विश्व तम्बाखू निषेध दिवस पर कवि नसिर अहमद सिकन्दर की कविता
"चुटकी भर" उनके कविता संग्रह "इस वक़्त मेरा कहा "से
तमाम वैधानिक चेतावनी के बावजूद
वह मुंह में
ओंठों के बीच दबी है
वह चुटकी भर है
पर मिर्च नहीं
हल्दी नहीं
नमक नहीं
पर नमक सा स्वाद है उसमें
इसके निर्माण की कला में
निपुण होता है इसका बनाने वाला
हर किसी को नहीं आता यह हुनर
हर कोई नहीं जानता
हथेली और अंगूठे का श्रम
वो देखो!
ठेका श्रमिकों की पूरी टोली
और एक साथी बना रहा इसे
अंगूठे से रगड़ता
हथेलियों की ताल से चूना झराता
अब बारी-बारी सब उठायेंगे
कोई नहीं लेगा ज्यादा
कोई नहीं मारेगा किसी का हक़
बस चुटकी भर
मुंह में
ओंठों के बीच दबायेंगे।
रविवार, मई 31, 2009
रविवार, मई 24, 2009
बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है
इन दिनो शादियों का मौसम है.आप भी शादियों में जाते होंगे और बैंड वालों को अपनी पसन्द की धुन बजाने का आदेश देकर उस पर नृत्य भी करते होंगे.उन बैंड वालों पर कभी ध्यान दिया है आपने? उनकी ज़िन्दगी के बारे में सोचा है? आइये साथ मिलकर सोचते हैं शरद कोकास की इस कविता में..
बैंड बाजे वाले
बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है
लगभग आखरी धुन होती है
दुलहन के द्वार पर जिसे बजाते है बैण्ड्वाले
वे खामोश उदासी में प्राण फूंकते हैं
हवा उनके संगीत पर नृत्य करती है
उनके चेहरे पर इकठ्ठा रक्त
शर्माती दुलहन के चेहरे को मात देता है
तानसेन की आलाप से ऊंचे स्वरों में
उनका क्लेरेनेट अलापता है राग दीपक
तभी हर शाम उनके घर चराग जलते हैं
पृथ्वी की छाती में धड़कता है उनका बैण्ड
मरे हुए चमडे़ से निकलती है आवाज़
जीवन का स्पन्दन बन जाती है
पांवों में थिरकन पैदा करती है
उनके पसीने की महक से सराबोर धुनें
सभ्यता की खोल से बाहर आते हैं आदिम राग
पीढियों का अंतर खत्म हो जाता है
उनकी परम्परा में शामिल है सबकी भूख
उनके पेशे में उनकी अपनी जाति
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर उत्सव में
पीटा जाता है उनकी अहमियत का ढिन्डोरा
उनके संगीत से देवता जागते हैं
उनके संगीत से देवता प्रसन्नहोते है
अपनी कला मे सिध्द हस्त होने के बावजूद
कलाकार के उतरे हुए विशेषण में वे बाजेवाले कहलाते हैं
सदियों से मिली उपेक्षा और अपमान
फटे ढोल की तरह गले में लटकाये
प्लेट और पेट के तयशुदा
अनुपात वाली दावतो में
जूठन की तरह बचे रहते हैं वे
एक सुरीली तूती की तरह बजते हैं बैण्ड्वाले
इस बेसुरी दुनिया के नक्कारखाने में.
