सोमवार, सितंबर 21, 2009

मैने तो ऎसी नारियाँ भी देखी है कि मर्द को बेच खाये

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें  -तीसरा दिन           

कात्यायनी की कविता पर द्विवेदी जी ने कहा “यहाँ स्त्री अभिव्यक्त नहीं हो रही है। अपितु वह पुरुष अभिव्यक्त हो रहा है जो अपने लिए एक खास औरत चाहता है। उसे स्त्री के जीवन से कोई मतलब नहीं है। वह अपने लिए स्त्री को उपकरण समझता है । शोभना चौरे जी ने कहा यह पुरुष के दोगलेपन को प्रकट करती है ।गिरीश पंकज जी कात्यायनी को जुझारू और सामाजिक परिवर्तन के लिये प्रतिबद्ध मानते हैं लेकिन इसके विपरीत अशोक कुमार पाण्डेय जी को अनामिका की कविता और इस कविता में मूल अंतर नज़र आया कि जहां अनामिका ने कविता रची है कात्यायनी ने गढी है। यह स्वाभाविक गुस्से या समर्थन की उपज नही लगती। राज भाटिया जी तो बेहद नाराज़ हैं वे कहते हैं पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ, कदापि नही, मैं तो ऎसा हरगिज नही सोचता, कविता पसंद आई, लेकिन सभी नारियां इतनी भी बेचारी नही कि पुरुषों को शर्मिंदा होना पडे, मैने तो ऎसी नारियाँ भी देखी है कि मर्द को बेच खाये लेकिन उनका मानना है सिर्फ़ नारी होने से कोई महान या कमजोर या दया का पात्र नही होता , नारी महान वो ही है जो महान काम करती है, वही पुजी जाती है, ओर मर्द भी बही महान है जो अच्छा काम करे । अपूर्व ने कहा “कात्यायनी की कविताएं वैसे भी मुझे ढ़ोंगी और हिपोक्रिट समाज के गाल पर तमाचा जैसी लगती हैं..वह समाज जिसका हिस्सा मैं भी हूँ..।“ डॉ. दराल का मानना है कविता में आक्रोश झलकता है, लेकिन आज की नारी इतनी दुर्बल नहीं है.। पारुल तो पढ़ने के बाद मन में उपजी खीज को चुपचाप पी लेना चाह्ती हैं उसे टिप्पणी कर के कम नही करना चाह्ती । बबली ने शिक्षा पर ज़ोर देते हुए कहा कि आजकल की औरते मर्दों से एक कदम आगे है! चाहे कोई भी काम हो औरते पीछे नहीं हटती और पूरे लगन के साथ उस काम को अंजाम देती हैं! एम.ए.शर्मा सेहर ने कहा ये कविता औरत को झकझोरतीहुयी कहती है - उठो पहचानो अपने आप को.... अपनी शक्ति को !
तो आज तीसरे दिन प्रस्तुत है युवा कवयित्री नीलेश रघुवंशी की यह चर्चित कविता “ हंडा "                                
                                                                    हंडा                                                                                          

एक पुराना और सुन्दर हंडा
भरा रहता जिसमे अनाज
कभी भरा जाता पानी 
भरे थे इससे पहले सपने

वह हंडा
एक युवती लाई अपने साथ दहेज में
देखती रही होगी रास्ते भर
उसमें घर का दरवाज़ा
बचपन उसमें अटाटूट भरा था
भरे थे तारों से डूबे हुए दिन

नहीं रही युवती 
नहीं रहे तारों से भरे दिन 
बच नही सके उमंग से भरे सपने
हंडा है आज भी
जीवित है उसमें
ससुराल और मायके का जीवन 
बची है उसमें अभी
जीने की गन्ध
बची है स्त्री की पुकार
दर्ज है उसमें 
किस तरह सहेजती रही वह घर

टूटे न कोई 
बिखरे न कोई 
बचे रह सकें मासूम सपने
इसी उधेड़बुन में 
सारे घर में लुढ़कता फिरता है हंडा      

-नीलेश रघुवंशी

17 टिप्‍पणियां:

  1. नीलेश की यह कविता समकालीन साहित्य की उपलब्धि मानी जानी चाहिये जिसमें औरत का पूरे सामाजिक आर्थिक परिवेश में स्थान तलाशने की जद्दोज़ेहद कविता के पूरे सौष्ठव में उपस्थित है।

