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शनिवार, अप्रैल 09, 2011

चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव 2011 - छठवाँ दिन - अंजुम हसन की कविता

            इस चैत्र नवरात्र कविता उत्सव में आप सभी पाठकों का स्वागत है । आज छठवें दिन हम प्रस्तुत कर रहे हैं बंगलोर की कवयित्री अंजुम हसन की एक कविता जो हमने पत्रिका " प्रतिलिपि " से साभार ली है ।
            कवयित्री का परिचयकवयित्री अंजुम हसन बंगलुरू  में रहती हैं। उनका एक उपन्यास है Lunatic in my Head  जो पेंगुइन - ज़ुबान प्रकाशन से  २००७ में प्रकाशित हुआ है और कविताओं की एक किताब Poems – Street on the Hill  साहित्य अकादेमी से  २००६ में प्रकाशित हुई है। 'ल्युनैटिक इन माइ हेड'  प्रतिष्ठित क्रासवर्ड  फ़िक्शन अवार्ड के भी नामित हुआ था।  इनका महत्वपूर्ण  काम प्रमुख  प्रतिनिधि संग्रहों  एवं चयनिकाओं ,जैसे  Language for a New Century: Contemporary Poetry from the Middle East, Asia, & Beyond  और  Reasons for Belonging: Fourteen Contemporary Indian Poets के अंतर्गत शामिल किया गया है।  उन्होंने  The Hindu Literary Review, Outlook Traveller, Indian Review of Books  और Little Magazine जैसे मंचों  पर भी अपनी  उल्लेखनीय साहित्यिक उपस्थिति दर्ज कराई है।
            अनुवादक का परिचय :इस कविता का अनुवाद किया है प्रसिद्ध कवयित्री व अनुवादक तेजी ग्रोवर ने   - प्रसिद्ध कवयित्री और अनुवादक तेजी ग्रोवर की प्रसिद्ध कृतियाँ  “यहाँ कुछ अन्धेरी और तीखी है नदी  “ , “जैसे परम्परा को सजाते हुए “ , और “  लो कहा साम्बरी “ .सहित उनके पाँच कविता संग्रह व एक उपन्यास प्रकाशित है । तेजी ग्रोवर ने स्कैंडेनेविया की अनेक क्लासीकीय कृतियों का अनुवाद किया है ।उन्हे भारत भूषण स्मृति पुरस्कार , रज़ा फाउंडेशन फेलोशिप प्राप्त हुई है तथा वे 1995 से 1997 तक  प्रेमचन्द पीठ उज्जैन की अध्यक्ष रह चुकी हैं ।
             प्रस्तुत है यह कविता - 




अंजुम हसन 

अपनी माँ के कपड़ों में


मेरी बगलों का पसीना
सहमकर उसके ब्लाऊज को भिगोता है -
शर्मीले, सीले फूल मेरे पसीने के उसके ब्लाऊज पर।

मैं पहनती हूँ उसके प्यास-नीले और जंगल-हरे
और जले-संतरे के रंगों को जैसे वे मेरे हों:
मेरी माँ के रंग मेरी त्वचा पर एक धूल भरे शहर में

मैं उसके कपड़ों में चलती फिरती हूँ
मन ही मन हंसते हुए, इस बोझ से मुक्त
कि आप जो पहनते हैं, वही आप हो जाते हैं:
अपनी माँ के कपड़ों में न तो मैं ख़ुद हूँ न माँ हूँ

तेजी ग्रोवर 
लेकिन कुछ-कुछ उस छह साल की लम्छड सी हूँ
जो अपनी उंगलियों पर माँ की सोने की अंगूठियाँ
चढा लेती है, बड़ा सा कार्डिगन पहन लेती है -
धूप और दूध की गंध से भरा -
और प्यार में ऊंघती फिरती है, कमरों में
जिनके पर्दे जून की शहद भरी रोशनी
के खिलाफ खींच दिये गये हैं

