मंगलवार, सितंबर 01, 2009

यह नहीं सोचा होगा आपने गणेश जी के दर्शन करते हुए ?




गणेशोत्सव अपने चरम पर है । शोर-शराबे,पूजा-पाठ,नृत्य- गायन और उत्सवधर्मिता में डूबे जनमानस के लिये यह सोचना कठिन है कि गणेशजी की इस प्रतिमा को जिसने बनाया है वह मूर्तिकार किस हाल में जी रहा है। गणेशोत्सव की चकाचौन्ध कर देने वाली रोशनियों के बीच कवि नरेश चन्द्रकर पलट रहें हैं संस्कृति की इस पुस्तक के अनछुए पृष्ठ अपनी कविता “ संस्कृति के संवाहक “ में ।


संस्कृति के संवाहक


मूर्तियों में ढलने से पूर्व

थैला भर प्लास्टर थे गणेशजी

सरिये थे जूट के गठ्ठल थे

भरे ड्रम के गन्दले जल में निराकार पड़े थे


कौन जानता था

किस रंग आभा आकार में ढलेंगे

किनके हाथों बिकेंगे टेम्पो में चढ़ेंगे

कौन ले जायेगा उन्हे अपने पूजा पंडाल में

कितनी रेज़गारी बटोरेंगे उनके पंडाल-आयोजक

कितने भोग चढ़ेंगे

कितने में नीलाम होंगे उनके हाथ के मोदक


सब कुछ धीरे धीरे तय हुआ

आत्मकथा रची गई

प्लास्टर की थैली खुलते खुलते

ढलते सँवरते रचते चले गये

वे टाट के बने डेरे में


टाट के वे डेरे जबकि मूर्तिकारों के घर थे

आयोजकों के घर नहीं

पुरोहितों के नहीं

चन्दे की नींव पर बने पण्डाल जैसे भी नहीं

वे अन्धेरे ,मिट्टी और गन्दले जल से निर्मित थे


वे कालोनियों के सभ्रांत इलाकों से परे थे

पटरों पर बने थे

देवमूर्तियों से अँटे थे

पर फिर भी पाताल में गड़े थे


डेरों की परवाह किसे थी

उनके लिये उत्सव के दिन कहाँ थे

उनके लिये समितियाँ कहाँ थीं

उनके लिये चन्दे की रकम कहाँ थी

उनके लिये भीड़ कहाँ थी

उन पर हेलोजन लाइट कहाँ थी

वे रोशनी में नहाते कहाँ थे

वे आँखों की पुतलियों में कहाँ थे


उनकी उपमा तो ढेलों से होती थी

वे गलते थे बारिश में

धूप में खिण्ड जाते थे हवा से

सभ्य जन की परिधि सिकुड़ती थी उन तक पहुँचते हुए


डेरों के लिये चैनेल कहाँ थे

कैमरे के लेंस

पंडाल की रोशनी के बाहर आते ही तड़क जाते थे


मूर्तिकार कहाँ थे मूर्तियों के निर्माण के बाद

गणेशजी ही गणेशजी थे

वे ही थे

जैसे संस्कृति के सच्चे संवाहक !!


- नरेश चंद्रकर


सच बताईये, मूर्तियों के दर्शन करते हुए क्षण भर के लिये भी कभी आपके मन में यह खयाल आया ? अगली बार जब आप दर्शन के लिये जायें तो इन विपन्न मूर्तिकारों को याद कीजियेगा .. कवि की कविता तभी सार्थक होगी पर्व की शुभकामनाओं सहितशरद कोकास

22 टिप्‍पणियां:

  1. रोज देखता हूँ यह दृश्य। घर से निकलते ही बीच में कच्ची बस्ती है जहाँ कुछ बंगाली रहते हैं। उनमें से ही कुछ गणपति और देवी माँ की प्रतिमाएँ बनाते हैं। बनते समय के सारे रूप वहाँ देखे हैं पिछले महीने भर में।
    वे केवल कारीगर हैं, दुनिया भर की दौलत और निर्माण वही करते हैं। लेकिन सारे समारोहों से दूर हैं।

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  2. बहुत सामयिक पोस्ट
    कविता पढी हुई है पर अब पढकर ज़्यादा हलचल हुई।

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  3. सहीं कह रहें हैं भईया. ये संवेदनांए तो गणेश और गणेश पंडालों की चकाचौंध में खो जाती है. इसके पीछे का सच याद दिलाने के लिए आपको एवं नरेश भाई को बहुत बहुत धन्‍यवाद.