    यहां कविता किसी मन्द्र स्वर की तरह शुरु होती है और अन्तिम पडाव आते आते बिल्कुल ऊंचाई पर पहुंच कर आपको व्यग्र कर देती है। यहां समर्थन-विरोध कुछ भी आरोपित नहीं है सब कविता के स्वाभाविक रूप में रचा बसा। यह गुण उन्हें अपनी पीढी के कविओं में विशिष्ट बनाता है।

    इस कविता को एक और बार पढाने के लिये आभार।

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  2. हंडे में नारी जीवन का सारा सारांश समेट कर रख दिया....अद्भुत भाव पैदा करती कविता...नीलेश जी का बहुत बहुत आभार...

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  3. शरद भाई,अब जमाना बदल गे भाई पहिली जैसे नई ये कड़हा,रहे के कनवा रहय सबे बेचा जाये, बहुत सुन्दर गोठ कथस गा मन ला मोहि डारे,

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  4. ग्रामीण संस्क्रती कि महिला के जीवन को दर्शाती सुन्दर कविता है |
    शहरी महिला का मायका अब मोबाईल में सिमट कर रह गया है |

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  5. टूटे न कोई
    बिखरे न कोई
    बचे रह सकें मासूम सपने
    इसी उधेड़बुन में
    सारे घर में लुढ़कता फिरता है हंडा । औरत के सच को दर्शाती ।आम औरत् तो उम्र भर यही करती आई है । अपवाद हो सकते हैं मगर यही औरत की पहचान है

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  6. वाह हंडे में ही पूरा नारीत्व उतार के रख दिया कविवर महोदय ने........

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  7. आपको नवरात्र की ढेर सारी शुभकामना। कामना है, आपकी सभी मनोकामना पूरी हो।

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  8. टूटे न कोई
    बिखरे न कोई
    बचे रह सकें मासूम सपने
    इसी उधेड़बुन में
    सारे घर में लुढ़कता फिरता है हंडा ।

    - नारी की नियति को दर्शाती पंक्तियाँ.आज का पुरुष उसके मासूम सपनों को साकार करने के लिए आगे आ रहा है. यह स्थिति के बदलाव हेतु सार्थक शुरुआत है.इस बदलाव में कुछ तेजी आनी चाहिए.

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  9. बहुत सुंदर भाव पुर्ण कविता, आप को ओर कवित्रि जी को हमारी सब की तरफ़ से नवरात्रों की शुभकामनाएँ!!
    धन्यवाद

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  10. बहुत मार्मिक,
    फिर भी धारदार कविता.
    मुझे तो यह प्रस्तुति कविता में
    बची हुई गंध जैसी प्रतीत हो रही है.
    =============================
    साभार
    डॉ.चन्द्रकुमार जैन

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  11. निवेदन है कि टैम्प्लेट का रुप बदलें. पढ़ते समय यह आँखों को बहुत तकलीफ देता है - कम से कम हमारे जैसे उम्र के व्यक्तियों के लिए... ऊपर का गद्य तो पढ़ने में ही नहीं आया.
    पढ़ने में सर्वोत्तम तो श्वेत पृष्ठभूमि पर काला अक्षर ही होता है. यदा कदा किसी लाइन या अक्षर को हाई लाइट भले ही करें, मगर पूरे पाठ को नहीं. कविता भी पढ़ते समय आँखों में चकाचौंध उत्पन्न कर रही है.

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  12. शरद जी,

    कविता हंडे में रचे बसे हुये संसार में स्त्री देहमुक्त हो अपने वुजूद को तलाशती विवश है। समय के पग पग पर रीत गये हंड़े से बिखरा है उसका अवशेष।

    एक प्रभावी कविता के लिये बधाईयाँ।

    शरद जी के लिये नीलेश जी की इतनी खूबसूरत कविता से परिचित कराने के लिये आभार।

    सादर,


    मुकेश कुमार तिवारी

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  13. hande men sab sama gaya, kavita men sab bha gaya, jindagi men shabda hi sab hai,vah nahin to kuchh nahin, jindagi ke sath sath kavita hai,usaki parachhai nahin.
    ese aur aage badhate chalen.
    VIJAYA.

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  14. ek behtareen rachana. nilesh kabile tareef. hamesha tumhari rachanaye prabhavit karti hai. shard behtar kam kar rahe ho.

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