कविता : अंजुम हसन
अनुवाद : तेजी ग्रोवर 


( कल पढ़िये कमला दास की कवितायें जिनका अनुवाद किया है अशोक कुमार पाण्डेय ने )

गुरुवार, अप्रैल 07, 2011

चैत्र नवरात्रि कविता उत्सव 2011 - चतुर्थ दिवस - नीटू दास की कविता



  इस चैत्र नवरात्र कविता उत्सव में आप सभी पाठकों का स्वागत है । इस बार हम लोग भारतीय कवयित्रियों की अंग्रेज़ी कविताओं के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं । अब तक आपने यहाँ रानी जयचन्द्रन , सुकृता और ममांग दाई की कविताओं के अनुवाद पढे । इन मूल अंग्रेज़ी कविताओं का अनुवाद श्री सिद्धेश्वर सिंह ने किया है । इस क्रम में आज पढ़िये नीटू दास की यह कविता । मैं और सिद्धेश्वर सिंह आप सभी पाठकों के आभारी हैं । 
   समकालीन भारतीय कविता में स्त्रीवाद के एक प्रमुख स्वर के रूप में नीटू दास की एक विशिष्ट छवि है। गुवाहाटी में जन्मी और अब दिल्ली निवासिनी इस युवा कवि ने ब्रिटिश राज में असमिया पहचान जैसे विषय पर पी- एच०डी० की डिग्री हासिल की है और संप्रति वे दिल्ली विश्विद्यालय में प्राध्यापक हैं। उनकी कवितायें पोएट्री इंटरनेशनल वेब, म्यूज इंडिया, प्रतिलिपिपोएट्री विद प्रकृति, अल्ट्रा वायलेटजैसे प्रतिष्ठित ऑनलाइन मचों पर उपल्ब्ध हैं तथा वैश्विक स्त्री कविता के प्रतिनिधि संकलन 'नाट अ म्यूजमें संकलित हैं । नीटू दास का कविता संग्रह 'Boki' शीर्षक से २००८ में वर्चुअल आर्टिस्ट्स कलेक्टिव, शिकागो द्वारा प्रकाशित हुआ है।

मेरा चेहरा
( नीटू दास की कविता )
नीटू दास 

अपने हाथों में थामे
अपना चेहरा
मैं कर रही हूँ इसके निशानों की शिनाख्त।

दूर के एक पितृव्य की घूरती आँखे
जीवित हैं मुझमें
जब हम निरखते हैं वृक्षों को
तो वे दिखाई देते हैं खिलखिलाते हुए।
मेरी नाक का
एक भाग दादी का पार्वतिक - पृष्ठ
और दो ढलुँवें हिस्से पिता के दो नथुने।
मेरे पंजों  से अपने पंजे  कुरेदने का
बदमाशी भरा खेल खेलता कोई इंसान
टँगा है मेरे उजबक - मुखड़े पर ।

सिद्धेश्वर सिंह 
फोटोफ्रेम में जड़े अपने पूर्वजों से
मुझे दाय में मिले हैं
मुस्कान - विहीन अधर
जाल और जलधार के मध्य
अँधेरे में  सरकते
मछुआरों से मैंने पाई है त्वचा ।

स्वेद ग्रंथियों
और सूरज के झुलसाव में अवस्थित है
मेरा अपना अतीत ।

मुझमें उभरो
छिपकली की लकीरों की तरह
अकड़ती - डोलती दुम और परतदार आँखों के साथ।
किसी टहनी की चोट की तरह
किसी व्याधि के लघु ज्वाल - मुखविवर की तरह
उभरो मेरी नासिका पर ।

किसी पतंगे के पंखों से झड़ी धूल की तरह
मेरे कपोलों पर
किरकिराये तुम्हारी उपेक्षा ।
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( अनुवाद : सिद्धेश्वर सिंह )

रविवार, अक्टूबर 17, 2010

उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें ... बुदबुदाती हैं धन्यवाद ! धन्यवाद !


