मंगलवार, अप्रैल 13, 2010

इस भीषण गर्मी में भी नौकरी करनी पड़ती है ?



कई साल पहले की बात है । ऐसे ही जब ग्रीष्म का आगमन हुआ एक दिन दफ्तर में एक मित्र से बात चल रही थी । वे कहने लगे  “ यार गर्मी के दिनों में दफ्तर जाना बहुत अखरता है ।“ मैने कहा “ क्या करोगे भाई नौकरी तो नौकरी है , करनी ही पड़ेगी । आखिर मौसम को भी प्रकृति के दफ्तर में अपनी नौकरी बजानी ही पड़ती है । “ बस इसी बात से उपजा विचार कुछ नये बिम्बों के साथ कविता में ढल गया । इन दिनों फिर गर्मी का मौसम है सो इस कविता की याद आ गई  , लीजिये आप भी पढ़िये ..पढ़कर अच्छा लगेगा । हाँ ,एक बात और , यह कविता समर्पित कर रहा हूँ उन तमाम मित्रों को जो इस भीषण गर्मी में भी नौकरी कर रहे हैं , इस दुआ के साथ कि उन्हे कुछ तो राहत मिले ।

        प्रक्रति के दफ्तर में 

कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
प्रकृति के दफ्तर में हो रहा है कार्य विभाजन
जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण   
अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा

नहीं टाला जा सकता ऊपर से आया आदेश
काम के घंटों में परिवर्तन ज़रूरी है
यह नई व्यवस्था की मांग है  
बरखा , बादल, धूप , ओस , चाँदनी
सब किसी न किसी के अधीनस्थ
बन्धी बन्धाई पालियों में
काम करने के आदी
कोई भी अप्रभावित नहीं हैं

हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
चान्दनी कोशिश में है
दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों

इधर शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में  
सबके कार्य तय करने वाला मौसम
खुद परेशान है तबादलों के इस मौसम में

खुश है तो बस रात
अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
वहशी निगाहों का सामना करते हुए
ओवरटाइम के बहाने देर रात तक

भोर , दुपहरी , साँझ, रात
सब के सब नये समीकरण की तलाश में
जैसे पुराने साहब की जगह
आ रहा हो कोई नया साहब ।

                        शरद कोकास

47 टिप्‍पणियां:

  1. खूब सूरत रचना है। एक श्रमजीवी इसी तरह से सोच सकता है।

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  2. हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
    धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
    चान्दनी कोशिश में है
    दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
    बेहतरीन बिम्ब, नूतनता है
    हवाओ की गर्मी को चान्दनी शांत कर सकेगी भला.
    बहुत खूब

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  3. बहुत खूब भाई...... इस गरमी में ड्यूटी बजा रहे हम सब परेशान हैं ... जब कि गर्मियों की तो अभी बस शुरुआत है. पता नहीं वहाँ क्या हाल है, यहाँ कलकत्ता में तो एक और मेहरबान है लोड शेडिंग.

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  4. भाई साहब हम जैसे फ़ील्ड में काम करने वालों की सोचिये…नाम में लगा अफ़सर कितना चुभता है इन दिनों!

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  5. खपसूरत कविता। यूनीक बिम्‍बों के साथ। प्रकृति की व्‍यवस्‍था की पोल खोलते।

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  6. मौसम के बदलते मिजाज़ पर सुन्दर रचना ।
    लेकिन शरद जी , अभी तो शुरुआत है । आगे आगे देखिये होता है क्या।

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  7. द्विवेदी जी के कमेन्ट को हमारा भी माना जाये

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  8. प्रकृति का मानवीकरण करती या कहिये आज के दफ्तरों की कार्यशैली की बखिया उधेड़ती बेहतरीन रचना ! प्रकृति के बिम्बों का बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया है आपने ! बधाई एवं शुभकामनायें !

