रविवार, फ़रवरी 28, 2010

अब मैं कोई भी रंग पहनूँ हूँ तो मै मनुष्य ही ना

रंगों पर लोगों की प्रतिक्रिया को लेकर मुझे पहली बार गुस्सा तब आया जब एक मित्र ने मेरी हरी कमीज़ देखकर मुँह बिचकाया .." हरी कमीज़ ..क्यों धर्म बदल लिया है क्या ? दूसरी बार गुस्सा तब आया जब एक मित्र ने भगवे रंग की कमीज़ को देख कर कहा ..क्यों परिषद के सदस्य बन गये हो क्या ? औतीसरी बार तब जब मेरे प्रिय लाल रंग के पहनने पर मुझे कॉमरेड कहा गया । ठीक है किसी को कोई रंग अच्छा लगता है किसी को कोई इसे लेकर हम लड़ते क्यों हैं ? अब मैं कोई भी रंग पहनूँ हूँ तो मै मनुष्य ही ना । गनीमत होली पर हम इस तरह रंगों को लेकर नहीं लड़ते झगड़ते । बस इसी विचार से इस कविता का जन्म हुआ .. होली का अवसर है .. जब आप रंगों में डूब जायें इस कविता में प्रस्तुत  रंगों के बयान पर गौर करें ।


                                        हमसे तो बेहतर हैं रंग                            


वनबाला की ठोढ़ी पर गुदने मे हंसा
आम की बौर में महका
पका गेहूँ की बालियों में
अंगूठी में जड़े पन्ने में चहका
धनिया मिर्च की चटनी में धुलकर
स्वाद के रिश्तों में बंधा
अस्पताल के पर्दों पर लहराया
सैनिकों की आँख में
ठंडक बनकर बसा
नीम की पत्तियों से लेकर
अंजता के चित्रों में
यह रंग मुस्काया
सावन की मस्ती को उसने
फकीरों के लिबास में
हर दिल तक पहुँचाया

आश्चर्य हुआ जानकर
कि किसी खास वजह से
कुछ लोगों को यह रंग पसंद नहीं

उन्हे पसंद है
वीरों के साफे का रंग
माया मोह से विरक्ति  का रंग
रंग जो टेसू के फूलों में जा बसा
बसंती बयार में बहता रहा
सजता रहा ललनाओं की मांग में
क्षितिज में आशा की किरण बना
पत्थरों पर चढ़ा
माथे का तिलक बना जो रंग
विपत्तियों से रक्षा की जिसने भयमुक्त किया
कभी धरती से निकले मूंगे में जा बसा
कभी बिरयानी के चावलों पर जा सजा

आश्चर्य  हुआ जानकर
कि कुछ लोगों की
उस रंग से भी दुश्मनी है

 
उन्हे वह रंग पसंद है इसलिये उन्हे वे लोग पसंद नहीं
इन्हे यह रंग पसंद है इसलिये उन्हे ये लोग पंसद नहीं

अब रंगो को आधार बनाकर लड़ने वालों से
यह कहना तो बेमानी होगा
कि  करोड़ों साल पहले हम भी उसी तरह बने थे
जिस तरह बने थे ये रंग
जो आपस में लड़े नहीं
प्यार किया गले मिले और नया रंग बना लिया ।
                           
 होली की शुभकामनायें -   शरद कोकास                                                                   

    ( चित्र गूगल से साभार )