8 अक्तूबर से 16 अक्तूबर 2010 तक ब्लॉग “ शरद कोकास “ पर चलने वाले इस नवरात्र कविता उत्सव मे आपने डोगरी कवयित्री पद्मा सचदेव , तेलुगु कवयित्री वरिगिंड सत्य सुरेखा (अनुवाद आर शांता सुन्दरी) ,असमिया कवयित्री निर्मल प्रभा बोरदोलोई (अनुवाद सिद्धेश्वर सिंह ) ,मराठी कवयित्री ज्योती लांजेवार ( अनुवाद शरद कोकास ) , मैथिली कवयित्री शेफालिका वर्मा , मलयाळम कवयित्री सुगत कुमारी ( अनुवाद जी. बालकृष्ण पिल्लै) ,ओड़िया कवयित्री प्रतिभा शतपथी ( अनुवाद राजेन्द्र प्रसाद मिश्र ) , सिन्धी कवयित्री विम्मी सदारंगाणी तथा बांगला कवयित्री जया मित्र ( अनुवाद नीता बनर्जी) की कविताएँ और उनके अनुवाद पढ़े ।
इस कविता उत्सव में अनेक पाठकों , कविता प्रेमियों , कवि और ब्लॉगर्स ने अपनी भागीदारी दर्ज की ।
            8 अक्तूबर 2010 को प्रकाशितपद्मा सचदेव की कविता के बारे में गिरीश पंकज कहते हैं स्त्री लेखन की सही दिशा क्या हो सकती है , यह कविता तय करती है । रूपचन्द शास्त्री मयंक ने कहा यह परिवेश का सुन्दर चित्रण करती है । संगीता ने कहा पद्मा जी के बारे में जानना ,उन्हे पढ़ना सुखद अनुभूति है । रश्मि रविजा ने कहा पद्मा जी की रचना बहुत दिनों बाद पढी । सुशीला पुरी ने कहा यह कविता कई सवाल खड़े करती है । सागर ने इसे आज के संदर्भ में अच्छी कविता बताया । रन्जू भाटिया ने कहा पद्मा जी को पढ़ना अच्छा लगा । शिखा वार्ष्णेय ने कहा इस कविता की एक एक पन्क्ति छू जाती है । शोभना चौरे ने कहा पद्माजी उनकी पसन्दीदा कवयित्री हैं ।ताऊ रामपुरिया ने कहा कि इस कविता में पद्मा जी की खासियत के अनुरूप एक एक शब्द है । डॉ. टी एस दराल ने पद्मा जी से इस शृंखला के श्रीगणेश को बेहतर बताया । महेन्द्र वर्मा ने पद्मा जी के धर्मयुग में प्रकाशन के दिनों की बात की । जे पी तिवारी , मनोज ,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ , अली ,राज भाटिया , देवेन्द्र पाण्डे , संजीव तिवारी ,वाणी गीत ,संजय भास्कर को यह कविता पसन्द आई । परमजीत सिंह बाली , अलबेला खत्रीडॉ. मोनिका शर्मा को ने इसे अच्छी प्रस्तुति बताया । 
                        9 अक्तूबर 2010 को  प्रकाशित वरिगोंड सत्य सुरेखा की तेलुगु कविता पर बहुत सारी प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं । प्रवीण त्रिवेदी ने कहा सच है इन प्रश्नों के जवाब नहीं ही मिलने वाले  मनोज कुमार ने कहा हँसी हँसी में गहरी बात कह दी गई है ।रावेन्द्र कुमार रवि ने कहा कि यह महसूस करने की बात है कि प्रश्नकर्ता और उत्तर न देने वाले की हँसी में क्या अंतर है ।इस्मत ज़ैदी ने कविता में प्रश्नों के उत्तर ढूँढने के इस प्रयास को सराहनीय बताया निशांत ने कहा चलानो वालो से बड़े उनसे भी बड़े चलाने वाले । एस एम मासूम, पारुल ,अजय कुमार ,देवेन्द्र पाण्डेय ,राज भाटिया ,ज्योति सिंह ,पूनम श्रीवास्तव,दीपक बाबा को यह कविता पसंद आई । संगीता स्वरूप ने कहा कि कवयित्री ने मन की वेदना कह दी है । वन्दना ने इसे सार्थक अभिव्यक्ति कहा और शाहिद मिर्ज़ा ने कहा कि सवाल जवाब का यह सिलसिला कभी नही थमेगा । शोभना चौरे ने कहा इस पीड़ा को अंतर्मन से समझने की कोशिश रही हूँ ।