कल शाम बारिश हो रही थी ... लगातार एक सुर में ... चारोँ ओर एक खामोशी सी छाई थी ... अचानक मोबाइल पर एक सन्देश आया .. कैसी बारिश है यह ..ऐसा लगता है जैसे कोई बिना आवाज़ रो रहा है । मन अचानक कई कई बरस पीछे लौट गया । याद आया ऐसे ही दिन थे वे जब मैं बेहद उदास था । उन दिनों मैने उदासी पर कुछ कवितायें लिखी थीं ..और उदासी पर कवितायें लिखने के बाद मेरी उदासी दूर हो गई थी । हो सकता है इन्हे पढ़ने के बाद आपकी उदासी दूर हो जाये और बारिश की बूँदों के संग बह जाये ....
जो लोग रंगकर्म से जुड़े हैं वे इस बात को बहुत अच्छी तरह जानते हैं कि नाटक में अभिनय के लिये स्त्री पात्र जुटाना कितना कठिन काम है । निर्देशक को बहुत नाक रगड़नी पड़ती है तब कहीं जाकर नाटक में काम करने के लिये कोई लड़की मिल पाती है । इस पर भी नाटक छोड़ने के लिये उस लड़की पर इतने दबाव होते हैं , उस पर इतने पहरे बिठाये जाते हैं कि पूछो मत । हमारी मध्यवर्गीय मानसिकता अब भी कहाँ बदली है ..? हम अब भी सोचते हैं कि नाटक ( नौटंकी) भले घर के लोगों के लिये नहीं है ,हमारे घर की लड़की नाटक में काम करेगी तो बिगड़ जायेगी । लेकिन सच्चाई यह है कि हम भी कहीं न कहीं अपनी असल ज़िन्दगी में नाटक ही तो करते हैं । इस सोच को दृश्य रूप देती हुई नाटक श्रंखला की मेरी यह कविता आप सब के लिये ...
रश्मि जी के ब्लॉग 'अपनी ,उनकी, सबकी बातें 'पर जावेद अख़्तर साहब की एक खूबसूरत नज़्म " वो कमरा " पढ़ी । मुझे याद आई कुछ कवितायें जो कवियों ने कमरों पर लिखी है । अज्ञेय की एक कविता भी याद आई ..." वहाँ विदेशों में कई बार कई कमरे मैंने छोड़े हैं / जिन में छोड़ते समय/ लौटकर देखा है / कि सब कुछ /ज्यों का त्यों है न ?/यानि कि कहीं कोई छाप / बची तो नहीं रह गई है / जो मेरी है / जिसे कि अगला किरायेदार / ग़ैर समझे " ( अज्ञेय- विदेश में कमरे ) । फिर मुझे याद आया अपनी बैचलर लाइफ के दौरान ऐसी ही एक कविता मैंने भी लिखी थी । उस वक़्त न टी वी होता था न मोबाइल ,न ही एटीएम कार्ड ,सो जो कुछ होता था वह कविता में उपस्थित है । रश्मि जी के आग्रह पर वह अनगढ़ सी कविता यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ ।
किसी को स्वाभाविक व्यवहार से अलग व्यवहार करते हुए देख हम अनायास ही कह देते हैं " क्यों नाटक कर रहे हो यार ? " अगले व्यक्ति ने कभी ज़िन्दगी में कोई नाटक नहीं किया होता है । उसे पता ही नहीं होता अभिनय क्या है और नाटक क्या है फिर भी वह यह सब करता रहता है । अक्सर बाज़ार में किसी कार्यक्रम में ऐसे ही मित्र मिल जाते हैं सभीका ध्यान अपनी ओर आकर्षित करना जानते हैं । कुछ यह सायास करते हैं कुछ अनायास । बहरहाल ऐसे मित्र आपके भी होंगे देखिये इस कविता को पढ़कर किसी की याद आ जाये ...