गुरुवार, फ़रवरी 18, 2010

अद्भुत हो सकता है यह दृश्य , मुम्बई से बाहर रहने वालों के लिये

                   लोकल ट्रेन को मुम्बई की जीवन रेखा कहा जाता है । बी ई एस टी  वहाँ की बस सर्विस है । जैसे ही दिन निकलता है मुम्बई की अधिकांश जनता बस और लोकल ट्रेन में नज़र आती है । और देर रात तक इनकी आवाज़ मुम्बई के कानों में गूंजती रहती है । लोकल ट्रेन में सफर का अपना ही आनन्द है । बेतहाशा भीड़ , उमस ,समय की पाबन्दी के बावज़ूद जनता इस सफर का मज़ा लेती है । लोकल ट्रेन को विषय बना कर कहानियाँ लिखी गई हैं और फिल्में भी बनी हैं । मुझे एम. के. रैना की फिल्म " 27 डाउन " विशेष रूप से याद है जो रमेश बक्षी के उपन्यास " अठारह सूरज के पौधे " पर आधारित थी । इस कथा में नायक को नायिका लोकल ट्रेन में ही मिलती है । 
                   पिछले दिनों मुम्बई गया था तो अनुभ्राता आशीष और भावज श्वेता  ने बताया कि लोकल ट्रेन में यात्रा करते हुए लोगों की ज़िन्दगी बीत जाती है । यात्रा करने वाले लोगों में कई लोग ऐसे हैं जो बरसों से इस लोकल ट्रेन में निश्चित डिब्बे में निश्चित स्थान पर बैठकर या खड़े रह्कर ही यात्रा करते हैं । वे आपस में प्रतिदिन एक दूसरे को देखते हैं और नाम तक नहीं जान पाते फिर भी एक दूसरे का अभिवादन ज़रूर करते हैं ।
                  मुझे तो बस और ट्रेन में यात्रा करना वैसे भी रोमांचक लगता है । मै रेल की आवाज़ में स्वर मिलाकर गुनगुनाने लगता हूँ । आसपास के लोगों ,और खिड़की से बाहर दिखाई देने वाले द्रश्यों पर जैसे ही ध्यान केन्द्रित करता हूँ कविता अपने आप सूझने लगती है । " लोहे का घर " शीर्षक   से रेल पर लिखी मेरी कवितायें आप पढ़ ही चुके हैं । लीजिये अब पढ़िये मुम्बई की बस और लोकल ट्रेन में यात्रा करते हुए  यह  दो  कवितायें ।


सिटी पोयम्स मुम्बई- बी.ई.एस.टी.

न उमस महसूस हो रही थी वातावरण में
न घुटन का कहीं नामोनिशान था
चिपचिपाहट भरा पसीना भी
भीड़ की देह से महक नहीं रहा था
धूल की भी हिम्मत नहीं थी
कि उड़कर सर पर सवार हो

यह सर्दियों की एक शाम  थी
और समन्दर की लहरों के जागने का वक़्त था
बस की खिड़की से आये हवा के ताज़े झोंके ने
हमारी बातचीत में दखल देते हुए कहा
भीड़ के बीच भी प्रेम
अपनी अलग दुनिया बसा लेता है
जिसमें कोई जगह नहीं होती
दुख,दुश्चिंता और दुर्दिनों के लिये

बस ..चलते चलो इसी तरह   
अभी आखरी स्टॉप बहुत दूर है ।


सिटी पोयम्स मुम्बई – लोकल ट्रेन

वह गायों और मनुष्यों के घर लौटने का वक़्त था
बहुत ज़्यादा फ़र्क नहीं था
उस भीड़ और घर लौटते पशुओं के रेवड़ में
कामकाजी माँओं को चिंता थी बच्चों की
पिता एक दिन गुज़र जाने के सुख से लबालब  थे
और बच्चों के लौटने का वक़्त नहीं हुआ था
फिर भी सब घर पहुँचकर सुरक्षित हो जाना चाहते थे
अपनी छोटी छोटी दुनियाओं में

ऐसे में तुम सवार हुई लोकल ट्रेन में
एक हाथ में कॉफी का मग
और दूसरे हाथ में सैंडविच लिये
अपनी पेंसिल हील सैंडिल की धुरी पर
घूमती हुई पृथ्वी सा संतुलन सम्भाले

अद्भुत हो सकता है यह दृश्य
मुम्बई से बाहर रहने वालों के लिये 
वे और अचरज से भर जायेंगे
जब वे देखेंगे तुम्हे
अलग अलग हाथों में
कमल , कलश , धन का पात्र लिये लक्ष्मी की तरह
पर्स ,अखबार ,छत्री, कैरीबैग और भाजी का झोला लिये  ।

                                          -  शरद कोकास 
हाँ.... चित्र में लोकल ट्रेन में पिता की गोद में बैठकर हुक पकड़े हुए यात्रा करती हुई नन्ही भतीजी आकांक्षा  का यह चित्र है । अन्य चित्र गूगल से साभार । अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने के पश्चात लोकल ट्रेन में यात्रा का एक मज़ेदार किस्सा यहाँ भी पढ़ें ।                    

  