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  4. मूर्तिकार कहाँ थे मूर्तियों के निर्माण के बाद???sahi baat hai kon parwah karta hai...

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  5. भाई आप ने सच मुच मै पुछा है तो मुझे हमेशा मुर्ति मै सिर्फ़ एक आकर्ति ही दिखी है भगवान कभी नही, मेने तारीफ़ की है उसे बनाने वाले कि, ओर वो पहले भी ओर टुटने बाद भी पत्थर ही होगा...

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  6. sharad ji aapka mere blog par aane aur comment ke liye dhanyawaad.aapke mashware par main gambheerta purvak vichar karunga.

    sharad ji , vaise prem shashwat hai jab tak manav jati rahegi/duniya rahegi prem par likha hi jayega, aur vaise bhi , bhai hum bhi to purane hi hain , purana hi likhenge. meri anya rachnayen bhi padhiye ho sakta hai aapke taste ke anuroop rachnayen milen. phir bhi aapke salah ke liye hriday se dhanyawaad.

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  7. श्री नरेश चंद्रकर जी को धन्यवाद
    बोले तो दिल से शुक्रिया ........
    बहुत ही कोमल
    बहुत ही मर्मस्पर्शी
    और बहुत ही उत्तम स्तर की कविता रच कर
    आपने हिन्दी साहित्य को
    अपना अनुपम सहयोग दिया है
    हम बाँच कर अभिभूत हैं
    गणेश जी पढेंगे तो वे भी खुश होंगे..............
    बधाई !

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  8. बहुत बढ़िया लिखा है आपने और सच्चाई का ज़िक्र करते हुई आपने बिल्कुल सही बात कहा है! हम कभी भी इस बात को नहीं सोचते कि जिसने भी गणेश जी की मूर्ति को बनाया है वो किस हाल में जी रहा है! बहुत ही सुंदर ढंग से आपने प्रस्तुत किया है! आपकी लेखनी को सलाम!

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  9. SHARAD JI .........
    BAHOOT HI SAAMYIK, SAARTHAK RACHNA HAI YE .... SACH MEIN IS KAVITA PADHNE KE BAAD MAINE BHI SOCHNE KI KOSHISH KI AUR KABHI BHI MAINE ITNI SUNDAR KRITIYON KE NIRMAAN KARNE WAALE KE BAARE MEIN NAHI SOCHAA........

    EK SATY SE SAAMNA KARVA DIYA AAPNE.... SHUKRIYA

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  10. बहुत सामयिक और सच्ची बात.हर साल कलकता से सैकडों कलाकार हर जगह जाते हैं मूर्तियां बनाते हैं और लौट जाते हैं न हमने कभी उनके बारे में सोचा और शायद न वे इन प्रतिमाओं के बारे में सोचते हैं. उनके लिये भी ये प्रतिमाएं केवल जीविका का साधन मात्र हैं.

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  11. गणेश दर्शन के समय तो कभी हुई हो मुझे याद नहीं। वैसे जरूर आते-जाते किसी घटना से, अनायास इस तरह की हलचल मन में होती है। कभी बेचैन करती है-कभी सिस्टम लगता है और भूल जाते हैं

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  12. बिल्कुल सच कहा! हम केवल ऊपरी चमक दमक में ही मंत्रमुग्ध हो जाते हैं,लेकिन कोई बिरला ही होता है जो इसके पीछे की सच्चाई को जानने,समझने का प्रयास करता है!!!

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  13. जिन मूर्तियों की पूजा हम बड़ी श्रधा से करते हैं, अक्सर उनको बनाने वाले मुस्लिम होते हैं. फिर भी हम धर्म के नाम पर लड़ते रहते हैं. वैसे क्या सचमुच भगवान् को ढूँढने के लिए मंदिर, मस्जिद या गुरूद्वारे की ज़रुरत है?

