शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

सुविधा के दिनों में गर्दिश के दिनों की याद पैदा करती है रूमानियत



यह जीवन भी रेल में की गई यात्रा की तरह है जहाँ एक स्टेशन से हम यात्रा प्रारम्भ करते है और किसी एक स्टेशन पर समाप्त करते हैं । प्रारम्भ का स्टेशन तो हमें पता होता है लेकिन गंतव्य के स्टेशन का हमें पता नहीं होता  वह कब आयेगा ..हम सशंकित होकर हर किसी से पूछते हैं , जब यह जवाब मिलता है कि अरे ..अभी तो आपका अंतिम स्टेशन बहुत दूर है तो हम खुश हो जाते हैं । और अगर कोई कह दे कि बस आपका अंतिम स्टेशन आने ही  वाला है तो हम दुखी हो जाते हैं । कई लोग सोचते हैं कि अभी तो हमें बहुत दूर तक यात्रा करनी है वे अचानक किसी स्टेशन पर उतर जाते हैं ..हम सोचते ही रह जाते हैं ..अरे यह तो कहता था बहुत दूर का सफर है बीच में ही उतर गया । कुछ लोग यात्रा करते करते ऊब जाते हैं और सोचते हैं कि यह अंतिम स्टेशन कब आयेगा ? और कुछ अंत तक यात्रा में नहीं ऊबते और खुशी-खुशी आखरी स्टेशन पर उतर जाते हैं ।                                                  
सोचकर देखिये कितना कुछ सोचा जा सकता है इस “लोहे के घर” में यात्रा करते हुए .. इस यात्रा में हम सभी हम सफर हैं । किसीने यात्रा जल्दी शुरू कर दी है किसीने देर से । कोई बीस स्टेशन देख चुका है कोई अठ्ठाइस कोई पचास कोई सत्तर  । जैसे जैसे स्टेशन आयेंगे नये मुसाफिर भी शामिल होते जायेंगे कोई पहले उतर जायेगा कोई देर तक यात्रा करता रहेगा । सबसे महत्वपूर्ण होगा साथ बिताया हुआ समय ..।जब एक न एक दिन आखरी स्टेशन पर उतरना ही है तो  क्यों न करें ऐसा कि हम यह समय इस तरह साथ बितायें कि हमारे स्टेशन पर उतर जाने के बाद भी बचे हुए वे सहयात्री हमे याद रख सकें ।
 अरे.. मैं जिस कविता को यहाँ देने जा रहा था उसका सन्दर्भ तो यह कतई नहीं था .. आप सोच रहे होंगे .. रूमानी होते होते पटरी बदलकर यह  दार्शनिक कैसे हो गया ?, अब क्या करूँ ...लोग सलाह ही इतनी गम्भीर देते हैं । खैर .. इस कविता का सन्दर्भ देने की ज़रूरत ही नहीं आप पढ़ेंगे तो खुद समझ जायेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ।और यह भी कि इस कविता और पिछली कविता की “रूमानियत “ में क्या फर्क है?

   
लोहे का घर - दो

 
फुटबोर्ड पर लटककर                           
यात्रा करते हुए
याद आती हैं
सुविधाजनक स्थान पर बैठकर
की गई यात्राएँ


आरक्षित बर्थ पर लेटे हुए
याद आती हैं
फुटबोर्ड पर लटक कर
सही जगह की तलाश में
की गई यात्राएँ


उसी तरह जैसे
सुविधाओं से युक्त जीवन में
गर्दिश के दिनों की याद
पैदा करती है रूमानियत ।
             
                -- शरद कोकास 

(चित्र गूगल से साभार )



20 टिप्‍पणियां:

  1. पता नहीं क्यूं इस कविता में मज़ा नहीं आया।
    इसमे विस्तार की संभावना थी पर लगा बहुत जल्दीबाजी में आपने समेट दिया

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  2. कविता बहुत सुंदर लिखी आप ने, बाकी हमारा स्टॆशन जब आया हम उतर जायेगे, नही तो उतार दिये जायेगे, लेकिन हम ने कभी नही किसी से पुछा भाई अभी कितनी दुर है हमारा स्टॆशन, अजी यात्रा के मजे लो...... जब आयेगा तभी तो उतरना है पहले ही क्यो मस्ती खराब करे.
    धन्यवाद

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  3. जीवन यात्रा और रेल यात्रा का अच्छा सम्बन्ध स्थापित किया है आपने।
    कहते हैं, दूर की घास हमेशा ज्यादा हरी दिखाई देती है।
    हम जो पा लेते हैं, उससे संतुष्ट नही होते। फ़िर और पाने की चाह में भटकने लगते हैं।
    वैसे कभी कभी ज्यादा आराम भी बोर कर देता है।

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  4. दो विपरीत स्थितियों में ...
    गोया ; पतझर में बसंत की याद ...
    और इसका ठीक उलट भी ...
    सुन्दर ... ...