रश्मि रविजा ने कहा कि जवाब किसीके पास नहीं है इसलिये लोग सवालों पर हँस पड़ते हैं । सुशीला पुरी ने कहा कि विवशता में भी हँसकर खुद को बहलाया जा सकता है ।वाणी गीत ने कहा कि सवाल का जवाब भी अगर सवाल है तो हँसने के सिवा क्या किया जा सकता है ।महेन्द्र वर्मा ने चांद और डर के अनूठे बिम्ब का ज़िक्र किया । समीर लाल ने कहा कि पीड़ा का चरम भी अक्सर हँसी में तब्दील होते देखा है । राहुल सिंह ने कहा जग ह कहत भगत बहिया ,भगत ह कहत जगत बहिया .। एक ब्लॉगर की टिप्पणी बहुत दिनों बाद मिली ..कोपल कोकास ने कहा हँसने वालों को देखकर हँसी रोकना मुश्किल है तो हँसना ही बेहतर है । उत्तम राव क्षीरसागर ने इसे अपने उद्देशय में सफल कविता बताया । गत वर्ष 19 सितम्बर 2009 से 27 सितम्बर 2009 तक के शारदीय नवरात्र कविता उत्सव में शामिल श्री पी सी गोदियाल , दिनेश राय द्विवेदी , निर्मला कपिला अशोक कुमार पाण्डेय,मिथिलेश दुबे, मीनू खरे, विनोद कुमार पाण्डेय , समयचक्र, हेमंत कुमार ,टी एस दराल,भूतनाथ, सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी, विनीता यशस्वी , मिता दास ,लावण्या शाह ,पंकज नारायण और कुलवंत हैप्पी को भी मैंने याद किया  ।   
            10 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित  असमिया कवयित्री निर्मलाप्रभा बोरदोलोई की कविता के पाठकों के रूप में फिर कुछ नये लोगों का आगमन हुआ । उन सभी का मैंने स्वागत किया । उनके उद्धरण इस प्रकार हैं । डॉ.नूतन नीति ने कहा इच्छा अंतस मन बेहद अच्छी लगी । शाहिद मिर्ज़ा ने कहा कि दोनों कवितायें मर्मस्पर्शी हैं । डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक एवं उपेन्द्र जी ने मूल कविता का भाव हूबहू कविता में उतारने के लिए  अनुवादक  सिद्धेश्वर जी की प्रशंसा की । संगीता स्वरूप ने इन्हे अतीत से जुड़ती भविष्य की कविता निरूपित किया । देवेन्द्र पाण्डेय ,राज भाटिया , काजल कुमार और कुसुम कुसुमेश जी को कवितायें अच्छी लगीं । राजेश उत्साही ने अपनी विस्तृत टिप्पणी में कहा कि ब्लॉग में अच्छे पाठक कैसे तैयार हों इस दिशा में सोचना ज़रूरी है । महेन्द्र वर्मा ने कहा कि सिद्धेश्वर जी ठीक कहते हैं अच्छी कविता ठहराव चाहती है । दिगम्बर नासवा ने इन्हे कम शब्दों में गहरी वेदना व्यक्त करने वाली कवितायें कहा ।वन्दना जी ने इन्हे स्त्री मन की अंतर्वेदना व्यक्त करने वाली कवितायें कहा और इस पोस्ट को चर्चा मंच में शमिल करने की सूचना दी । वन्दना अवस्थी दुबे ने कविताओं के परिप्रेक्ष्य में कहा कि ऐसा हमारे पास क्या है जिसे हम यादों के रूप में सहेज जायें ।डॉ. टी एस.दराल ने दुख को मर्मस्पर्शी तथा इच्छा को सचेत करती प्रेरणात्मक रचना बताया ।डॉ. मोनिका शर्मा , उस्ताद जी और  ZEAL को यह कवितायें अच्छी लगीं ।प्रज्ञा पाण्डेय ने इसे मन को मथने वाली कविता कहा और सुशीला पुरी ने कहा कि कवयित्री की इच्छा समूचे विश्व से जोड़ती है ।बहुत दिनो बाद पधारी आशा जोगलेकर ने कहा सिद्धेश्वर जी ने कविता की आत्मा अक्षुण्ण रखी है। रावेन्द्र कुमार संजय भास्कर व अजय कुमार ने भी अपनी उपस्थिति  दर्ज कराई ।