    http://sudhinama.blogspot.com
    http://sadhanavaid.blogspot.com

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  9. वाकई काफी गर्मी है। क्यों और भड़का रहे हैं भाई।

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  10. हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
    धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
    चान्दनी कोशिश में है
    दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
    बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
    ---वाह! क्या खूब लिखा है! अंत भी बेहतरीन...
    जैसे पुराने साहब की जगह
    आ रहा हो कोई नया साहब ।

    --मौसम ने सबकुछ अस्तव्यस्त कर दिया है. सूरज ने आग और बिजली ने अंधेरों से दोस्ती कर ली है। कुछ दीवाने इसी में खुशी ढूँढ लेते हैं...आप लिख लेते हैं हम पढ़ लेते हैं।
    -बधाई।

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  11. पेट भरने के लिये आदमी गर्मी की परवाह कैसे कर सकता है । कविता अच्छी लगी । सुन्दर !!!

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  12. Maanveekaran alankaar ka albela-anootha sa prayog kar ek alag hi raag chheda hai aaj gurudev cum bade bhaia.

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  13. मौसम के बदलते मिजाज़ पर सुन्दर रचना ।

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  14. kya bat hai, ekdam satik bhai sahab.

    kya karein naukari hai to subah se lekar raat tak bajani padti hai apni bhi.....

    ;)

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  15. अभी गरमी का ये हाल है?आगे आगे क्या होगा?

    ***हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
    धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
    चान्दनी कोशिश में है
    दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
    बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
    :)

    बहुत खूब!
    'हवाओं की जेबें 'बहुत पसंद आया.

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  16. यह तो कवि और अपुन का भी भोगा हुआ यथार्थ लगे है

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  17. बहुत प्रभावी और सटीक रचना.

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  18. कविता के शव्‍द शव्‍द को भोग रहे हैं हम. धन्‍यवाद भईया.

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  19. वैसे गर्मी में भी काम एक अलग ही आनंद है। अच्छी रचना।

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  20. बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
    वे अपनी छुट्टी बढ़ा तो नहीं लेंगे :)

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  21. बहुत खूब !!!!!! शरद जी ! एकबार फिर लाजवाब ......मौसम भी आपकी कलम का मुरीद हुआ .

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  22. garmi ko bhi aapne muskurane ko badhya kar diya aur garmi se tarbatar logon ko sheetal hawa si lagi

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  23. bahut khoobji, yahi andaaz to aapka niraalaa he.. aour ham isi andaaz ke deevaane he.../
    खुश है तो बस रात
    अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
    वहशी निगाहों का सामना करते हुए
    ओवरटाइम के बहाने देर रात तक....
    mujhe to raat kaa yah pahar hi achha lagtaa he..kher..poori rachna..bemisaal he ji

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  24. ...सुन्दर रचना ... पढकर ठंडक पहुंच रही है, प्रसंशनीय!!!

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  25. सभी कहां इतने खुशनसीब होते हैं कि गर्मी से बच सकें.

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  26. शरद जी बहुत सुंदर लिखते हैं आप ! चाहे सटीक उपमान हो , तीखी भाषा हो या फिर चुभता हुआ व्यंग्य ! आप सिद्ध हस्त कवि हैं ! विद्रूपताओं को उभारते हुए इसी तरह लिखते रहें ! हमारी शुभ कामनाएं साथ हैं !

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  27. हवाओं की जेबें गर्म हो चली हैं
    धूप का मिज़ाज़ कुछ तेज़
    चान्दनी कोशिश में है
    दिमाग की ठंडक यथावत रखने की
    बादल, बारिश ,कोहरा छुट्टी पर हैं इन दिनों
    ...kash hamen bhi kabhi chhuti milti...
    भोर , दुपहरी , साँझ, रात सब के सब नये समीकरण की तलाश में
    जैसे पुराने साहब की जगह
    आ रहा हो कोई नया साहब ।
    ....Badi khoobsurti se aapne daftaron ka vastavik nazara prastuti kiya hai...
    aabhar

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  28. शरद जी , सार यहीं पर है
    भोर , दुपहरी , साँझ, रात
    सब के सब नये समीकरण की तलाश में
    जैसे पुराने साहब की जगह
    आ रहा हो कोई नया साहब ।
    सुन्दर रचना !!