शनिवार, फ़रवरी 13, 2010

इतनी बड़ी उम्र की मैडम से प्रेम ..वह भी मिस वेलेंटाईन


वेलेंटाइन डे का नाम जब पहली बार सुना तब हम गधा पचीसी की उम्र पार कर चुके थे और बाकायदा इष्ट मित्रों और सम्बन्धियों की उपस्थिति में दोपाये से चौपाये बन चुके थे । दाँपत्य जीवन में प्रेम ,भोजन में रोटी की तरह शामिल था और ज़िन्दगी का मज़ा आने लगा था । तीज-त्योहार पर्व सभी आनन्द से मनाते थे कि जीवन में इस नये पर्व का प्रवेश हुआ । अब तो यह पर्व हमारे जन जीवन में शामिल हो ही चुका है   और जितना इसका विरोध हो रहा है उतना ही यह लोकप्रिय होता जा रहा है । इस पर्व का नाम  पहली बार जानने का भी एक मज़ेदार किस्सा है ।
हुआ यह कि एक दिन  एक बालक आया और मुझसे पूछने लगा “अंकल आपके पास कोई प्रेम की कविता है ?” मैने पूछा “ क्या करोगे , कहीं अपने नाम से छपवाना है क्या ,या स्वरचित काव्य प्रतियोगिता में पढना है ?” अक्सर मेरे पास स्कूल-कॉलेज के बच्चे आते रहते  हैं और स्कूल की कविता प्रतियोगिता ,भाषण प्रतियोगिता आदि के लिये कुछ कुछ सामग्री ले जाते हैं ।उस बालक ने शरमाते हुए कहा “ नहीं अंकल ,उनको... वेलेंटाईन को देना है ।“ वह कॉंवेंट में पढता था । मुझे लगा उसके यहाँ कोई वेलेंटाइन नाम की मैडम होगी जिनकी कविता आदि में रुचि होगी । अपनी साहित्यिक बिरादरी में एक और साहित्यप्रेमी जुड़ जाये यह सोचकर मैने उससे कहा “ ऐसा था तो उन्हे भी ले आते ।“ वह फिर शरमा गया और कहने लगा “ नहीं अंकल वह नहीं आ सकती ।“ मैने कहा “ ऐसी भी क्या बात है ..इस बहाने उनसे परिचय हो जाता , वे कविता वगैरह का शौक रखती हैं शायद ।“ वह पहले से ज़्यादा शरमा गया फिर कुछ हिम्मत जुटाकर बोला “ अंकल दरअसल मै उन्हे सरप्राइज़ देना चाहता हूँ । आपकी कविता के बहाने उनसे कहना चाहता हूँ कि मैं उनसे प्यार करता हूँ ।
मैडम से प्यार ..। मेरी नज़रों के सामने “ मेरा नाम जोकर “ का राजू घूम गया । मैने मन ही मन सोचा इतने बरसों बाद भी इस फिल्म का समाज में यह प्रभाव है । मैने गम्भीर होकर उससे कहा .. “ देखो बेटा .. यह प्रेम – व्रेम करने की उम्र नहीं है ,चुपचाप अपनी पढ़ाई में ध्यान दो । “ वह रुआँसा हो गया और कहने लगा ठीक है अंकल मैं उन्हे गुलाब का फूल ही दे दूंगा । मुझे लगा था कि उस पर मेरी बात का असर हुआ है लेकिन यह क्या ..यह तो मेरी कविता के बदले फूल देने पर उतारू हो गया है । मैने कुछ नर्म होकर कहा ..” ठीक है बेटा ..लेकिन इतनी बड़ी उम्र की मैडम से प्रेम ? और वह भी मिस वेलेंटाइन ..।
अब लड़के के पेट पकड़ पकड़ कर हँसने की बारी थी । बहरहाल उसने सब कुछ स्पष्ट किया ।पता चला कि वह हमारे ही एक कवि मित्र की बेटी थी और यह बालक कविता के बहाने उसे प्रभावित करना चाहता था ।बातों बातों में  हमने भी पता लगाया कि यह पर्व क्या है और क्यों मनाया जाता है आदि आदि । ज्ञात हुआ कि किन्ही संत वेलेंटाइन के नाम से यह पर्व मनाया जाता है । हमने सोचा हो सकता है , हमारे यहाँ भी तो संतों ने मनुष्यों को प्रेम का ही सन्देश दिया है । यह बात अलग है कि हम उनके नाम से प्रेम के नहीं धर्म के उत्सव मनाते हैं । अब प्रेम का यह उत्सव किसी विदेशी संत के नाम से ही सही ।
अब हर साल वेलेंटाईन डे पर यह किस्सा याद आता है और हम सबको सुनाते है । तो इस साल यह किस्सा आपने सुन लिया । सोचा था अपना कोई किस्सा सुनायेंगे लेकिन अब धैर्य नहीं है ..सो अगले साल । एक रेडीमेड कविता है ..जो कुछ साल पहले लिखी थी वही प्रस्तुत कर रहे हैं ..इससे ही आप बहुत कुछ समझ जायेंगे ।


