रविवार, मार्च 28, 2010

हम सब इज़्ज़तदार हैं......


हम सब इज़्ज़तदार लोग हैं .. । हम में से कितने लोग हैं जो इस बात से इंकार करेंगे ? कोई नहीं ना । ग़रीब  से ग़रीब आदमी भी कहता है " हमारी भी कुछ इज़्ज़त है । " वैसे पैसे और इज़्ज़त का कोई सम्बन्ध भी नहीं है । फिर भी कहा जाता है कि इज़्ज़त की फिक्र न पैसे वाले को होती है न ग़रीब को । हाँलाकि इज़्ज़त तो इन दोनो की भी होती है । लेकिन इज़्ज़त के नाम से सबसे ज़्यादा घबड़ाता है एक मध्यवर्गीय । अब ले-दे कर एक इज़्ज़त ही तो होती है उसके पास और जो कुछ भी होता है इसी इज़्ज़त को सम्भालने में ही खत्म हो जाता है । अब ऐसे निरीह प्राणि की भी कोई बेइज़्ज़ती कर दे तो ? बस ऐसे ही एक चरित्र को लेकर गढ़ी गई है यह कविता । 

                             इज़्ज़तदार
एक इज़्ज़तदार
बदनामी की हवाओं में
टीन की छत सा काँपता है
हर डरावनी आवाज़
उसे अपना पीछा करते हुए महसूस होती है
हर दृष्टि घूरती हुई
चर्चाओं कहकहों मुस्कानों का सम्बन्ध
वह अपने आप से जोड़ता है
अपनत्व और उपहास के बोलों को
एक ही लय में सुनता है

समय की चाल में
असहाय होकर देखता है
डर और साहस के बीच
खुद को खंडित होते हुए
कोशिश करता है भीड़ से बचने की
अपने लिये सुरक्षा के इंतज़ामात करता है
एक स्क्रिप्ट लगातार चलती है
उसके मस्तिष्क में
जहाँ वह अपने व्यक्तित्व के बचाव में
सम्वाद गढ़ता है

पपड़ी की तरह जमता है समय
उसकी पहचान पर
वह पैने नाखूनों से डरता है
उसे लगातार तलाश रहती है
पत्थर से विश्वास वाले दोस्तों की |

                        - शरद कोकास

बुधवार, मार्च 24, 2010

कोई कितनी दफ़ा मर सकता है प्रेम के कारण

                                                           नवरात्र अंतिम दिन
प्रथम दिन से लेकर अब तक इन कवयित्रियों को आपने पढ़ा - प्रथम दिन से लेकर आपने अब तक फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल और अज़रा अब्बास , दून्या मिख़ाइल और शीमा काल्बासी और ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कवितायें पढ़ीं ।
प्रथम दिन से लेकर अब तक इन पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आपने पढ़ीं - इन कविताओं पर जो बातचीत हुई उसमे अपनी सहभागिता दर्ज की अशोक कुमार पाण्डेय ने ,शिरीष कुमार मौर्य ने ,लवली कुमारी ,हरि शर्मा ,पारुल ,राज भाटिया , सुमन , डॉ.टी.एस.दराल , हर्षिता, प्रज्ञा पाण्डेय ,मयंक , हरकीरत हीर” , के.के.यादव , खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज ., सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा , रश्मि प्रभा  , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,रानी विशाल ,संगीता स्वरूप , सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि, पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा , डॉ.रूपचन्द शास्त्री मयंक “,अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, रजनीश परिहार  अविनाश वाचस्पति , सिंग एस.डी एम ,ललित शर्मा और अम्बरीश अम्बुज ने । आप सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ । जिन लोगों ने फोन और ईमेल के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की उनका भी मैं आभारी हूँ । जिन लोगों ने इसे पढ़ा और प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कर पाये उन्हे भी मैं धन्यवाद देता हूँ । 
प्रथम दिन से लेकर कल तक प्रस्तुत इन कविताओं के पश्चात आज इस श्रंखला की अंतिम कड़ी में प्रस्तुत कर रहा हूँ हालीना पोस्वियातोव्स्का की दो कवितायें इन कविताओं का चयन एवं बहुत ही सुन्दर अनुवाद किया है  कबाड़खाना  ब्लॉग के श्री अशोक पाण्डेय ने । अशोक जी के अनुवाद आप पहले भी पढ़ चुके हैं ।
कवयित्री का परिचय
पोलैंड  की  रहने वाली हालीना (1934- 1967 )को बचपन में टी.बी. हो गई थी । वह स्कूल नहीं जा सकी । माँ के साथ टीबी सेनिटिरियम के चक्कर लगाते हुए उसकी मुलाकात अडोल्फ नामक एक युवा फिल्म निर्देशक से हुई । अडोल्फ को भी टी बी थी । दोनो ने विवाह कर लिया परंतु अडोल्फ की मृत्यु हो गई । हालीना कवितायें लिखने लगी थी । लेकिन उसका स्वास्थ्य इस कदर बिगड़ा के चिकित्सकों ने उसे अमेरिका ले जाने की सलाह दी ।उसके पास इलाज़ के लिये पैसा नहीं था । पोलैंड के महाकवि चेस्वाव मिवोश और ताद्यूश रोज़ेविच के प्रयासों से उसका इलाज का खर्च निकला ।अमेरिका मे पहला ऑपरेशन सफल रहा । वह पोलैंड विश्वविद्यालय मे दर्शन शास्त्र भी पढ़ाने लगी लेकिन 1967 में दूसरे ऑपरेशन के दौरान 33 वर्ष की आयु में उसकी मृत्यु हो गई ।
तब तक उसके तीन कविता संग्रह आ चुके थे । 1968 में चौथा आया । हालीना ने प्रेम और और ऐन्द्रिकता को अपना विषय बनाया था उसे भान था कि कभी भी उसकी मृत्यु हो सकती है ।उसकी कविता में प्रेम की उथल-पुथल के साथ मृत्यु के सामंजस्य का  विकट ठहराव देखने को मिलता है ।
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1 . मेरी मृत्युएं   
कोई कितनी दफ़ा मर सकता है प्रेम के कारण

