जब भी टी वी पर हम किसी शहर में बाढ़ , आगजनी , सुनामी ,तूफान या भूकम्प के दृश्य देखते हैं तो स्वाभाविक रूप से यह खयाल मन में आता है कि कभी हमारे शहर के साथ भी तो ऐसा हो सकता है , फिर भी हम अपनी ओर से पर्यावरण को बचाने की कोई कोशिश नहीं करते , बस सोचते हैं और डरते रहते हैं या यह मान लेते हैं कि मनुष्य ने ही कुछ बुरे काम किये होंगे । इसी विचार पर 1989 में लिखी यह कविता
55 यह भय व्यर्थ नहीं है
कितना आसान है
किसी ऐसे शहर के बारे में सोचना
जो दफन हो गया हो
पूरा का पूरा ज़मीन के भीतर
पुराणों के शेषनाग के हिलने से सही
या डूब गया हो गले तक
बाढ़ के पानी में
इन्द्र के प्रकोप से ही सही
या भाग रहा हो आधी रात को
साँस लेने के लिये
चिमनी से निकलने वाले
दंतकथाओं के दैत्य से डरकर ही सही
ढूँढ लो किसी जर्जर पोथी में
लिखा हुआ मिल जायेगा
पृथ्वि जल वायु और आकाश
समस्त प्राणियों की सामूहिक सम्पत्ति है
जिससे हम
अपना हिस्सा चुराकर
अपने शहर में स्टीरियो पर
पर्यावरण के गीत सुनते
आँखें मून्दे पड़े हैं
वहीं कहीं प्रदूषित महासागरों का नमक
चुपचाप प्रवेश कर रहा है हमारे रक्त में
आधुनिकता की अन्धी कुल्हाड़ी से
बेआवाज़ कट रहा है
हमारे शरीर का एक एक भाग
सूखा बाढ़ उमस और घुटन
चमकदार कागज़ों में लपेटकर देने चले हैं हम
आनेवाली पीढ़ी को
हवा में गूंज रही हैं
चेतावनी की सीटियाँ
दूरदर्शन के पर्दे से बाहर आ रहे हैं
उन शहरों के वीभत्स दृश्य
हमारे खोखले आशावाद की जडॆं काटता हुआ
हमे डरा रहा है एक विचार
कल ऐसा ही कुछ
हमारे शहर के साथ भी हो सकता है
यह भय व्यर्थ नहीं है ।
शरद
कोकास