                        वैलैनटाइन डे
 
उपहार में दी जाने वाली
नाजुक वस्तुओं के साथ
अपेक्षाएँ जुड़ी होती है
जो कभी नहीं टूटती

जेबखर्च से पैसे बचाकर
खरीदा गया  चीनी मिट्टी का गुलदस्ता
प्लास्टर ऑफ पेरिस की कोई मूरत 
लाख की एक कलम
पालिश किया हुआ कोई कर्णफूल
पत्थर जड़ी नाक की लौंग 
या काँच की चूड़ियाँ

किसी को सौंपते हुए
मन कांपता था
कहीं कुछ टूट न जाये
चटख न जाये कहीं कुछ
कोई खरोंच न आ जाये

बरसों बाद भी
खत्म नहीं होती अपेक्षाएँ
शुभकामनाओं की तरह
अल्पजीवी नहीं होती अपेक्षाएँ
पलती रहती हैं 
समय की आँच में 
पकती रहती हैं 

पगलाया सा  घूमता है 
एक बेबुनियाद खयाल 
जस की तस रखी होगीं
सभी चीजें उसके पास

और तो और
हमारा दिया सुर्ख़ गुलाब का फूल भी
कहीं न कहीं रखा होगा
किसी किताब के पीले पन्नों के बीच ।

                        शरद कोकास 

( कविता मेहरुन्निसा परवेज़ की पत्रिका "समरलोक" से व चित्र गूगल से साभार )

बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

दादर पुल पर भीख माँगते हुए भगवान

मुम्बई शहर में दादर इलाका आपने न देखा हो ऐसा हो ही नहीं सकता । मैने बचपन में उर्दू के प्रसिद्ध लेखक कृश्न चन्दर का प्रसिद्ध उपन्यास “दादर पुल के बच्चे “ पढ़ा था । इस उपन्यास में मुम्बई में भिखारियों के गिरोह का वर्णन था । वे किस तरह बच्चों को पकड़ते हैं और उनसे भीख मंगवाते हैं । इस उपन्यास में एक फैंटासी है कि भगवान खुद एक बच्चा बन कर मुम्बई आते हैं और लेखक जो कि एक बच्चा है उसके दोस्त बन जाते हैं । फिर दोनो मिलकर बच्चों से भीख माँगने का धन्धा करवाने वाले गिरोह का पता लगाते हैं लेकिन दोनो ही पकड़े जाते हैं और जब उन्हे पता चलता है कि एक को लंगड़ा और दूसरे को अन्धा बनाकर भीख माँगने के लिये तैयार किया जा रहा है , वे वहाँ से भाग निकलते हैं । एक बच्चा तो सफल हो जाता है लेकिन भगवान पकड़े जाते हैं । उपन्यास का अंत लेखक के इस वाक्य से होता है.. “ एक दिन मैने देखा कि भगवान अन्धे बच्चे के रूप में दादर पुल पर भीख माँग रहे हैं ।
मैने इस उपन्यास को पढ़ने के बाद दादर पुल को देखा और वहाँ भीख माँगते बच्चों में भगवान को ढूँढने की कोशिश की । आप भी कहीं से ढूँढकर यह उपन्यास पढिये और फिर दादर पुल को देखकर वहाँ भगवान को तलाश कीजिये । वैसे दादर पुल के आसपास की भीड़ देखकर आपको वैसे ही भगवान याद आ जायेंगे । मैने इस पुल के आसपास की भीड़ , यहाँ के दुकानदार , फल सब्ज़ी के ठेले और फुटपाथ पर सामान बेचने वालों को हमेशा अपने अस्तित्व के लिये संघर्ष करते देखा है । ऐसा नहीं है कि यह शहर हमेशा भागता ही रहता है । यहाँ ठहराव भी है , जीजिविषा भी है और जीने का आनन्द भी है ।
आप आश्चर्य करेंगे के इतनी भागदौड़ ,आपाधापी के बीच भी ज़िन्दगी मुस्कराती है . प्रेम भी पनपता है और प्रेम की कविता भी जन्म लेती है । चलिये , दृश्य तो मैने उपस्थित कर दिया है , अब आप इस प्रेम कविता का आनंद लीजिये । एक कविता सफल प्रेम की और एक कविता विफल प्रेम की  ?

