रविवार, मई 10, 2009

माँ की मृत देह के पास बैठकर

8 अगस्त 2001 की वह रात ..बहुत तेज़ बारीश थी .मै 200 किलोमीटर की यात्रा कर भंडारा पहुंचा ,देखा माँ की मृत देह ड्राइंगरूम के बीचों बीच रखी है .मै सदमे मे था.. मुझे तो खबर मिली थी कि माँ बीमार है ..इतनी जल्दी वह कैसे हमे छोडकर जा सकती है ..पता नही क्यों मुझे रोना नही आया .मै माँ के पास जाकर बैठ गया, हाथ में एक कलम थी और एक कागज ..रात भर जाने क्या क्या लिखता रहा मैं.. मुझे लगा जैसे मै माँ से बातें कर रहा हूँ..बहुत दिनों बाद कवि मित्र विजय सिंग घर आये ..वह कागज उन्होनें देखा और कहा "अरे! यह तो कवितायें हैं.. "उनकी पत्रिका "सूत्र" के समकालीन कविता अंक से यह कवितायें .....शरद कोकास
माँ की मृत देह के पास बैठकर - एक

तुम्हारी देह के पास रखे गुलाब को देखकर
बाबूजी ने कहा
तुम किसी को भी बगैर इज़ाज़त
पौधे से फूल तोडने नही देती थीं
माँ आज तुम खुद पौधे से टूटकर
अलग हो गई हो
किसने तोडा तुम्हें
और किसने दी इज़ाज़त
माँ की मृत देह के पास बैठकर- दो

तुम चुप हो माँ
वैसे भी तुम बोलती कहाँ थीं
चुप रहकर सहती रही जीवन भर
वह सब जो एक स्त्री को सहना पडता है
अभी पिछले दिनो तो तुमने बोलना शुरू किया था
हँसकर कहते थे बाबूजी
अब बुढापे मे यह बोलती है
मैं चुप रहकर सुनता हूँ
रो रो कर हम सब भी चुप हो गये हैं माँ
अब बोलो ना तुम...
माँ की मृत देह के पास बैठकर-तीन

ज्यों ज्यों बढ रही है रात
हल्की हल्की ठन्ड लग रही है मुझे
तुम मज़े से चादर ओढे सो रही हो माँ
मेरा मन कर रहा है
तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
जैसे बचपन मे सुलाती थीं..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-चार

अभी अभी तुम्हें उढाइ हुई चादर हिली
मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
जैसे तुमने साँस ली हो.

माँ की मृत देह के पास बैठकर-पांच

कल तुम्हे सौंपना होगा अग्नि के हवाले
तु
म्हारी देह इस रूप में तो हमारे साथ नही रह सकती
वैसे भी तुम अपनी देह के साथ कहाँ रहीं
चोट हमे लगती थी दर्द तुम्हे होता था
हमारे आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे
हमारे खाने से तुम्हारा पेट भर जाता था
पूरी हो जाती थी तुम्हारी नीन्द हमारे जी भर कर सो लेने से
हमारी देह को सक्षम बनाकर
बिना देह के जीती रही तुम
तुम्हारी जिस देह का कल मुझे अंतिम संस्कार करना है
वह तो केवल देह है..

माँ की मृत देह के पास बैठकर-छह

देह को मिट्टी कहते हैं
मिट्टी मिल जाती है मिट्टी में
महकती है बारिश की पहली फुहार मे
तुम भी महकोगी माँ
हर बारिश में..
शरद कोकास
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लीलाधर मंडलोई की कविता 'माँ दिन भर हमारे इंतज़ार मे रहती है 'से एक अंश


प्रकाश रेखाएँ चीरती हैं/सन्नाटे की सुबह/और हडबडाहट से भरी माँ/
भागती है घर की तरफ /खदान का भोंपू बजाता है आठ/
और जाग उठता है दिन/कामगारों का
माँ घर छोडकर(रामभरोसे)/निकल पडती है काम पर
हम उसके लौट आने का इंतज़ार करते हैं/दिन भर/
माँ दिन भर हमारे इंतज़ार में रहती है । मेरी माँ- लीलाधर मंडलोई

लीलाधर मंडलोई








20 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी सभी रचनाऐं भावुक कर देती है. लीलाधर मंडलोई जी रचना का अंशा बहुत पसंद आया.


    मातृ दिवस पर समस्त मातृ-शक्तियों को नमन एवं हार्दिक शुभकामनाऐं.

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  2. शरद जी , आपको पहले भी पढता रहा हूँ ।
    कवितायें व्यथित करती हैं …उदास भी और गहरे तक छूती है।

    http://asuvidha.blogspot.com

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  3. बहुत हीं भावपूर्ण रचनाये है ये.


    चिट्ठाजगत में आपका स्वागत है.......भविष्य के लिये ढेर सारी शुभकामनायें.

    गुलमोहर का फूल

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  4. हूत भावोक............अन्दर तक झक झोरने वाली रचना

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  5. पहल पुस्तिका में शरद कोकास की लम्बी कविता इतिहास वेता पढी थी, क्या उन्हीं शरद कोकास को पढ रहा हूं ? खैर जो भी हों, ब्लाग सुंदर है। बधाई।

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  6. मन को छू लेनेवाली कविताएँ!
    अंतरजाल की हिंदी दुनिया में आपका स्वागत है!

