मेरी 1986 की डायरी से आतंकवाद के खिलाफ़ लिखी एक कविता
नोंच कर फेंक दी मैने अपनी आँखें
मैने फिर सुनी नींद में
एक दो तीन चार
पाँच छह सात आठ
मुझे लगा मेरा बच्चा
गुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है
मैने देखा सपने में
बिखरा हुआ खून
पाँवों में महावर लगाते हुए
शायद पत्नी के हाथ से
कटोरी लुढक गई है
बम फटने की आवाज़ें
धुएँ का उठता बवंडर
शायद मोहल्ले के बच्चे
दीवाली की आतिशबाज़ी में व्यस्त हैं
फिर ढेर सारी आवाज़ें
भारी भरकम बूटों की
कल मेरा जवान भाई कह रहा था
परेड की तैयारी में
शायद उसके दोस्त
उसे लेने आये हैं
फिर कुछ औरतें
आँखों में लिये आँसू
पिछले दिनो ही तो मैने
अपनी लाड़ली बहन को विदा किया है
डोली में बिठाकर
मैने चाहा बारबार
खोलकर देखूँ अपनी आँखें
निकल आऊँ बाहर
चेतन अचेतन के बीच की स्थिति से
लेकिन नींद में
सुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे
यकायक संगीन की तेज़ नोक
सीने से चीरते हुए
पेट तक चली आई
मेरी खुली आँखों के सामने थी
खून के सैलाब में डूबी हुई
मेरी पत्नी की लाश
पहाड़ों की किताब पर
मासूम खून के छींटे
एन सी सी की वर्दी व बूटों से दबी
जवान भाई की देह
फटी अंगिया से झाँकता
इकलौती बहन का मुर्दा शरीर
चीखने चिल्लाने की कोशिश में
मैने एक बार चाहा
बन्द कर लूँ फिर से अपनी आँखें
और पहुंच जाऊँ कल्पना की दुनिया में
लेकिन मेरा पुरुषत्व
नपुंसकता की हत्या कर चुका था
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें
संगीन की नोक
मेरे पेट तक आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ
मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।
शरद कोकास
लेकिन मेरा पुरुषत्व
जवाब देंहटाएंनपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें
इन लाइनों में ही आपने बहुत कुछ कह दिया शरद जी, मार्मिक और सुन्दर कविता !
मुझे लगा मेरा बच्चा
जवाब देंहटाएंगुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है...koee shabad nahi in pankatio ki tulna me.....ultimate....
यथार्थ का इतना लाल होना..आँखों से सपने का तिर जाना..कुछ आवाजें..कुछ शोर शाश्वत हो जाते हैं मानवता पर प्रश्न करने के लिए..मुंबई शब्द ही कई बार चेतन-अवचेतन में झूलता रहता है...!
जवाब देंहटाएंकलम लिखने के लिए अब कभी स्याही नहीं मांगेगी..इतना "लाल" जो बिखरा है जमीं पर...!!!
संगीन की नोक
जवाब देंहटाएंमेरे पेट तक आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ
मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।
ऐसा ही हृदय-विदारक दृश्य होता होगा.....और ऐसी ही पुरुषत्व की भावना भी जागती ही होगी लेकिन निहत्थे कैसे बच सकेंगे? सुन्दर कविता. २६/११ के शहीदों को श्रद्धान्जलि.
आज के मानव की पीड़ा को आपने शब्द दे दिए हैं। लगता नहीं कि यह पीड़ा जल्द ही खत्म होने वाली है। हमारी आने वाली पीढ़ियों को न जाने कितना कुछ झेलना होगा।
जवाब देंहटाएंघुघूती बासूती
पहले बताया नही ,’कविता कठिन है’ ?
जवाब देंहटाएंमुझे लगा मेरा बच्चा
जवाब देंहटाएंगुनगुनी धूप में बैठकर
गिनती याद कर रहा है !
बहुत ही मार्मिक प्रस्तुति ।
कविता के मायने अपने आप में बहुत हैं
जवाब देंहटाएंबस असर होने की देर है
ाज के दिन पर बहुत ही मार्मिक अभिव्यक्ति है ।पता नहीं उन दरिन्दों के शरीर मे दिल की जगह पत्थर होता है। उन शहीदों को शत शत नमन
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है ।
जवाब देंहटाएंनोचकर फेंक दी मैने
जवाब देंहटाएंअन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
सपनो की दुनिया में भटकाने वाली
अपनी आंखें
सब कुछ देख कर भी
शर्म से झुक जाने वाली
अपने आंखें
रोम रोम में एक सिहरन सी दौड़ गयी...कई सारे दृश्य जीवंत हो उठे,आँखों के सामने...घोर विवशता के वे क्षण असहनीय होते हैं....शब्दों के माध्यम से अच्छी तरह बयाँ किया है इस पीड़ा को.
लेकिन नींद में
जवाब देंहटाएंसुख महसूसने की लालसा में
सच्चाइयाँ खड़ी रहीं पीछे
हम लोग वाकई नींद में सुख ले रहे हैं। यथार्थ की मार्मिक प्रस्तुति
१९८६ में लिखी थी यह कविता !
