सबा अंजुम जब नन्ही सी थी जब वह हमारे घर के सामने से केलाबाड़ी स्थित सुराना कॉलेज के पीछे वाले मैदान में हॉकी खेलने जाया करती थी । उसके कोच तनवीर अक़ील अपने साथ मोहल्ले के तमाम लड़के लड़कियों को लेकर सुबह सुबह मैदान में पहुँच जाते और लगभग नौ बजे तक वे खिलाड़ियों से प्रैक्टिस करवाते । उन बच्चों को देखकर लगता ही नहीं था कि दुर्ग जैसे एक छोटे से शहर के मोहल्ले की टीम की तरह खेलने वाले इन्ही बच्चों में भविष्य की भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान भी हो सकती है ।
छठवीं कक्षा में वह मोहल्ले के हिन्दी माध्यम के शासकीय आदर्श कन्या शाला में भरती हो गई । उसके बाद वह आगे ही बढ़ती गई । जब भी वह अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी टीम के साथ स्वर्ण पदक लेकर लौटती उसका स्वागत बहुत ज़ोर शोर से होता । हम लोगों के लिए तो वह मोहल्ले की बेटी ही है और उसकी शिक्षिका श्रीमती लता कोकास के लिये एक प्रिय छात्रा । वह विदेश से लौटती तो मोहल्ले भर में सारे लोगों से मिलती । हमारे घर भी आती । ऐसे ही एक बार उसके लिए मैंने यह कविता लिखी थी सन 2002 में , दर असल सिर्फ उसके लिये नहीं बल्कि उसके जैसी तमाम बेटियों के लिये जिनमें प्रतिभा तो होती है लेकिन इस समाज में वह प्रतिभा परवान नहीं चढ़ पाती । आज उसके भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान बनने पर उसकी टीचर लता कोकास के आग्रह पर यह कविता …
स्वण॔पदक जीत कर लाने वाली बेटियाँ
घर में उसका आना
आने से पहले जाने में नहीं हो सका
इसलिए होने में रह गया
अपने होने में वह उसी तरह बड़ी हुई
जैसे कि और लड़कियाँ बड़ी होती हैं
अब वह बड़ी हुई तो घर से निकली
स्कूल से निकली
खेल के मैदान से निकली
और जब देश से निकली
तो स्वण॔पदक लेकर ही घर लौटी
यह पूरा चक्र उसके पिता के चेहरे पर
इस अभिमान से स्थापित हुआ
वहाँ अपने आप के लिए धिक्कार था
और यह चक्र जो उसके पीछे
ठीक प्रभामंडल की तरह दिखाई देता था
उसके मित्र सहपाठी गुरुजन पड़ोसी
सभी के लिए गर्व का मुखौटा बन गया
और छोटे शहर के अखबारों के लिए
जहाँ एक छोटी सी खबर भी
बहुत दिनों तक बिका करती थी
यह सब कुछ एक बम्पर ऑफर की तरह ही था
जैसा कि उसके छोटे शहर में घट रहा था
अपनी स्थानीयता में एक उपलब्धि लिये
देश के कुछ और शहरों में घट रहा था
ऐसा इसलिये कि वह ऐसे खेल में नहीं थी
जिसमें कोई राष्ट्रीय किस्म का पागलपन शामिल हो
और युद्ध से लेकर चुनावों तक
जिसके अंतर्राष्ट्रीय उपयोग की संभावना हो
बस यहीं तक कहानी है
और भविष्य के बखान में साधारणीकरण का खतरा है
फिर भी कथ्य के निर्वाह के लिये
यह बतलाना ज़रूरी है
कि यह दहलीज़ उसकी अंतिम दहलीज़ नहीं थी
या कि वह इस दहलीज़ से निकली तो
फिर दूसरी से नहीं निकल पाई
कोई उल्लेखनीय गोल भी नहीं कर पाई
और उसने जीवन भर सहे अत्याचार
इस समाज रूपी रेफरी के इशारों पर
वह चलती रही उसके जैसी अन्य बेटियों की तरह
भारतीय महिला हॉकी टीम |
धीरे धीरे तब्दील होती गई
माँ ,चाची .फूफी और दादी में
खेल भावना से सहती रही जीवन भर हार
लड़ती रही पुरुष के पारम्परिक दम्भ से
जिनके गिरने में ही उसका उठना और
उठने में गिर जाना था
और हौसला सिर्फ बच्चों को समझाने लायक शेष था
फिर कोई ग्लैमर नहीं रहा ज़िन्दगी में
सोने से कीमती औरतपन की कोई कीमत नहीं रही
पदक पुरस्कार ममता के तराजू पर तौले जाते रहे
जीवन भर चलती रही ज़द्दोज़हद
एक अच्छी बहू अच्छी पत्नी अच्छी माँ का
प्रमाणपत्र पाने के लिये ।
- शरद कोकास
( समाचार , अखबार नई दुनिया रायपुर से साभार )
( समाचार , अखबार नई दुनिया रायपुर से साभार )