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  5. वाकई !
    गर्दिश वाले दिन न होते तो शायद
    सुखों का एहसास इतना न हुआ होता
    --रेल घर से जीवन की सच्चाई ढूँढ लिया आपने !

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  6. सुविधाओं से युक्त जीवन में
    गर्दिश के दिनों की याद
    पैदा करती है रूमानियत ।
    बहुत खूबसूरत -- निहायत खूबसूरत रचना
    रूमानियत को नया आयाम

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  7. फुटबोर्ड पर लटककर
    यात्रा करते हुए
    याद आती हैं
    सुविधाजनक स्थान पर बैठकर
    की गई यात्राएँ।।

    बिल्कुल सही कहा आपने, जब कभी हम बुरे दिंन में होते है तो बिताये गये अच्छे दिंन खूद ब खूद याद आ जाते हैं ।

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  8. रूमानियत वाली आपकी बात बहुत सही है..जिन बातों का अंत अच्छा और हमारे वर्तमान मे उथल-पुथल पैदा करने वाला नही होता है वो यादें अक्सर रूमानियत ही पैदा करती हैं..दिसम्बर की गुनगुनी धूप मे ज्येष्ट की जलती दोपहर की याद की तरह..

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  9. कविता अच्छी हो, एक बात तो है ही पर आपकी भूमिकाएं भी बेहद अर्थवत्ता लिए रहती हैं..प्राम्भ से सटीक कलेवर रचते हुए ठीक समय पर चोट करती है..जहाँ लगना होता है लग जाती है, जहाँ छूना होता है छू लेती हैं....

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  10. इक मुसाफिर के सफर जैसी है सबकी दुनिया
    कोई फुटबोर्ड पर कोई आरक्षित बर्थ पर जाने वाला।

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  11. उसी तरह जैसे
    सुविधाओं से युक्त जीवन में
    गर्दिश के दिनों की याद
    पैदा करती है रूमानियत ।
    बहुत सच्ची बात. दुखों के बाद ही तो सुख की पहचान होती है.

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  12. रेल की यात्रा हमेशा रोंमांचित करती आयी है मुझे । सुन्दर पोस्ट……

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  13. शरद में हमें पतझड़ की याद आती है ...पतझड़ में वसंत की ..किसी कवि की पंक्तियाँ है ...बहुत कुछ ऐसा ही हमारा जीवन भी ...
    अभी सर्दियाँ शुरू हुई ही है की बच्चों का शोर शुरू हो गया ...गर्मियां ही अच्छी थी ... मैंने याद दिलाया की पूरी गर्मियां तुम सर्दियों को याद कर रहे थे ...क्या अच्छा नहीं की हम सर्दी में सर्दी का और गर्मी में गर्मी का पूरा लुत्फ़ उठायें ...
    सुविधा में सुविधा का ...मगर गर्दिश को याद करते हुए ...
    हमें तो इस दार्शनिकता में भी रूमानियत ही नजर आ रही है ...

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  14. आरक्षित बर्थ पर लेटे हुए

    याद आती हैं

    फुटबोर्ड पर लटक कर

    सही जगह की तलाश में

    की गई यात्राएँ





    उसी तरह जैसे

    सुविधाओं से युक्त जीवन में

    गर्दिश के दिनों की याद

    पैदा करती है रूमानियत ।

    बहुत खूब, कोकाश साहब !

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  15. उसी तरह जैसे
    सुविधाओं से युक्त जीवन में
    गर्दिश के दिनों की याद
    पैदा करती है रूमानियत ।

    yahi nishkarsh hai...

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  16. दुख मे सुख और सुख मे दुख के क्षण याद आते हैं । यही रुमानियत ज़िन्दगी है बहुत बडिया बधाई

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  17. सुन्दर बात। ट्रेन यात्रा के बाद आगे की पोस्ट में खानाबदोश हो लिये। जय हो।

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  18. याद आती हैं
    फुटबोर्ड पर लटक कर
    सही जगह की तलाश में
    की गई यात्राएँ ।

    बहुत ही सही एवं सत्‍यता को प्रकट करती आपकी यह रचना अनुपम प्रस्‍तुति ।

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  19. बिल्कुल सही कहा है आपने! बहुत ही सुंदर रूप से आपने प्रस्तुत किया है जीवन यात्रा और रेल यात्रा का अच्छा सम्बन्ध बतलाते हुए! बहुत अच्छा लगा आपका ये शानदार पोस्ट!

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