शरद कोकास
बैंड बाजे वाले
बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है
लगभग आखरी धुन होती है
दुलहन के द्वार पर जिसे बजाते है बैण्ड्वाले
वे खामोश उदासी में प्राण फूंकते हैं
हवा उनके संगीत पर नृत्य करती है
उनके चेहरे पर इकठ्ठा रक्त
शर्माती दुलहन के चेहरे को मात देता है
तानसेन की आलाप से ऊंचे स्वरों में
उनका क्लेरेनेट अलापता है राग दीपक
तभी हर शाम उनके घर चराग जलते हैं
पृथ्वी की छाती में धड़कता है उनका बैण्ड
मरे हुए चमडे़ से निकलती है आवाज़
जीवन का स्पन्दन बन जाती है
पांवों में थिरकन पैदा करती है
उनके पसीने की महक से सराबोर धुनें
सभ्यता की खोल से बाहर आते हैं आदिम राग
पीढियों का अंतर खत्म हो जाता है
उनकी परम्परा में शामिल है सबकी भूख
उनके पेशे में उनकी अपनी जाति
जन्म से लेकर मृत्यु तक हर उत्सव में
पीटा जाता है उनकी अहमियत का ढिन्डोरा
उनके संगीत से देवता जागते हैं
उनके संगीत से देवता प्रसन्नहोते है
अपनी कला मे सिध्द हस्त होने के बावजूद
कलाकार के उतरे हुए विशेषण में वे बाजेवाले कहलाते हैं
सदियों से मिली उपेक्षा और अपमान
फटे ढोल की तरह गले में लटकाये
प्लेट और पेट के तयशुदा
अनुपात वाली दावतो में
जूठन की तरह बचे रहते हैं वे
एक सुरीली तूती की तरह बजते हैं बैण्ड्वाले
इस बेसुरी दुनिया के नक्कारखाने में.
शरद कोकास
रविवार, मई 10, 2009
माँ की मृत देह के पास बैठकर
8 अगस्त 2001 की वह रात ..बहुत तेज़ बारीश थी .मै 200 किलोमीटर की यात्रा कर भंडारा पहुंचा ,देखा माँ की मृत देह ड्राइंगरूम के बीचों बीच रखी है .मै सदमे मे था.. मुझे तो खबर मिली थी कि माँ बीमार है ..इतनी जल्दी वह कैसे हमे छोडकर जा सकती है ..पता नही क्यों मुझे रोना नही आया .मै माँ के पास जाकर बैठ गया, हाथ में एक कलम थी और एक कागज ..रात भर जाने क्या क्या लिखता रहा मैं.. मुझे लगा जैसे मै माँ से बातें कर रहा हूँ..बहुत दिनों बाद कवि मित्र विजय सिंग घर आये ..वह कागज उन्होनें देखा और कहा "अरे! यह तो कवितायें हैं.. "उनकी पत्रिका "सूत्र" के समकालीन कविता अंक से यह कवितायें .....शरद कोकास
माँ की मृत देह के पास बैठकर - एक
तुम्हारी देह के पास रखे गुलाब को देखकर
बाबूजी ने कहा
तुम किसी को भी बगैर इज़ाज़त
पौधे से फूल तोडने नही देती थीं
माँ आज तुम खुद पौधे से टूटकर
अलग हो गई हो
किसने तोडा तुम्हें
और किसने दी इज़ाज़त
माँ की मृत देह के पास बैठकर- दो
तुम चुप हो माँ
वैसे भी तुम बोलती कहाँ थीं
चुप रहकर सहती रही जीवन भर
वह सब जो एक स्त्री को सहना पडता है
अभी पिछले दिनो तो तुमने बोलना शुरू किया था
हँसकर कहते थे बाबूजी
अब बुढापे मे यह बोलती है
मैं चुप रहकर सुनता हूँ
रो रो कर हम सब भी चुप हो गये हैं माँ
अब बोलो ना तुम...
माँ की मृत देह के पास बैठकर-तीन
ज्यों ज्यों बढ रही है रात
हल्की हल्की ठन्ड लग रही है मुझे
तुम मज़े से चादर ओढे सो रही हो माँ
मेरा मन कर रहा है
तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
जैसे बचपन मे सुलाती थीं..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-चार
अभी अभी तुम्हें उढाइ हुई चादर हिली
मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
जैसे तुमने साँस ली हो.