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  29. सब के सब नये समीकरण की तलाश में
    जैसे पुराने साहब की जगह
    आ रहा हो कोई नया साहब ।
    सुन्दर रचना
    आपकी पोस्ट पढ़ कर ज्यादा गर्मी लगने लगी. जाने क्यों ये समीकरण और सिद्धांत बेमौके आड़े आ जाते हैं

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  30. इस कविता में ग्रीष्मचर्या का
    बहुत सुंदर
    वर्णन किया गया है!

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  31. बादल , कोहरा , बारिश , सब छुट्टी बढ़ा तो नहीं लेंगे ...
    मौसम के मिजाज़ तो ऐसे ही नजर आ रहे हैं ...

    वैसे सरकारी कार्यालयों में नजारा बदला होता है इन दिनों ...बाहर के तेज गर्मी से बचने के लिए कर कूलर और एयरकंडिशनर की हवा खाने का लालच मन मार कर सीट पर बैठने को मजबूर करता है और इस बहाने कुछ काम भी हो जाता है ...

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  32. कोहरा छुट्टी पर है इन दिनों...वाह ! प्रकृति का क्या खूब मानवीकरण किया है...! और अंत...बहुत अच्छा है.

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  33. शाम देर से आने लगी है ड्यूटी पर
    सुबह जल्दी आने की तैयारी में लगी है
    दोपहर को नींद आने लगी है दोपहर में
    सबके कार्य तय करने वाला मौसम
    खुद परेशान है तबादलों के इस मौसम में
    wah kya lines hain.. ham jaise din bhar kaam karne wale hi samajh sakte hain!!!

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  34. खुश है तो बस रात
    अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
    वहशी निगाहों का सामना करते हुए
    ओवरटाइम के बहाने देर रात तक

    BAHUT BADHIYA SHARAD BHAI

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  35. शरद भाई
    एक 'ऑफिस' को जीने की जद्दोजहद इस कविता में प्रतिविम्बित कर दी आपने........बहुत खूब...! फिर से पढने का मन कर रहा है......इस कविता को !खुश है तो बस रात
    अब उसे अकेले नहीं रुकना पड़ेगा
    वहशी निगाहों का सामना करते हुए
    ओवरटाइम के बहाने देर रात तक

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  36. apki rachna par dairy se pahuchne k liye mafi chaahti hu...kya karu suraj bhaiya k mijaj jara garam hai...aur hamare mizar bhi kyuki ham b to naukri wale hai..ek ek line apki rachna ki bahut bahut acchhi lagi. badhayi.

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  37. बहुत बढ़िया लिखा है आपने शरद जी! वाकई में इस साल सभी जगह पर अतिरिक्त गर्मी पड़ने पर सभी का हालत बहुत बुरा है! इतनी गर्मी में भी नौकरी करनी पड़ती है और मजदूरों को बहुत तकलीफ़ उठानी पड़ती है!

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  38. Behad anoothi kalpna...!In tippaniyonki qatar ke baad apni bolti band!

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  39. आप लिखते तो हमेशा ही बढ़िया हैं। स्तरीय लेखन को पढ़ने का अपना आनन्द है जो हम हमेशा पाते रहते हैं आप्के ब्लॉग पर। टिपियाते ज़रा कम हैं।
    आज इस अनूठी चाकरी में जोता आपने सूरज को और प्रकृति को - तो सोच की तारीफ़ किए बिना रह नहीं पाया।
    बधाई, एक बार फिर अच्छी प्रस्तुति के लिए।

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  40. गुस्से में लाल था सूरज
    प्रकृति के दफ्तर में हो रहा है कार्य विभाजन
    जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
    अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा ।
    वाह प्रकृति को ही एक दफ्तर बना डाला और हवा, पानी सूरज बिजली को कर्मचारी । बिना पैसे ओवर टाइम करना पडे तो नाराजगी तो होगी ही वो भी सूरज की नाराजगी .........उफ्फ ।

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  41. 'भोर , दुपहरी , साँझ, रात
    सब के सब नये समीकरण की तलाश में'


    - आज समीकरणों के माहिर ही सफल होते दिख रहे हैं.