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  14. gazab !!

    aapki bhi "माँ नहीं कर पायेगी अमेरिका के अफगान हमले का ज़िक्र" behtrin thi

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  15. शरद जी मैने पड़ोस में आने में देर कर दी माफी चाहता हूं। मुझे नहीं मालूम था पड़ोसी इतना मिलनसार है। आपकी डायरी तो पढ़ नहीं पाया क्योंकि तीन बार उसे खोलने की कोशिश की वह बंद हो गई। खैर, गणेश जी के असली मायका का जिक्र आपने कवि नरेश चंद्रकर के माध्यम से अपने ब्लॉग पर प्रकाशित की है जो मार्मिक भी है और विचारणीय भी। नन्हे पंख की ओर से आपको ढेर सारी शुभकामना। धन्यवाद के साथ आपका----

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  16. शरद जी मैने पड़ोस में आने में देर कर दी माफी चाहता हूं। मुझे नहीं मालूम था पड़ोसी इतना मिलनसार है। आपकी डायरी तो पढ़ नहीं पाया क्योंकि तीन बार उसे खोलने की कोशिश की वह बंद हो गई। खैर, गणेश जी के असली मायका का जिक्र आपने कवि नरेश चंद्रकर के माध्यम से अपने ब्लॉग पर प्रकाशित की है जो मार्मिक भी है और विचारणीय भी। नन्हे पंख की ओर से आपको ढेर सारी शुभकामना। धन्यवाद के साथ आपका----

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  17. शरद जी बहुत सुन्दर रचना है । हम अब साधन को ही साध्य समझने लगे हैं उस उत्सव का अर्थ क्या है इसे समझते ही नहीं बस इस आयोजने के बाद फिर वही सब कुछ करने लगते हैं जो हमारे धर्म मे वर्जित हैं ।मुझे लगता है इस कविता को और आगे बढाया जाना चाहिये था कि बाद मे जब हम इन मिट्टी की मुर्तियों को औन्धे मुह समुद्र मे विसर्जित करते हैं तो क्या होता है इनका हाल मुझे तो ये भी इनका अपमान लगता है अगर यही मूर्तियाँ आते आदि की हो तो शायद सही होता।ब समय आ गया है कि हमे इन आयोजनों की भव्यता पर ध्यान ना देकर इन आयोजनों के मकसद पर ध्यान देना चाहिये। परयावरण के लिये भी ये मिट्टी की मूर्तियां खतरा हैं आपसे इस विषय पर एक आलेख की आपेक्षा है। कविता निस्सन्देह लाजवाब और नई सोच लिये है। नरेन्द्र जी को बहुत बहुत बधाई

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  18. जी आगे से गणेश दर्शन करते हुए मूर्तीकारों को पहले नमन करेगें जिन्हों ने गणेश बनाया।

    आप मेरे ब्लोग पर आये उसके लिए तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ। आप का ई मेल आई डी कहीं नहीं मिला इस लिए यहीं धन्यवाद कह रही हूँ

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  19. SHARAD BHAEE, GHAZAB KAR RAHE HO... PRINT SE ZYADA VEB ME SAKRIYATA... AANAND AA GAYA. PADH RAHA HU AAPKE LEKH. MAI TO BAHUT PEECHHE HU. APNE BHAIYO KO DEKH KAR HI KHUSH HO RAHA HU. SHUBHKAMNAYE, BADHAIYAA. MAI BHI KAR RAHA HU DHIRE-DHIRE NAYACHINTAN. DE RAHA HU APNI GHAZALE. KHAI, SAMVAD BANA RAHEGA.

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  20. मूर्तियों में ढलने से पूर्व
    थैला भर प्लास्टर थे गणेशजी
    सरिये थे जूट के गठ्ठल थे
    भरे ड्रम के गन्दले जल में निराकार पड़े थे

    सोचने पर मजबूर करते शब्द !!!!
    Interesting !!
    Hauslaafzaai ka bhee behad shukriya Sharad ji
    Saadar !!

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