माँ की मृत देह के पास बैठकर-पांच
कल तुम्हे सौंपना होगा अग्नि के हवाले
तुम्हारी देह इस रूप में तो हमारे साथ नही रह सकती
वैसे भी तुम अपनी देह के साथ कहाँ रहीं
चोट हमे लगती थी दर्द तुम्हे होता था
हमारे आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे
हमारे खाने से तुम्हारा पेट भर जाता था
पूरी हो जाती थी तुम्हारी नीन्द हमारे जी भर कर सो लेने से
हमारी देह को सक्षम बनाकर
बिना देह के जीती रही तुम
तुम्हारी जिस देह का कल मुझे अंतिम संस्कार करना है
वह तो केवल देह है..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-छह
देह को मिट्टी कहते हैं
मिट्टी मिल जाती है मिट्टी में
महकती है बारिश की पहली फुहार मे
तुम भी महकोगी माँ
हर बारिश में..
शरद कोकास
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लीलाधर मंडलोई की कविता 'माँ दिन भर हमारे इंतज़ार मे रहती है 'से एक अंश
प्रकाश रेखाएँ चीरती हैं/सन्नाटे की सुबह/और हडबडाहट से भरी माँ/
भागती है घर की तरफ /खदान का भोंपू बजाता है आठ/
और जाग उठता है दिन/कामगारों का
माँ घर छोडकर(रामभरोसे)/निकल पडती है काम पर
हम उसके लौट आने का इंतज़ार करते हैं/दिन भर/
माँ दिन भर हमारे इंतज़ार में रहती है । मेरी माँ- लीलाधर मंडलोई
लीलाधर मंडलोई
माँ की मृत देह के पास बैठकर - एक
तुम्हारी देह के पास रखे गुलाब को देखकर
बाबूजी ने कहा
तुम किसी को भी बगैर इज़ाज़त
पौधे से फूल तोडने नही देती थीं
माँ आज तुम खुद पौधे से टूटकर
अलग हो गई हो
किसने तोडा तुम्हें
और किसने दी इज़ाज़त
माँ की मृत देह के पास बैठकर- दो
तुम चुप हो माँ
वैसे भी तुम बोलती कहाँ थीं
चुप रहकर सहती रही जीवन भर
वह सब जो एक स्त्री को सहना पडता है
अभी पिछले दिनो तो तुमने बोलना शुरू किया था
हँसकर कहते थे बाबूजी
अब बुढापे मे यह बोलती है
मैं चुप रहकर सुनता हूँ
रो रो कर हम सब भी चुप हो गये हैं माँ
अब बोलो ना तुम...
माँ की मृत देह के पास बैठकर-तीन
ज्यों ज्यों बढ रही है रात
हल्की हल्की ठन्ड लग रही है मुझे
तुम मज़े से चादर ओढे सो रही हो माँ
मेरा मन कर रहा है
तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
जैसे बचपन मे सुलाती थीं..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-चार
अभी अभी तुम्हें उढाइ हुई चादर हिली
मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
जैसे तुमने साँस ली हो.
माँ की मृत देह के पास बैठकर-पांच
कल तुम्हे सौंपना होगा अग्नि के हवाले
तुम्हारी देह इस रूप में तो हमारे साथ नही रह सकती
वैसे भी तुम अपनी देह के साथ कहाँ रहीं
चोट हमे लगती थी दर्द तुम्हे होता था
हमारे आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे
हमारे खाने से तुम्हारा पेट भर जाता था
पूरी हो जाती थी तुम्हारी नीन्द हमारे जी भर कर सो लेने से
हमारी देह को सक्षम बनाकर
बिना देह के जीती रही तुम
तुम्हारी जिस देह का कल मुझे अंतिम संस्कार करना है
वह तो केवल देह है..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-छह
देह को मिट्टी कहते हैं
मिट्टी मिल जाती है मिट्टी में
महकती है बारिश की पहली फुहार मे
तुम भी महकोगी माँ
हर बारिश में..