पहली दफ़ा वह धरती का कड़ा स्वाद थी
कड़वा फूल
जलता हुआ सुर्ख़ कार्नेशन

दूसरी दफ़ा बस ख़ालीपन का स्वाद
सफ़ेद स्वाद
ठण्डकभरी हवा
खड़खड़ाते जाते पहियों की अनुगूंज

तीसरी दफ़ाचौथी दफ़ापांचवीं दफ़ा
मेरी मृत्युएं कम अतिशयोक्त थीं                        
अधिक नियमबद्ध                                          
कमरे की चार औंधी दीवारें                             
और तुम्हारी आकृति मेरे ऊपर                         


2 . स्मृति पत्र        


अगर तुम मर जाओगे                                                                        
तो मैं नहीं पहनूंगी हल्की बैंगनी पोशाक                                                 
फुसफुसाती हवाओं से भरे रिबनों से बंधी                                             
रंगीन कोई भी चीज़ नहीं
कुछ भी नहीं

घोड़ागाड़ी पहुंच जाएगी - पहुंचेगी ही
घोड़ागाड़ी चली जाएगी - जाएगी ही
मैं खिड़की से लगी खड़ी रहूंगी - देखती रहूंगी

हाथ हिलाऊंगी
रूमाल लहराऊंगी
उस खिड़की पर खड़ी

अकेली कहूंगी :
"अलविदा"

और भीषण मई की
गर्मी में
गर्म घास पर लेट कर
मैं अपने हाथों से
छुऊंगी तुम्हारे बाल
अपने होठों से सहलाऊंगी
मधुमक्खियों के रोओं को
जिसका डंक उतना ही सुन्दर
जैसे तुम्हारी मुस्कान
जैसे गोधूलि का समय
उस समय वह
सोना-चांदी होगी
या शायद सुनहरी और सिर्फ़ लाल

जो ढिठाई से घास के कान में फुसफुसाती जाती है
प्रेमप्रेम
वह उठने नहीं देगी मुझे
और ख़ुद चल देगी
मेरे अभिशप्त ख़ाली घर की ओर

                                  हालीना पोस्वियातोव्स्का
 नवरात्र में प्रस्तुत विदेशी कवयित्रियों की यह कविता श्रंखला आपको कैसी लगी ? ज़रूर बताइयेगा । इसश्रंखला की कविताओं को उपलब्ध करवाया श्री अशोक पाण्डेय , श्री सिद्धेश्वर . ने । इसके अलावा कुछ कवितायें मैने ज्ञानरंजन जी की पत्रिका पहल से भी लीं जिनके अनुवादक हैं श्री गीत चतुर्वेदी ,रजनीकांत शर्मा और सलीम अंसारी । आप सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ - शरद कोकास 
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मंगलवार, मार्च 23, 2010

सिर्फ इक्कीस बरस का जीवन जिसने जिया ..