                        11 अक्तूबर को प्रकाशित  ज्योती लांजेवार की मराठी कविता पर अनेक सुधि पाठकों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई । इन प्रतिक्रियाओं से एक एक पंक्ति उद्धृत  कर रहा हूँ । इन्हे अवश्य पढ़िये । देवेन्द्र पाण्डेय - वेदना की गन्ध को एक क्षण बसा लेने की आकांक्षा अधुत अहसास कराती है । पद्म सिंह - बहुत अच्छी तरह उकेरे गये भाव । ललित शर्मा - बेहतरीन रचना और अनुवाद । इस्मत ज़ैदी - कोमल भावों की व्याख्या करती सुन्दर रचना ।  संगीता स्वरूप ,एस एम मासूम -स्नेहिल स्पर्श के महत्व को बताती सुन्दर रचना । के के यादव- मराठी ने ही सर्वप्रथम दलित साहित्य को ऊँचाइयाँ दीं । डॉ.मोनिका शर्मा -प्रभावी और भावपूर्ण रचना । उस्ताद जी -बोझिल । वन्दना -बहुत सुन्दर अनुवाद । सिद्धेश्वर सिंह -एक अच्छी कविता पढ़ने के सुख में हूँ । रंजू भाटिया - अनुवाद बहुत अच्छा किया है आपने । सुशीला पुरी -  प्रेम भी एक तरह का युद्ध है । महेन्द्र वर्मा -  अपने प्रिय से गहन आत्मीयता को अभिव्यक्त करती कविता । पी एन सुब्रमनियन - अनुवाद में मूल भावनाओं को समेटना बहुत कठिन होता है । मनोज कुमार - कविता भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है मुक्ति - दलित कवियत्रियों की कविताओं में एक वेदना तो होती ही है । संजय भास्कर  - मूल भाव अभियव्यक्ति लाजवाब है । शाहिद मिर्ज़ा  - आपके अनुवाद से आया निखार चार चांद लगा रहा है । शिखा वार्ष्णेय - कविता में पवन के माध्यम से वेदना को उकेरना बहुत प्रभावी लगा । ज्योति सिंह -पवन के मध्यम से गहरी बात कही गई है ।  वाणी गीत - सदियों से हाशिये पर रहे लोगों के लिए प्रेम सिर्फ रोमांस नहीं हो सकता आकांक्षा - सुन्दर कविता. और सार्थक अनुवाद रश्मि रविजा - किसी भी वेदना को स्नेहिल स्पर्श की आकांक्षा जरूर होती है डॉ. टी एस दराल - अनुवाद में किये गए शब्दों के प्रयोग दिलचस्प हैं  समीर लाल - प्रेम की वेदना...अनुवाद में भी वही प्रवाह...और भावों की महक ! कैलाश - मराठी की दलित प्रेम कविता को प्रस्तुत करने के लिए आपका शुक्रियाराजेश उत्साही - अनुवाद और सहज और सरल हो सकता थाडॉ. रूपचन्द शास्त्री - शब्दों के मोतियों को टाँकने मे आपने कमाल किया है । रचना दीक्षित - सचमुच खूबसूरत कविता । zeal - परिचय करवाने का आभार और बेहतरीन अनुवाद के लिए आपको बधाई राज भाटिया - बहुत अच्छी कविता जी । रावेन्द्रकुमार रवि - उपस्थित श्रीमानउत्तम राव क्षीर सागर - अंति‍म पद की पहली पंक्‍ति‍ खटकती है मेरे हि‍साब से यह 'अपने भीतर बसा लेना उसे' होती शोभना चौरे - मराठी से हिंदी अनुवाद सुन्दर है | वन्दना अवस्थी दुबे -कितनी मासूम इच्छा है!!! बहुत सुन्दर