शरद कोकास
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लीलाधर मंडलोई की कविता 'माँ दिन भर हमारे इंतज़ार मे रहती है 'से एक अंश
प्रकाश रेखाएँ चीरती हैं/सन्नाटे की सुबह/और हडबडाहट से भरी माँ/
भागती है घर की तरफ /खदान का भोंपू बजाता है आठ/
और जाग उठता है दिन/कामगारों का
माँ घर छोडकर(रामभरोसे)/निकल पडती है काम पर
हम उसके लौट आने का इंतज़ार करते हैं/दिन भर/
माँ दिन भर हमारे इंतज़ार में रहती है । मेरी माँ- लीलाधर मंडलोई
लीलाधर मंडलोई
रविवार, मई 03, 2009
3 मई 2009 शरद बिल्लोरे की पुण्यतिथि
लीलाधर मंडलोई की पुस्तक "दिल का किस्सा" में पढें शरद बिल्लोरे पर लेख "मरनेवाले कवि नकलची होते हैं"
शरद बिल्लोरे की पुण्यतिथि पर उन्हें याद कर रहे हैं उनके मित्र शरद कोकास
१९७३- ७४ की बात है.. Regional College OF Education Bhopal में शरद बिल्लोरे बी.ए. आनर्स का छात्र था और मै बी.एस.सी. आनर्स का .श्री लीलाधर मंडलोई हम दोनों के सीनीयर थे और कॉलेज मे प्रवेश करते ही हम दोनो की रेगिंग ले चुके थे और जान चुके थे कि इन दोनो शरद के भीतर कवि नामक एक जीव बसता है ।
शरद बिल्लोरे को हम लोग आशु कवि कहते थे .किसी घटना को घटित होते हुए वह देखता और बोलना शुरु कर देता ..कुछ देर बाद हमें समझ मे आता ..अरे यह तो कविता है .सभी उसकी इस प्रतिभा से चमत्कृत थे .उसकी हरकतें तो इतनी अजीब होती थीं कि पूछो मत..शरद की कक्षा में उसका एक ग्रूप था अतुल व्यास ,रेणु पंजवानी,संतोष जोशी,विजय बुट्टन् और जानी पाल ।श्यामला हिल्स पर कॉलेज हॉस्टल और हरियाली से भरपूर् कैम्पस शाम को अक्सर हम लोग कॉलेज के पीछे पडी बेंचों पर जाकर बैठ जाते और वहाँ से तालाब मे झाँका करते .एक दिन प्रिंसिपल को पता चला तो उन्होने सभी को तलब किया "देखिये कैम्पस मे यह सब नही चलेगा लडके लडकियाँ एक साथ.."सभी घबरा गये लेकिन शरद ने जवाब दिया.."सर हम लोग तो सभी एक ही फेमिली के हैं.. संतोष दा मेरे बडे भाई हैं,उनसे छोटे हैं अतुल व्यास उनसे बडे हैं जानी पाल ,रेणु जानी की छोटी बहन है ,और विजय तो हम सभीकी छोटी लाडली बहन है इस तरह हम सब तो फेमिली मेम्बर हैं "
शरद बिल्लोरे के ऐसे बहुत सारे किस्से मुझे याद हैं.कॉलेज के बाद फिर उससे मुलाकात नही हुई फिर अचानक एक दिन सुना कि अरुणाचल प्रदेश की अपनी नई नौकरी से अपने गाँव रहटगाँव लौटते हुए 3 मई 1980 को कटनी स्टेशन पर लू लगने से उसकी मृत्यु हो गई.अंत मे उसकी एक कविता..घर छोडते समय "विदा के समय /सब आये छोडने/दरवाजे तक माँ/मोटर तक भाई/जंकशन पर बडी गाडी पकडने तक दोस्त /शहर आया अंत तक साथ और लौटा नहीं(शरद के कवितासंग्रह "तय तो यही हुआ था "से साभार)
शरद बिल्लोरे भी कहाँ लौटा ?????
आपका- शरद कोकास
शुक्रवार, मई 01, 2009
लीलाधर मंडलोई की ताज़ा कवितायें
मौसम
आया क्रिकेट का मौसम
अखबारों से विदा हुआ
"पन्ना" खेती किसानी का
किसान विदा हुआ
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(वसुधा से साभार)
मौसम
आया क्रिकेट का मौसम
अखबारों से विदा हुआ
"पन्ना" खेती किसानी का
किसान विदा हुआ
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(वसुधा से साभार)
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