नवरात्रि आठवाँ दिन
इन कवयित्रियों को आपने पढ़ा - प्रथम दिन से लेकर आपने अब तक फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल और अज़रा अब्बास , दून्या मिख़ाइल और शीमा काल्बासी की कवितायें पढ़ीं ।
इन पाठकों की प्रतिक्रियाएँ आपने पढ़ीं -नवरात्रि के सातवें दिन प्रकाशित  शीमा काल्बासी  की कविता पर जो बातचीत हुई उसमे अपनी सहभागिता दर्ज की अशोक कुमार पाण्डेय ने ,शिरीष कुमार मौर्य ने ,लवली कुमारी ,हरि शर्मा ,पारुल ,राज भाटिया , सुमन , डॉ.टी.एस.दराल , हर्षिता, प्रज्ञा पाण्डेय ,मयंक , हरकीरत हीर” , के.के.यादव , खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज ., सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा , रश्मि प्रभा  , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि, पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा , डॉ.रूपचन्द शास्त्री मयंक “,अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी, और रजनीश परिहार और पुष्पा ने । आप सभी के प्रति मैं आभार व्यक्त करता हूँ  
इन्हे आज पढेंगे आप - ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 
इनका परिचय दे रहे हैं – इस कविता के अनुवाद के साथ ,कर्मनाशा ब्लॉग के सिद्धेश्वर जी  ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का : ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का का जन्म २१ अक्टूबर १९२१ को  लुबलिन ( पोलैंड) में हुआ था 
 और नाज़ी जर्मनी के काल में वह भूमिगत संगठन के० ओ० पी०  की सक्रिय सदस्य थीं। उसे और उनकी बहन को  मई १९४१ को गेस्टापो ने गिरफ़्तार कर लिया  और कुछ महीनों के बाद खास तौर पर  
महिला बंदियों के लिए बनाए गए रावेन्सब्रुक ( जर्मनी ) के यातना शिविर में डाल दिया गया था।  
वहीं ग्राज़्यना को १८ अप्रेल १९४२ को अन्य ११ पोलिश महिला बंदियों के साथ नाज़ी फायरिंग स्क्वाड 
द्वारा उड़ा दिया गया । इस तरह हम देखते हैं कि मात्र इक्कीस बरस का लघु जीवन इस कवयित्री ने जिया। वह तो अभी  
ठीक तरीके से इस दुनिया के सुख - दु: और छल -प्रपंच को समझ भी नहीं पाई थी कि अवसान की घड़ी  गई।उसकी जितनी भी कवितायें उपलब्ध है  उनसे गुजरते हुए सपनों के बिखराव से व्याप्त उदासी और  तन्हाई  से उपजी  तड़प के साथ एक सुन्दर संसार के निर्माण की आकांक्षा को साफ देखा जा सकता है। ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कुछ कविताओं का प्रसारण १९४३ में बीबीसी लंदन से कैम्प के समाचारों के साथ हुआ था। प्रस्तुत कविता जारेक गाजेवस्की द्वारा मूल पोलिश से अंग्रेजी में किए गए अंग्रेजी अनुवाद पर आधारित है।


परायी धरती
( ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का की कविता )

नीची इमारतों की खामोश भूरी कतार
और उसी की तरह भूरा - भूरा आसमान
यह भूरापन जिसमें नहीं बची है कोई उम्मीद ।
उदासी में डूबे अलहदा किस्म के इंसानों के झुण्ड
भयानक तस्वीरें, अनोखी अजनबियत और बहुत ज्यादा सन्नाटा।

इस मृत खालीपन में
घर की याद घसीटती है अपनी ओर
जिससे उपजता है सूनापन
घेरती है पीली कठोर और गूँगी निराशा
जिसमें दम घुटता है भावनाओं का
और वे भटकती हैं अँधेरे - अंधे कोनों में।
सुनो , बावजूद इसके
आजाद जंगलों में अंकुरित होते हैं नए - नन्हें वृक्ष ।

क्या हमें ? क्या हमें सहन करना है ?
यह सब जो विद्यमान है शान्तचित्त ।
मैं खोती जा रही हूँ अनुभव अपने अस्तित्व का
कुछ नहीं देख पा रही हूँ
 ही कर रही हूँ किसी सूत्र का अनुसरण ।
हम यह जो छोड़े जा रहे हैं निशान
वे इस परायी रूखी धरती पर
वे कितने छिछले हैं कितने प्राणहीन ।
मात्र इतना
कि हम यहाँ आए थे
और कोई अर्थ नहीं नहीं था हमारे होने का ।

                  ------------- ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का 

 
यह कविता घोर निराशा के इस समय में भी आशा का संचार करती है और कई सवाल खड़े करती है .. यह मनुष्य को झकझोर कर पूछ्ती है  .. इस पराई धरती पर हमारे होने का क्या अर्थ है ..? यह कविता आपको कैसी लगी ज़रूर बताइयेगा  - शरद कोकास