रविवार, अगस्त 23, 2009
मास्क पहने आदमी से मैने पूछा कैसा लग रहा है ?
शुक्रवार, अगस्त 14, 2009
14 अगस्त 1947 की रात में लिखी शील की कविता
आज देश में नयी भोर है नयी भोर का समारोह है
कवि शील का जन्म 15 अगस्त 1914 ई. में कानपुर ज़िले के पाली गाँव में हुआ । शील जी सनेही स्कूल के कवि हैं वे आज़ादी के आन्दोलन में कई बार जेल गये । गान्धीजी के प्रभाव मे “चर्खाशाला” लम्बी कविता लिखी । व्यक्तिगत सत्याग्रह से मतभेद होने के कारण गान्धी का मार्ग छोड़ा तथा भारतीय कम्यूनिस्टपार्टी में शामिल हुए । “मज़दूर की झोपड़ी” कविता रेडियो पर पढ़ने के कारण लखनऊ रेडियो की नौकरी छोड़नी पड़ी ।चर्खाशाला,अंगड़ाई,एक पग, उदय पथ,लावा और फूल , कर्मवाची शब्द आपकी काव्य रचनायें है तथा तीन दिन तीन घर,किसान,हवा कारुख,नदी और आदमी,रिहर्सल,रोशनी के फूल,पोस्टर चिपकाओ आदि आपके नाटक हैं ।उनके कई नाटकों को पृथ्वी थियेटर द्वारा खेला गया यहाँ तक कि रशिया में भी उनके शो हुए तथा राजकपूर ने उनमें अभिनय किया । यह कविता उन्होने 14 अगस्त 1947 की रात को लिखी थी जिसे ठीक 62 वर्ष बाद उसी समय मै यहाँ ब्लॉग पर उतार रहा हूँ ।-- शरद कोकास
15 अगस्त 1947
आज देश मे नयी भोर है-
नयी भोर का समारोह है
आज सिन्धु-गर्वित प्राणों में
उमड़ रहा उत्साह
मचल रहा है
नये सृजन के लक्ष्य बिन्दु पर
कवि के मुक्त छन्द-चरणों का
एक नया इतिहास ।
आज देश ने ली स्वंत्रतता
आज गगन मुस्काया ।
आज हिमालय हिला
पवन पुलके
सुनहली प्यारी-प्यारी धूप ।
आज देश की मिट्टी में बल
उर्वर साहस-
आज देश के कण कण
ने ली
स्वतंत्रता की साँस ।
युग-युग के अवढर योगी की
टूटी आज समाधि
आज देश की आत्मा बदली
न्याय नीति संस्कृति शासन पर
चल न सकेंगे-
अब धूमायित-कलुषित पर संकेत
एकत्रित अब कर न सकेंगे ,श्रम का सोना
अर्थ व्यूह रचना के स्वामी
पूंजी के रथ जोत ।
आज यूनियन जैक नहीं
अब है राष्ट्रीय निशान
लहराओ फहराओ इसको
पूजो-पूजो- पूजो इसको
यह बलिदानों की श्रद्धा है
यह अपमानों का प्रतिशोध
कोटि-कोटि सृष्टा बन्धुओं को
यह सुहाग सिन्दूर ।
यह स्वतंत्रता के संगर का पहला अस्त्र अमोध
आज देश जय-घोष कर रहा
महलों से बाँसों की छत पर नयी चेतना आई
स्वतंत्रता के प्रथम सूर्य का है अभिनंदन-वन्दन
अब न देश फूटी आँखों भी देखेगा जन-क्रन्दन
अब न भूख का ज्वार-ज्वार में लाशें
लाशों में स्वर्ण के निर्मित होंगे गेह
अब ना देश में चल पायेगा लोहू का व्यापार
आज शहीदों की मज़ार पर
स्वतंत्रता के फूल चढ़ाकर कौल करो
दास-देश के कौतुक –करकट को बुहार कर
कौल करो ।
आज देश में नयी भोर है
नयी भोर का समारोह है ।
(रात्रि 14 अगस्त 1947 )
शनिवार, अगस्त 08, 2009
माँ नहीं कर पायेगी अमेरिका के अफगान हमले का ज़िक्र