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  7. हिंदी ब्लॉग की दुनिया में आपका तहेदिल से स्वागत है...

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  8. बेहद भावुक...और प्रभावशाली...
    आपको पहले भी पढा़ है...

    मुक्तिबोध के शब्दों में..
    ग्यानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ग्यान.....

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  9. कविता में महकी मां। खुशबू बस गई मन में।

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  10. आप की रचना प्रशंसा के योग्य है . लिखते रहिये
    चिटठा जगत मैं आप का स्वागत है

    गार्गी

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  11. मेरा बुरा न मानें, लेकिन आपसे आग्रह है कि इतनी भावपूर्ण कविताएं सरेआम ब्लॉग पर न डाला करें। पता नहीं क्यों, आपकी कविता (माँ की मृत देह के पास बैठकर) पढ़ कर मैं अपनी भावनाएं रोक नहीं पाया। इससे पहले मेरे साथ एक बार और ऐसा हुआ था, जब मैं समीर लाल जी की लिखी एक कविता पढ़कर रो पड़ा था। आपकी कविता तो वास्तव में एक ऐसी हक़ीकत है, जिसका सामना आधे लोग कर चुके हैं, तो आधे लोगों को करना है। मैं तो उन लोगों को खुशनसीब मानता हूं, जिन्होंने अपनी मां को मृत देखने से पहले ही दुनिया को अलविदा कह दिया। खैर, आग्रह पर गौर कीजिएगा, क्योंकि भावनाओं को छुपा कर रख लेना हर किसी के बूते की बात नहीं होती। मेरे जैसे कमज़ोर लोग भरे पड़े हैं, जिनकी आंखें अकसरा थलकती रहती हैं।

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  12. जीवन के अन्तिम सत्‍य से जोडती हुई रचनाएं, मन को भावुक कर गयीं।


    -Zakir Ali ‘Rajnish’
    { Secretary-TSALIIM & SBAI }

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  13. ... मार्मिक व संवेदनशील रचनाएँ ... प्रभावशाली व प्रसंशनीय हैं।

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  14. माता की ममता एक सॉचे की तरह हैं, जिसमें वह अपने मन के अनुरुप अपनी सन्तान का निर्माण करती है।

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  15. माँ के बारे में पूर्ण-अभिव्यक्ति केवल ‘माँ’शब्द में निहित है।फ़िर भी हम अपने सारे अनन्यतम दुख:-सुख माँ के माध्यम से यानि माँ को मुखातिब होकर ही कर पाते हैं ।आपके मार्मिक व हृद्‌य-स्पृषि उदगार फ़िर लौटे माँ के माध्यम से-
    श्याम सखा श्याम

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  16. aisi jeevant aur marmik rachana, jo usi samay me itani badi yatharth bhi ho,,,,nahi padi maine aaj tak....sharad sahab aapne likhi aisi rachana...aapki samvednao aur lekhini ko sastang naman.......

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  17. शरद जी ,
    माँ के प्रति आपकी भावनाएं पढ़ीं ....पढते पढते आँखें नम हो गयीं ...मेरा मन कर रहा है
    तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
    और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
    जैसे बचपन मे सुलाती थीं..

    जैसे उस वक्त आपका मन बच्चा बन गया था ...

    अभी अभी तुम्हें उढाइ हुई चादर हिली
    मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
    जैसे तुमने साँस ली हो.

    यह भ्रान्ति अक्सर होती है ..क्यों की मन स्वीकार नहीं कर पाता की हमारा प्रिय छोड़ कर जा चुका है ...

    वैसे भी तुम अपनी देह के साथ कहाँ रहीं
    चोट हमे लगती थी दर्द तुम्हे होता था
    हमारे आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे

    माँ के मन के उद्गार बखूबी लिख दिए हैं ..

    महकती है बारिश की पहली फुहार मे
    तुम भी महकोगी माँ
    हर बारिश में..

    यह आपकी भावना सच ही मन को महका गयी....बहुत सुन्दर प्रस्तुति ....

    माँ लीलाधर जी की कविता बहुत अच्छी लगी....यहाँ प्रस्तुत कराने के लिए आभार .

    उनकी पुण्य तिथि आने में एक दिन शेष है ....उनके लिए मन से श्रृद्धांजलि ..

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  18. मर्मस्पर्शी रचनाएँ .
    भावुक कर गयीं सभी रचनाएँ .
    चित्र से ही बहुत स्नेहमयी लग रही हैं.
    आज उनकी पुण्यतिथि है,उन्हें भावभीनी श्रृद्धांजलि .

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  19. शरद जी इन भावनाओं के लिए शब्द नहीं हैं बस भावनाएँ है जो बरबस आँखों से निकली जाती हैं.

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  20. मेरा मन कर रहा है
    तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
    और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
    जैसे बचपन मे सुलाती थीं..

    माँ के साथ सोने का और थपकियाँ पाने की अभिलाषा तब जबकि ....
    बहुत मार्मिक हैं रचनाएँ
    अन्दर तक हिला देती हुई.

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