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  42. सही बात है, पढ लिख के दिहाडी मजदूर बन गए हैं...

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  43. शरद जी, आप त प्रकृति को भी सरकारी ऑफिस बना दिए..आइडिआ बहुत बढिया है.. लेकिन आपके दोस्त त आपके बारे में लिखे हैं कि आप बाकी लिखने वाला लोग को कुत्ता समझते हैं और कीड़ा मकोड़ा समझते हैं...ओही आपकेदोस्त उड़न तश्तरी... उनको जो कमेंट लिखे हैं आपको भी भेज रहे हैं , देखिएगा ..ऊ त नहिए छापेंगे ..आप छाप सकिएगा त कल्यान होगा बहुत सा लिखने वाला लोग का..


    “इधर दु चार बार से देख रहे हैं कि आपका लिखने का इश्टाइले बदल गया है..का बात है.. ?? कम्पीटीशन बढ गया बुझाता है..पहिले आप 10% और 90% वाला फिलोस्फी दिये, उसके बाद शौचालय में कुदकर सुइमिंग करने वाला, फिर देखावा वाला और अब ई एगो नया सगूफा छोड़ दिये हैं.. एके बार में जेतना लिखने वाला लोग है, सभे को आप त कीड़ा मकोड़ा और कुत्ता बना दिए जो इहाँ ब्लॉग्स्पॉट पर मूत्र विसर्जन करने आता है..भाई जी आप त बहुते बड़ा साहित्यकार हैं, त एगो अंगरेजी साहित्य का कवि हैं बाबू पी. बी. शेल्ली..उनका कहनाम था कि हमरा सबसे मधुर संगीत ओही होता है जिसका भित्तर से दुःख का सुर फुटता है. और इहाँ जेतना आदमी लिखता रहता है सब अंदर से कवि है.. कहीं न कहीं भोगा है ससुरा तबे जाकर कुछ लिखता है...हमको भी पता है कि बहुत लोग कबिता के नाम पर तुकबंदी करता है, तबो उसका भावना देखिए... साह्जहाँ ताजमहल बना दिया त उसका प्यार महान हो गया और हमरा जइसा आदमी का हैसियत नहीं था त हमरा प्यार का कोनो कीमत नहीं...आप जइसा पढा लिखा और काबिल आदमी भी ओतने भावना को फील करता है जेतना कोई रेक्सा चलाने वाला...उसका मन में भी ओही बात है कहने के लिए जो आपका मन में है..आप कबिता लिख दिए और ऊ तुकबंदी.. अब बताइए कि ऊ कहाँ से कुता हो गया... हमको त इहो नहीं लगता है कि ऊ अपना आप को साहित्त्कार भी बोलता होगा बेचारा… तब त आप उसको ई अपराध में कुत्ता बना दिए जो ऊ बेचारा करबे नहीं किया था...आप बहुत बड़ा साहित्तकार हैं त तनी बड़प्पन मेंटेन किजिए… (पिछला बार त हमारा कमेंट छाप दिए थे अबरी त कोनो चांस नहीं है)...”

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  44. कल शाम गुस्से में लाल था सूरज
    प्रकृति के दफ्तर में हो रहा है कार्य विभाजन
    जायज़ हैं उसके गुस्से के कारण
    अब उसे देर तक रुकना जो पड़ेगा
    .....vaah.bahut khub.

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