सिटी पोयम्स : मुम्बई - दादर पुल के नीचे

तीखी चुभन भी नहीं थी सर्दियों की हवा में
और पत्ते भी टूट कर नहीं गिरे थे सड़कों पर
एक खुशगवार सी धुन बज रही थी
मन के गिटार पर

यह छुट्टी का एक आवारा दिन था
और सड़कों पर आवाजाही भी नहीं थी

बस एक पुलक सी थी मन में
तुमसे मुलाकात की

दादर पुल के नीचे ठेलों पर रखे फूल मुस्कराये
सेव नाशपाती और केलों ने एक दूजे से कहा
इंतज़ार का फल मीठा होता है ।


सिटी पोयम्स मुम्बई – फुटपाथ

कल मैं इस फुटपाथ पर अकेले चला करती थी
आज तुम मेरे संग चल रहे हो
मेरे साथ फुटपाथ पर चलते हुए तुमने कहा

फुटपाथ के पत्थरों ने मुस्कराते हुए सोचा
कितने ही लोग रोज़ इस तरह कहते हुए
उन पर से गुजर जाते हैं

अगले ही रोज़ वही कदम
फिर किन्ही नये कदमों के संग
नज़र आते हैं ।

                                               - शरद कोकास 
( चित्र गूगल से साभार )

मंगलवार, फ़रवरी 02, 2010

मुम्बई पर कुछ धार्मिक कवितायें -सिटी पोयम्स मुम्बई

मुम्बई केवल औद्योगिक नगरी नहीं है । यहाँ के लोगों की व्यस्तता देख कर ऐसा लगता है कि शायद इन लोगों के जीवन में धर्म-कर्म या पूजा -पाठ के लिये समय ही नहीं होगा । लेकिन ऐसा नहीं है ।मैने जब महालक्ष्मी मन्दिर ,सिद्धि विनायक और हाजी अली में लोगों की भीड़ देखी तो मेरा यह भ्रम टूट गया । और सबसे अधिक मज़ा तो तब आया जब लोकल ट्रेन में एक भजन करने वाला समूह सवार हुआ । एक व्यक्ति ने  एक ब्रीफ केस खोला उसके भीतर एक देवता की तस्वीर थी वह उसे खोलकर खड़ा हो गया और बाकि लोग तालियाँ बजा बजा कर भजन करने लगे । जैसे ही उनका गंतव्य स्थल आया उस व्यक्ति ने ब्रीफकेस बन्द किया और सभी लोग स्टेशन पर उतर गये । है न समय का सदुपयोग । वैसे भी आप लोग मुम्बई के नवरात्र और गणेशोत्सव के विषय में जानते ही होंगे ।  फिलहाल मुम्बई के इन तीन धार्मिक स्थलों पर मेरी यह तीन कवितायें ..अब इसमें आपको धर्म या पूजा पाठ नज़र न आये तो मुझे दोष मत दीजियेगा ..कवि की नज़र है .. क्या देखता है पता नहीं ..क्या लिखता है पता नहीं  ?
 

  • सिटी पोयम्स मुम्बई – सिद्धी विनायक

जो रास्ता पहले आम आदमी के कदम पहचानता था
वह अब सिर्फ भक्तों के कदमों की आहट सुनता है

अब वहाँ से नहीं गुजरता
कोई भी ऐसा शख़्स
जो नहीं डरता हो
उस दुनिया के
और इस दुनिया के भगवानों से ।


  • सिटी पोयम्स मुम्बई – महालक्ष्मी

कुछ इस तरह लगी तुम्हारी हँसीं
जैसे मन्दिर की घंटियाँ बज उठी हों
अगरबत्ती के धुयें सा
प्यार फैल गया इर्द गिर्द
जिसके बाहर कुछ नहीं दिखाई देता था
न दुनिया के ग़म
न ज़िन्दगी की परेशानियाँ

गर्भगृह के बाहर
स्त्री पुरुषों की अलग अलग पंक्तियों में खडे थे हम
एक दूसरे की ओर देखते
मुझे नहीं पता
देवी की निगाह मुझ पर थी
या तुम पर  ।


  • सिटी पोयम्स मुम्बई – हाजी अली

मैने मज़ारों से कभी नहीं माँगी दुआयें
लेकिन तुम्हे दुआ माँगते देख मुझे अच्छा लगा

इसलिये कि मुझे पता था
माँगी हुई उन दुआओं में
मैं कहीं न कहीं शामिल ज़रूर था ।

                               -- शरद कोकास 

( चित्र गूगल से साभार )