नरेश चंद्रकर घुमक्कड़ किस्म के कवि हैं. गोआ,आसाम,,हैदराबाद,हिमाचल प्रदेश,जाने कहाँ कहाँ रह चुके हैं.वर्तमान में बड़ॊदा में हैं. वे भटकते हुए भी कविता खोज लाते हैंउनके दो कविता संग्रह हैं“बातचीत की उड़ती धूल में ” और“बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी“ यह कविता उनके इस दूसरे संग्रह से. जल,स्त्री और पृक्रति के प्रति चिंता को एक जाने पहचाने बिम्ब के माध्यम से अभिव्यक्त कर रहे है नरेश चंद्रकर
जल
जल से भरी प्लास्टिक की गगरी छलकती थी बार बार
पर वह जो माथे पर सम्भाले थी उसे
न सुन्दर गुंथी वेणी थी उसकी
न घने काले केश
पर जल से भरी पूरी गगरी सम्भाले वह पृथ्वी का एक मिथक बिम्ब थी
जल से भरी पूरी गगरी सहित वह सड़क पर चलती थी
नग्न नर्म पैर
गरदन की मुलायम नसों में भार उठा सकने का हुनर साफ झलकता था
बार बार छलकते जल को नष्ट होने से बचाती
सरकारी नल से घर का दसवाँ फेरा पूरा करती वह युवती दिखी
मै प्रेम पर कविता लिखना चाहता था ..पानी पर भी... और स्त्री पर भी ॥ग्रीष्म की रातों में नींद अक्सर उचट जाती है.. हलक सूख जाता है प्यास के मारे ..लेकिन स्वप्न तो हर स्थिति में आते हैं पानी के स्वप्न और स्त्री के स्वप्न .. स्वप्न में पानी और पानी मे स्त्री और स्त्री में प्रेम सब गडमड हो जाता है ॥ शायद इसीका विस्तार है शरद कोकास की यह कविता
पानी हो तुम
यह प्यास का आतंक है या निजता का विस्तार
दिवास्वप्नों में तुम्हारा स्त्री से पानी बन जाना
नदी बनकर बहना अपनी तरलता में
दुनिया भर की प्यास बुझाते हुए
अंतत: समा जाना सागर में
जरुरी नहीं जो रुपक स्वप्न में संभव दिखाई दें
सच अपनी सफेदी में उन्हे धब्बे की तरह न देखे
इसलिए प्रकृति में सब कुछ जहाँ अपने विकल्प में मौजूद है
एक बेहूदा खयाल होगा तुम्हारा स्त्री से नदी हो जाना