रविवार, जनवरी 29, 2012

1987 की कवितायें - महाराष्ट्र में मेरा बचपन बीता है । दलित आन्दोलन को वहाँ मैंने बहुत करीब से देखा था । मेरे कई दलित मित्रों के  साथ मैंने दलित साहित्य भी पढ़ा था और उस छटपटाहट को महसूस किया था जो ऐसे घुटन भरे वातावरण में रहने से होती है । इतिहास का तो मैं विद्यार्थी था ही । उस दौर में जब आज़ादी से प्राप्त सारे सपने चूर चूर हो चुके थे और कहीं कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा था सिवाय आन्दोलन के और कोई चारा नहीं था । मराठी दलित साहित्य के प्रभाव में कुछ कवितायें मैंने रची थीं जिन्हे बाद में सुश्री रमणिका गुप्ता ने " युद्धरत आम आदमी " के दलित साहित्य विशेषांक में प्रकाशित किया । इन कविताओं में भाषा के उस तेवर को आप देख सकते हैं , जिसमें साहित्य की उस मध्यवर्गीय भाषा के प्रति एक विद्रोह भी था ।


 इतिहास की प्रसव वेदना

बहुत दे चुके गालियाँ हम व्यवस्था को
और सो चुके उसकी माँ बहनों के साथ
व्यवस्था अभी तक ज़िन्दा है
एक अभेद्य कवच के भीतर
अपनी आँखों में एक सपना
और दिल में
आहत होने का दर्द लिये हम
अभी तक बाहर हैं
व्यवस्था की
चयन प्रक्रिया की परिधि से
व्यवस्था ने चुन चुन कर
हमारे बीच से
कुछ सफेद पोशों को
बसा लिया है अपने हरम में
उनसे पैदा नाजायज़ औलादों को
पालने की  ज़िम्मेदारी
सौंप दी है हम सबको
हम दूध की जगह पिला रहे हैं
उन्हें अपना खून
बच्चो के मुँह से छीन कर निवाला
भर रहे हैं उनका पेट
हम भूल चुके हैं यह तथ्य
साँप का बच्चा
दूध पीने की बावज़ूद
बड़ा होकर दूध नही ज़हर उगलता है

दोस्तों आन्दोलन कोई रतिक्रिया नही है
यह तो उसके बाद की प्रक्रिया है
जब दिमागों में पलते हैं विचार
भ्रूण की तरह
और जन्म लेती है एक नई व्यवस्था

दोस्त अभी तो अत्याचार और उठेंगे
पेट में दर्द की तरह
यह घबराने का वक्त नहीं है
यह इतिहास की प्रसव वेदना है । 

15 टिप्‍पणियां:

  1. अत्याचारों का स्तर तो बढ़ता ही जा रहा है....लूटे तो अभी भी जा रहे हैं हम...हर तरह से..

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  2. यह इतिहास की 'प्रसव वेदना' है। 'प्रसव' है कि होने का नाम ही नहीं ले रहा!

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  3. दोस्तों आन्दोलन कोई रतिक्रिया नही है
    यह तो उसके बाद की प्रक्रिया है
    जब दिमागों में पलते हैं विचार
    भ्रूण की तरह
    और जन्म लेती है एक नई व्यवस्था
    क्या बात है शरद जी. शानदार.

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  4. atyaachar jaree rahenge aur uske muqabale khadee rahegee kavitaa bhi achchhi vichar-kavitaa ke liye badhai..

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    1. धन्यवाद गिरीश भाई , इस तेवर की रचनायें तो आपने पहले भी मुझसे सुनी हैं ।

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  5. आज भी हम व्यवस्था को ही गाली दे रहे हैं....बकौल दुष्यंत-

    वे मुतमइन है कि पत्थर पिघल नहीं सकता
    मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए

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  6. दोस्त अभी तो अत्याचार और उठेंगे
    पेट में दर्द की तरह
    यह घबराने का वक्त नहीं है
    यह इतिहास की प्रसव वेदना है ।

    ऐसी कितनी प्रसव वेदना झेलकर ही इतिहास बनता है..

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  7. दोस्त अभी तो अत्याचार और उठेंगे
    पेट में दर्द की तरह
    यह घबराने का वक्त नहीं है
    यह इतिहास की प्रसव वेदना है ।
    ......vywastha ki varshon se jami jadon ko ukhad fenkne ke liye khatare to uthane hi padte hain..
    bahut badiya prerak prastuti..

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  8. ..रतिक्रिया के बाद ...तो स्थिरता होती है जुड़ाव होता है ...पर उससे पहले उसकी पृष्ठभूमि होती है ..उसकी अवहेलना ...शायद सही नही है ..है न ?

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  9. दोस्तों आन्दोलन कोई रतिक्रिया नही है
    यह तो उसके बाद की प्रक्रिया है
    जब दिमागों में पलते हैं विचार
    भ्रूण की तरह
    और जन्म लेती है एक नई व्यवस्था

    व्यवस्था से बाहर निकल कर एक नई व्यवस्था बनाने की छटपटाहट ।

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