मंगलवार, अगस्त 28, 2012

1989 की कवितायें - यह भय व्यर्थ नहीं है

जब भी टी वी पर हम किसी शहर में बाढ़ , आगजनी , सुनामी ,तूफान या भूकम्प के दृश्य देखते  हैं  तो स्वाभाविक रूप से यह खयाल मन में आता है कि कभी हमारे शहर के साथ भी तो ऐसा हो सकता है , फिर भी हम अपनी ओर से पर्यावरण को बचाने की कोई कोशिश नहीं करते , बस सोचते हैं और डरते रहते हैं या यह मान लेते हैं कि मनुष्य ने ही कुछ बुरे काम किये होंगे । इसी विचार पर 1989 में लिखी यह कविता


55 यह भय व्यर्थ नहीं है

कितना आसान है
किसी ऐसे शहर के बारे में सोचना
जो दफन हो गया हो
पूरा का पूरा ज़मीन के भीतर
पुराणों के शेषनाग के हिलने से सही
या डूब गया हो गले तक
बाढ़ के पानी में
इन्द्र के प्रकोप से ही सही
या भाग रहा हो आधी रात को
साँस लेने के लिये
चिमनी से निकलने वाले
दंतकथाओं के दैत्य से डरकर ही सही

ढूँढ लो किसी जर्जर पोथी में
लिखा हुआ मिल जायेगा
पृथ्वि जल वायु और आकाश
समस्त प्राणियों की सामूहिक सम्पत्ति है
जिससे हम
अपना हिस्सा चुराकर
अपने शहर में स्टीरियो पर
पर्यावरण के गीत सुनते
आँखें मून्दे पड़े  हैं

वहीं कहीं प्रदूषित महासागरों का नमक
चुपचाप प्रवेश कर रहा है हमारे रक्त में
आधुनिकता की अन्धी कुल्हाड़ी से
बेआवाज़ कट रहा है
हमारे शरीर का एक एक भाग
सूखा बाढ़ उमस और घुटन
चमकदार कागज़ों में लपेटकर देने चले हैं हम
आनेवाली पीढ़ी को

हवा में गूंज रही हैं
चेतावनी की सीटियाँ
दूरदर्शन के पर्दे से बाहर आ रहे हैं
उन शहरों के वीभत्स दृश्य

हमारे खोखले आशावाद की जडॆं काटता हुआ
हमे डरा रहा है एक विचार
कल ऐसा ही कुछ
हमारे शहर के साथ भी हो सकता है

यह भय व्यर्थ नहीं है ।

                        शरद कोकास    

मंगलवार, अगस्त 07, 2012

1989 की कवितायें - अभिलेख

1989 में लिखी युवा आक्रोश की एक और कविता


54 अभिलेख

हम नहीं देख सकते
हमारे माथे पर खुदा अभिलेख
नोंचकर फेंक आये हैं हम
अपनी आँखें
इच्छाओं की अन्धी खोह में
हम कोशिश में हैं
हथेलियों को आँख बनाने की

हमारे माथे पर नहीं लिखा है
कि हम अपराधी हैं
उन अपराधों के
जो हमने किये ही नहीं
नहीं लिखा है किसी किताब में
कि जीना अपराध है
फिर भी
हाथों में छाले
और पेट में
रोटी का वैध स्वप्न पाले
हम सज़ा काटने को विवश हैं
जन्म के अपराध की

जन्म के औचित्य को लेकर
कोई भी प्रश्न करना व्यर्थ है
सीखचों  से बाहर हैं
हमारे अस्तित्व पर
चिंता करने वाले लोग
जो ठंडी साँसों में
फरेब का गोन्द लगाकर
हमारे माथे पर चिपका देते हैं
परम्परिक दर्शन
कि ज़िन्दगी एक सज़ा है
हम भी अपना मन बहला लेते हैं
खुद को उच्च श्रेणि का कैदी मानकर ।
                        शरद कोकास   

सोमवार, अगस्त 06, 2012

1989 की कवितायें - गिद्ध जानते हैं

इससे पहले सूरज के बिम्ब को लेकर एक कविता आपने पढ़ी थी " सूरज को फाँसी "  जिसमें मैंने सूरज का बिम्ब कवि बेंजामिन मोलाइस के लिये इस्तेमाल किया था । ठीक इसके विलोम में इस कविता में यह सूरज हमारा शोषक है जिसकी ओर हम आशा भरी निगाहों से देखते हैं और गिद्ध उसके और हमारे बीच के बिचौलिये .. । उम्मीद है यह कविता ठीक ठीक आप तक सम्प्रेषित होगी ।


53. गिद्ध जानते हैं

मुर्गे की बाँग से
निकलता हुआ सूरज
चूल्हे की आग से गुजरते हुए
बन्द हो जाता है
एल्यूमिनियम के टिफिन में
बाँटकर भरपूर प्रकाश
जीने के लिये ज़रूरी उष्मा
तकिये के पास रखकर
जिजीविषा के फूल
छोड़ जाता है
कल फिर आने का स्वप्न

यह शाश्वत सूरज
उस सूरज से भिन्न है
जो ऊगता है कभी-कभार
झोपडपट्टी को
महलों में तब्दील करने की
खोखली गर्माहट लिये हुए

भर लेता है वह
अपने पेट में
मुर्गे की बाँग क्या
समूचा मुर्गा ही
और चूल्हे की आग
रोटी का स्वप्न
नींद का चैन तक

वह छोड़ जाता है अपने पीछे
उसे आकाश की ऊँचाई तक पहुँचाने वाले गिद्धों को
जो जानते हैं
सूरज के संरक्षण में
जिस्मों से ही नहीं
कंकालों से भी
माँस नोचा जा सकता है ।

                        शरद कोकास