12 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित  शेफालिकावर्मा की मैथिली कविता पर बहुत सारे नये पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की । जबलपुर से हमारे पुराने साथी महेन्द्र मिश्र ने कहा शेफालिका वर्मा जी की रचना बहुत जोरदार है मिता दास ने कहा साँस लेना ही ज़िन्दगी नहीं । रंजू भाटिया - बहुत सुन्दर । आकांक्षा - शेफालिका वर्मा जी की रचना लाजवाब है । डॉ. मोनिका शर्मा -बहुत अच्छी रचना साझा की है आपने ।  संजय भास्कर - शेफालिका वर्मा जी से मिलवाने के लिए धन्यवाद । वन्दना - कविता एक सार्थक सन्देश दे रही है । वाणी गीत-जीवन की सार्थकता पर अच्छी कविता । इस्मत ज़ैदी - बहुत सुन्दर भावों के साथ संस्कारों की सीख देती रचना  सदा - बहुत ही सुन्दर व प्रेरक प्रस्तुति । रश्मि रविजा - जीने का अर्थ तलाशने की सीख देती सुन्दर कविता । महेन्द्र वर्मा - यह कविता कवयित्री के दार्शनैक दृष्टिकोण को सफलता पूर्वक अभिव्यक्त करती है । सुशीला पुरी - एक दूसरे के आँसू पोछने मे ही जीने की सार्थकता है । शोभना चौरे -सूरज बादल के माध्यम से शेफाली जी ने बहुत प्रेरक बात कही है ।  जयकृष्ण राय तुषार- बहुत सुन्दर रचना । डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक - इस सोद्देश्य रचना को पढ़वाने के लिए धन्यवाद । शिखा वार्ष्णेय - शेफलिका जी की रचना मे जीवन की सार्थकता दिखती है । दीपक बाबा- मै इस कविता को जीने की कला कहूँगा । ज़ील - शेफालिका जी से परिचय के लिए आभार । उस्ताद जी - सुन्दर सशक्त । देवेन्द्र पाण्डेय - सार्थकता जीवन का उद्देश्य नहीं प्रक्रिया है । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - नायाब रचनायें पढ़ने को मिल रही हैं । रचना दीक्षित - लाजवाब रचना अच्छी अभिव्यक्ति । डॉ.टी एस दराल-कविता क्या यह तो ज्ञान का भंडार है ।
13 अक्तूबर 2010 कोप्रकाशित मलयाळम कवयित्री सुगत कुमारी की कविता पर अख्तर खान अकेला ,राजेश उत्साही ,अर्पिता ,इस्मत ज़ैदी डॉ. मोनिका . संगीता स्वरूप , शाहिद मिर्ज़ा , सदा , उस्ताद जी , शोभना , डॉ. अनुराग , अनिल कांत , शिखा वार्ष्णेय , रश्मि रविजा ,वन्दना , समीर लाल , ज़ील . झरोखा , उपेन्द्र , महेन्द्र वर्मा , प्रवीण पाण्डेय , सुशीला पुरी, डॉ. टी एस दराल  देवेन्द्र पाण्डेय , संजय भास्कर ,अजय कुमार , राजेश्वर वशिष्ठ , डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक . प्रो. अली ,और अभिषेक ओझा ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की । 