8 अगस्त 2001 मेरी ज़िन्दगी का एक ऐसा दिन है जिसे मेरे स्मृति पटल से कोई नहीं मिटा सकता । इस दिन माँ हमे छोड़ कर चली गई थी । यह जीवन का एक ऐसा सत्य है जो एक हर एक के जीवन में घटित होता है और हम अपनी आखरी साँस तक उस घटना की तारीख को याद रखते हैं । जन्म-मृत्यु , शादी-ब्याह ,सुख-दुख ,बीमारी, आदि की तिथियों को याद रखने का हमारा अपना तरीका होता है । आज हमारे पास केलेण्डर,कम्प्यूटर जैसी आधुनिक सुविधायें हैं लेकिन पहले के लोगों के पास उनके अपने तरीके थे. जैसे फलाने की शादी तब हुई थी जब फलाने के घर बेटा हुआ था ,या अकाल उस साल पड़ा था ,या पार्टीशन तब हुआ था जब मुन्ना गोद में था । पारिवारिक घटनाओं की तिथियों के सामाजिक सरोकार भी होते थे । हमारे इतिहास के निर्माण में इस परम्परा का भी योगदान है । माँ की स्मृति को इसी परम्परा के साथ जोड़ते हुए यह कविता मैने 2001 में लिखी थी । आज उनकी पुण्य तिथि पर उनके पुण्य स्मरण के साथ प्रस्तुत कर रहा हूँ – शरद कोकास
याद
माँ जिस तरह याद रखती थी तारीखें
वैसे कहाँ याद रखता है कोई
माँ कहती थी
जिस साल देश आज़ाद हुआ
उस साल तुम्हारे नाना गुजरे थे
हम समझ जाते
वह सन उन्नीस सौ सैंतालीस रहा होगा
माँ बताती थी
जिस साल पाकिस्तान से लड़ाई हुई थी
उसी बरस तुम्हारे बाबा स्वर्ग सिधारे थे
हम समझ जाते
वह सन उन्नीस सौ पैंसठ रहा होगा
माँ कभी नहीं कर पायेगी
अमेरिका के अफ़गान हमले काज़िक्र
हम याद करेंगे
जिस साल ऐसा हुआ था
उस साल माँ नहीं रही थी
मुश्किल नहीं होगा समझना
वह सन दो हज़ार एक रहा होगा ।
-- शरद कोकास
सोमवार, अगस्त 03, 2009
रामकुमार तिवारी की कविता
उनके दो कविता संग्रह प्रकाशित हैं.
नवीन सागर पर केन्द्रित "कथादेश" के विशेषांक के वे अतिथि सम्पादक रहे हैं.
जीवन के सौन्दर्य और मनुष्य की जिजीविषा में उनकी आस्था है .
उनकी कविताओं के चाक्षुस दृष्य शब्दों के अर्थ को नया विस्तार देते हैं.
प्रस्तुत है उनकी कविता..
ठीक ठीक कितने वर्ष का था
धरती की आयु के बारे में सोचता
सडक पर जा रहा था
सडक से हटकर कुछ ही दूरी पर
सत्तर की आयु का एक बूढा
बही-कटी धरती को देखता
चल रहा था
पेड काटते आदमी से आयु पूछी
पेड की आयु पता नहीं चली
चहकती फुदकती चिडिया की आयु का प्रश्न उठे
इससे पहले वह उड गई
भुतहे कुओं में
डरते-डरते झाँका और
उसकी आयु के बारे में सोचता-सोचता
दूर निकल गया
नदी से उसकी आयु पूछना भूल
रेत से भरे ट्रक में बैठकर
शहर आ गया
शहर की आयु पूछी तो
कारखाने की आयु पता चली
सुस्ताने के लिये बाग में गया
बाग़ में प्रेम करते स्त्री-पुरुष ने
गुलाब के दो फूल तोडे
प्रेम और फूल की आयु के बारे में सोचता हुआ
बाग से निकल गया ...
- रामकुमार तिवारी
(कविता वसुधा अक्तू.1996 से तथा दृष्य गूगल से साभार - शरद कोकास )