जवाब देंहटाएंबुरा 'वक्त' तब भी था, अब भी है ! वो शक्लें बदल बदल कर आता रहता है !
भले लोग , अच्छा समाज , होना , भला क्या मायने रखता है ?
आप ने एक सोई हुई कौम का यथार्थ लिखा है। सही में आज इसी की जरूरत है। कविता व्यक्तिगत स्तर तक जा कर संवेदना को हिला दे रही है। बधाई!
जवाब देंहटाएंमेरे आँखों में आंसू है... मैं क्या कहूँ... २६/११ के शहीदों को विनम्र श्रद्धान्जलि.
जवाब देंहटाएंलेकिन मेरा पुरुषत्व
जवाब देंहटाएंनपुंसकता की हत्या कर चुका था
नोचकर फेंक दी मैने
अन्धे कुएँ में ले जाने वाली अपनी आँखें
अत्यंत मार्मिक और रूला देने वाली रचना
कविता इतनी मार्मिक है कि सीधे दिल तक उतर आती है । शहीदों को श्रद्धान्जलि।
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक अभिव्यक्ति है.मैं बस मौन रहन ही पसंद करूंगी
जवाब देंहटाएं... बेहद मार्मिक व प्रभावशाली अभिव्यक्ति !!!!!!
जवाब देंहटाएंसच है, आतंकवाद से प्रभावित होने वाले किसी न किसी के भाई, बहन, पत्नी या बेटा ही होते हैं।
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक रचना, शरद जी।
१९८६ की लिखी कविता आज भी प्रासंगिक है . आज भी हम अवचेतन अवस्था मे ही है . शायद संगीन भी हमारे चेतन को चेता नही पा रही . कोई और २६/११ भी होगी और हम अन्दाज़ लगाते रहेंगे . एक दो तीन चार
जवाब देंहटाएंitni karun katha aur dil dahla dene wala manjar aankhon me khauf aur aansu bhar gaya ,himmat saath chhod rahi thi phir bhi padhti gayi ,ek kadwa such ,is kadwe sach ne mumbai me gate haadse ko samne kar diya .
जवाब देंहटाएंअदभुद कविता
जवाब देंहटाएंबेहद उम्दा व मार्मिक रचना ।
जवाब देंहटाएंसंगीन की नोक
जवाब देंहटाएंमेरे पेट तक आकर रुक गई है
और मै नई आँखों से देख रहा हूँ
मेरी कमीज़ का रंग
अब लाल हो चला है ।
--संगीन की नोक से तीखा घाव कर गई यह रचना...धकधक धड़कन थमने का नाम ही नहीं रही!!
ब्रेख्त की एक कविता याद आती है..नींद मे सुख महसूसने की लालसा से उपजी नपुंसकता के बारे मे..मगर क्या कहूँ
जवाब देंहटाएंशहीदों को श्रद्धांजलि..उनका रक्त व्यर्थ नही जायेगा..मेरा दृढ़ विश्वास है..
आप की रचना आंखे खोलती है, काश यह बात उन हेवानो को भी महसुस होती, आप की यह मार्मिक रचना पढ कर आंखो मै आंसु ओर दिल नफ़रत से भर गया इन दरिंदो के लिये
जवाब देंहटाएंरगों में बहता है जो लहू ....कई आँखों में उतर आया इस तरह की कमीज को भी लाल रंग गया ... मार्मिक रचना ..!!
जवाब देंहटाएंमुंबई की दुर्घटना का एक साल पूरा हुआ पर लगता है जैसे कल की ही बात हो! उस हादसे को याद करके आज भी दर्द होता है! बहुत ही मार्मिक रचना लिखा है आपने! हर एक शब्द में आपने उस भयानक हादसे को बखूबी बयान किया है!
जवाब देंहटाएंबेहद मार्मिक एवं प्रभावपूर्ण।
जवाब देंहटाएंआतंकवाद पर मैंने इतनी विचारोत्तेजक रचना नहीं पढी।
------------------
क्या धरती की सारी कन्याएँ शुक्र की एजेंट हैं?
आप नहीं बता सकते कि पानी ठंडा है अथवा गरम?
उफ़!!
जवाब देंहटाएंman ko bhigo gai antrman ko choo gai marmik abhivykti kya kuch aisa kre ki fir se ye sab na dohraya jay .
जवाब देंहटाएंउन दो कविताओं को पढ़ लेने के बाद, कायदे से मुझे अब और आज के लिये कोई कविता नहीं पढ़नी चाहिये थी। लेकिन बावला उत्सुक मन कि देखूं तो शरद जी ने पिछली छुट गयी पोस्टो में क्या लिखा है, मुझे ले आया इस पन्ने पर...
जवाब देंहटाएंनिरल्ल्ज बरगद और लोहे के घर के बाद इन संगीनों का स्वप्न को कविता में देखना....उफ़्फ़्फ़! बाद में आता हूँ इस कविता पर सही मन से टिप्पणी करने।
फिर से आया था शरद जी इस कविता को पढ़ने...
जवाब देंहटाएंबस कुछ कहे बिना जा रहा हूं। आपका फैन हूं...अब जबरदस्त और जबरदस्त फैन हूं।