1989 में लिखी युवा आक्रोश की एक और कविता
54 अभिलेख
हम नहीं देख सकते
हमारे माथे पर खुदा अभिलेख
नोंचकर फेंक आये हैं हम
अपनी आँखें
इच्छाओं की अन्धी खोह में
हम कोशिश में हैं
हथेलियों को आँख बनाने की
हमारे माथे पर नहीं लिखा है
कि हम अपराधी हैं
उन अपराधों के
जो हमने किये ही नहीं
नहीं लिखा है किसी किताब में
कि जीना अपराध है
फिर भी
हाथों में छाले
और पेट में
रोटी का वैध स्वप्न पाले
हम सज़ा काटने को विवश हैं
जन्म के अपराध की
जन्म के औचित्य को लेकर
कोई भी प्रश्न करना व्यर्थ है
सीखचों से बाहर हैं
हमारे अस्तित्व पर
चिंता करने वाले लोग
जो ठंडी साँसों में
फरेब का गोन्द लगाकर
हमारे माथे पर चिपका देते हैं
परम्परिक दर्शन
कि ज़िन्दगी एक सज़ा है
हम भी अपना मन बहला लेते हैं
खुद को उच्च श्रेणि का कैदी मानकर ।
शरद
कोकास
कितना मन छटपटाता है, मुक्त होने के लिये।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद प्रवीण
हटाएंसर्वहारा वर्ग के प्रति गज़ब की शब्दांजलि है!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद देवेन्द्र जी ।
हटाएंअसल में जो आम आदमी है वह यही है । उसकी यही नियति है ।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद गिरिजा जी
हटाएंहाथों में छाले
जवाब देंहटाएंऔर पेट में
रोटी का वैध स्वप्न पाले
हम सज़ा काटने को विवश हैं
जन्म के अपराध की ।
आह ।
धन्यवाद आशा जी
हटाएंbahut badhiya. maza aa gaya padhkar
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
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