14 अक्तूबर 2010 को प्रकाशित ओड़िया कवयित्री प्रतिभा शतपथी की कविता पर नवरात्र कविता उत्सव के सातवें दिन कविता के प्रेमी इन पाठकों के विचार प्राप्त हुए । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - कितना कुछ सीखने का मौका दिया आपने ।संगीता स्वरूप - मार्मिक अभिव्यक्ति ।ज़ील - मार्मिक अभिव्यक्ति , इन कवयित्रियों से परिचय के लिए आभार ।रचना दीक्षित -  बेहद मार्मिक ,मानवता को झकझोरती हुई । सुनील गज्जाणी -  आपका आभार कि यह आपने हम तक पहुँचाया । इस्मत ज़ैदी - कितने दुख हैं समाज में ऐसे में गुल ओ बुलबुल की बातें निरर्थक लगने लगती हैं । अनिल कांत - आपके इस कर्म से मिलने वाले लाभ को केवल प्रशंसा कर देने से वर्णित नहीं किया जा सकता । शोभना चौरे - बहुत ही गहरी वेदना को अभिव्यक्त करती सशक्त कविता । वन्दना - बेहद मर्मस्पर्शी रचना झकझोर जाती है ।शिखा वार्ष्णेय - दिल को छू लेने वाली कविता । रश्मि रविजा - बहुत ही उम्दा कविता । उपेन्द्र - इतनी अच्छी कविताओं से परिचय आपके प्रयास के बगैर मुमकिन नहीं ।प्रवीण पाण्डेय - इतने आयाम हैं नारी मन के । डॉ. अनुराग - इस बार का कथादेश अभी कल ही हाथ आया है । शुक्रिया इस कविता को बाँटने के लिए । राजेश उत्साही - एक सच्ची स्त्री से ईश्वर भी डरता है । महेन्द्र वर्मा - एक वेदनाव्यथित नारी और शक्तिस्वरूपा नारी दोनो का प्रभावशाली चित्रण ।डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक -इस कविता को पढ़कर “लुच्च बड़ा परमेश्वर से कहावत का स्मरण हो आया । समीर लाल उड़न तश्तरी - बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति रही । राजेश्वर वशिष्ठ - बेहतरीन कविता व अनुवाद । संजय भास्कर - बेहतरीन कविता के लिए धन्यवाद । अशोक बजाज -अच्छी प्रस्तुति । अमिताभ श्रीवास्तव -अभी तो सात कविता ही हुई हैं दो का इंतज़ार है ।रानी विशाल - मर्मस्पर्शी रचना । प्रो. अली -भयभीत होते ईश्वर का खयाल बहुत रोमांचित करता है । वाणी गीत - बेहद मार्मिक आभार ।
15 अक्तूबर 2010 आठवें दिन प्रकाशित विम्मी सदारंगाणी की कविता पर ओपनिंग बैट्समैन की तरह शुरुआत करते हुए संजय भास्कर ने कहा – “मैं कोल्ड कॉफी के ले वेटर को बुलाती हूँ ..अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया । डॉ. मोनिका शर्मा ने सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार व्यक्त किया । वन्दना ने कहा इन कविताओं में बहुत कुछ अनकहा छुपा है । महेन्द्र वर्मा ने कहा पहली कविता में युवा मन की अपेक्षा दूसरी में बाल मन द्वारा दुनिया की उपेक्षा है । दीपक बाबा ने कहा ये आवारा किस्म के खयाल बेहतरीन कवियों की ही अमानत हैं । राजेश उत्साही ने कहा विम्मी जी की कविता दिल पर ऐसे गिरती है जैसे किसी ने गरम गरम चाय उंडेल दी हो ।दूसरी कविता आज के समकालीन परिदृश्य में असहिष्णु होते समाज की बात करती है । इसमत ज़ैदी ने कहा बार बार पढ़नी होगी यह कविता ।संगीता स्वरूप ने कहा आपके माध्यम से अनेक भाषाओं की कवयित्रियों से परिचय हुआ । सदा ने कहा बहुत सुन्दर रचनायें ...आप एक माध्यम बने इन रचनाओं के लिए । प्रवीण पाण्डेय ने कहा दोनो की दोनो सशक्त रचनायें ।शाहिद मिर्ज़ा ने कहा अच्छी और दुर्लभ रचनायें पढ़ने को मिलीं ।डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक ने कहा दोनो कवितायें बहुत ही गहन भाव अपने में समेटे हुए हैं । अली साहब ने कहा गान्धी जी से थोड़ी इज़्ज़त से पेश आया जा सकता था । कविता मानीखेज़ है । दीपक मशाल ने कहा पूरी कविता वर्कशॉप की तरह लगी यह मालिका । डॉ. दिव्या,ज़ील ने कहा अनॉदर ग्रेट कलेक्शन ।  डॉ. टी एस दराल ने कहा दूसरी कविता को समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ेगा ।अमिताभ मीत ने कहा यह कविता बार बार पढ़ी , समझने की कोशिश की जाएगी ।समीर भाई उड़न तश्तरी ने कहा काश इस चोट की धमक सही जगह पहुँचे ।अनामिका की सदायें ने कहा इनमे स्त्री ,समाज और पुरुषवादी मानसिकता को लेकर अनेक अर्थ हैं ।रानी विशाल ने कहा इन कविताओं के माध्यम से काव्यशिल्प के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है । अनिल कांत ने कहा कितना कुछ कह देती हैं विम्मी जी । अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी इस सत्र में पहली बार आये उनका स्वागत उन्होने कहा ..प्रेम का जेट विमान भी गजब होता है । एक समय में इतिहास के दो चेहरे ,हम कहाँ है व हमारी भूमिका कैसी है इस पर प्रश्न है ।हम लुका छिपी के खेल ( इतिहास के प्रति अगम्भीरता ) में आँख मुन्दिया हो गए हैं । सिद्धेश्वर जी ने कविता की जयजयकार की ।
16 अक्तूबर अंतिम दिन प्रकाशित बांगला कवयित्री जया मित्रा की कविता पर संजय भास्कर , ताऊ रामपुरिया ,ललित शर्मा , राजेश उत्साही , उस्ताद जी , डॉ. दिव्या , डॉ. मोनिका शर्मा . डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक ,महेन्द्र वर्मा , वन्दना , देवेन्द्र पाण्डेय , रचना दीक्षित , इस्मत ज़ैदी , शिखा वार्ष्णेय , रश्मि रविजा , डॉ. टी एस दराल , राज भाटिया , सूर्यकांत गुप्ता ,प्रवीण पाण्डेय , शाहिद मिर्ज़ा शाहिद ,वन्दना अवस्थी दुबे , अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी , गिरीश पंकज , गिरिजा कुलश्रेष्ठ ,वाणी गीत , प्रो. अली ,अशोक बजाज गिरीश बिल्लोरे व नूतन नीति की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं ।
इन नौ दिनो तक आपका स्नेह व सहयोग मुझे मिलता रहा , आभारी हूँ । इस ब्लॉग पर निरंतर बेहतरीन कवितायें देता रहूंगा  । आप हमेशा आते रहेंगे ऐसा विश्वास है । आभार उन साथियों का भी जो अन्यान्य व्यस्तताओं के कारण फिलहाल नहीं आ पाये ।
धन्यवाद मैं क्या कहूँ वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह की कविता “ उमस “ में तो कवितायें खुद धन्यवाद दे रही हैं ..........
पर मौसम चाहे जितना खराब हो
उम्मीद नहीं छोड़ती कवितायें
वे किसी अदृश्य खिड़की से
चुपचाप देखती रहती हैं
हर आते जाते को
और बुदबुदाती हैं  -   
धन्यवाद ! धन्यवाद !

1983 में लिखी केदार जी की यह कविता मुझे आज ब्लॉग के सन्दर्भ में कितनी सही लग रही है । यह कवि भी कह रहा है ....... धन्यवाद ! धन्यवाद !  
निवेदन - कृपया मेरा ब्लॉग पास पड़ोस देखें , एक नई तरह की किताब के बारे में ।