब देंहटाएं--------
अदभुत है हमारा शरीर।
अंधविश्वास से जूझे बिना नारीवाद कैसे सफल होगा?
"आश्चर्य मत करना देखकर
जवाब देंहटाएंवहाँ निर्लज्ज से खड़े बरगदों को ।
अगवानी होगी तो बरगदों के हौसले भी तो टूटेंगे."
भावपूर्ण और सटीक कवता !
सच क्या कभी वसंत आ सकेगा,उन सबके जीवन में.....मन को आंदोलित कर गयी ये, रचना.
जवाब देंहटाएंएक फिल्म है "एरिन ब्रोकोविच'(जूलिया रोबर्ट्स का शानदार अभिनय है,शायद ऑस्कर भी मिला है,इस रोल के लिए).....जब भी देखती हूँ..भोपाल गैस पीड़ितों की याद आ जाती है,काश...हमारे यहाँ भी कोई 'एरिन ब्रोकोविच'पैदा हुई होती.
पौधों की आनेवाली नस्लें
जवाब देंहटाएंशायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह खिलखिलाते हुए
बहुत सटीक रचना. मार्मिक भी.
सचमुच बहुत बड़ी विपदा थी। मुझे याद है, हम सब लायब्रेरी में जम गए थे, ऍम आई सी के बारे में जानने के लिए और इसके उपचार के बारे में, क्योंकि तब तक हम डॉक्टरों को भी कुछ पता नही था ।
जवाब देंहटाएंआपने २५ साल पहले इतने अच्छे से एक मार्मिक रचना लिखी, ये आपकी सोच की परिपक्वता को पर्दर्शित करती है।
"आयातित ज़हर"...इस एक बिम्ब ने मानो सारी बात कह दी।
जवाब देंहटाएंयात्राओं में उलझा था....फुरसत मिलते ही आया हूँ। इस भयानक त्रासदि के पचीस साल बीत जाने पर मुझे नहीं लगता कहीं एक भी कैंडल जला होगा...क्योंकि मरने वाले ताज और नरिमन प्वाइंट के रहने वाले नहीं थे।
और पचीस साल पहले भी कविता में वही प्रवाह वही लय वही चोट देख कर मन अचरज से भर उठता है।
बहुत सटीक और सामयिक रचना!
जवाब देंहटाएंऊगते हुए
जवाब देंहटाएंनन्हे नन्हे पौधों की कमज़ोर रगों में
इतनी शक्ति शेष नहीं
कि वे सह सकें झोंका
तुम्हारी मन्द बयार का
पौधों की आनेवाली नस्लें
शायद अब न कर सकें
तुम्हारी अगवानी
पहले की तरह खिलखिलाते हुए
...............
सटीक और सामयिक