नाटक
एक से हाथ मिलाकर
उसने कहा हलो
दूसरे से मिला गले
लगाया एक कहकहा
बच्चे को उठाया गोद में
प्यार से चूमकर बढ़ गया आगे
भाभी जी से की नमस्ते
दोस्त की पीठ पर जमाई धौल
शिकायत के लहजे में पूछा
कहाँ रहते हो आजकल
वह कहता रहा कुछ न कुछ
इसलिये कि कहने को बहुत कुछ था ( यह चित्र मेरे कवि मित्र हरिओम राजोरिया और
उनकी पत्नी सीमा का है । दोनो बहुत अच्छे वह कहता रहा कुछ न कुछ रंगकर्मी हैं और अशोकनगर म.प्र. में रहते हैं ,हाँ
इसलिये कि कहने को कुछ नहीं था कविता में जिस मित्र की विशेषता बताई गई है
रंगकर्म बहुत ही कठिन काम है , खासकर छोटे शहर में तो यह और भी कठिन । फिर भी बहुत से ऐसे रंगकर्मी हैं जो इसे जारी रखे हैं । हमारे शहर में भी ऐसी कुछ संस्थायें हैं जो नुक्कड़ नाटक से लेकर मंच तक लगातार सक्रिय हैं । हम लोग जब भी मिलते हैं कई तरह का रोना रोते हैं , जैसे आजकल कलाकार नहीं मिल रहे हैं , फिल्मों की ओर उनका रुझान बढ़ रहा है , जिसे देखो मुम्बई की टिकट कटा रहा है , आदि आदि । लेकिन क्या करें ,सब को रोजी- रोटी की ज़रूरत है , सबकी अपनी महत्वाकाँक्षा है । लाख परेशानियाँ आती हैं फिर भी नाटक है कि बन्द नहीं होता ... बस ऐसी ही कुछ परेशानियाँ , लंतरानिया , और यार दोस्तों की बातों को गूँथ दिया है कविताओं में , आप भी पढ़िये ....
रंगमंच – एक
रंगकर्मियों की शिकायत थी
नाटक नहीं लिखे जा रहे आजकल
निर्देशकों का कहना था
कलाकार जुटाना
अब पहले से ज़्यादा मुश्किल काम है
समीक्षकों के लिये
लगातार गिरता जा रहा था
कला का स्तर
प्रेस रिपोर्टर
हमेशा की तरह
जुटे थे काम में
इन बातों से बेखबर
कलाप्रेमियों को तसल्ली थी
चलो कुछ तो हो रहा है शहर में
चलो कुछ तो सुधर रहा है शहर ।
रंगमंच - दो
उसका नाटक हिट हुआ
उसने रेडियो स्टेशन का पता पूछा
उसका नाटक हिट हुआ
उसने दूरदर्शन पर पहचान बढ़ाई
उसका नाटक हिट हुआ
उसने बम्बई की टिकट कटा ली
लौटकर आया बरसों बाद
दोस्तों को याद दिलाई
फलाँ सीरियल में
फलाँ रोल था उसका
दोस्तों ने याद दिलाई
वो दिन भी क्या दिन थे
जब तुम्हारा नाटक हिट होने पर
कई कई दिनो तक
तुम ही तुम होते थे बातों में ।
रंगमंच – तीन
कुछ ने बजाई तालियाँ
कुछ ने कसे फिकरे
पर्दा उठा पर्दा गिरा
कुछ ने की तारीफ
कुछ ने की बुराई
पर्दा उठा पर्दा गिरा
कुछ ने गिनाये दोष
कुछ ने दिये सुझाव
पर्दा उठा पर्दा गिरा
कुछ ने छापी प्रशंसा
कुछ ने छापी आलोचना
पर्दा उठा पर्दा गिरा
कुछ ने की वाह
कुछ ने भरी आह
पर्दा उठा पर्दा गिरा
कुछ ने कहा बन्द करो
कुछ ने कहा जारी रखो
पर्दा उठा पर्दा उठा ।
--- शरद कोकास
( नाटकों के चित्र , मेरे मित्र व दुर्ग के प्रसिद्ध रंगकर्मी बालकृष्ण अय्यर के हिन्दी ब्लॉग माय एक्स्प्रेशन से साभार )