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शनिवार, अक्टूबर 16, 2010

नवरात्र कविता उत्सव - अंतिम दिन - बांगला कविता - जया मित्र

ओ मेरे देश ! तुम्ही को ढूँढती फिर रही हूँ ।

कल प्रकाशित विम्मी सदारंगाणी की कविता पर ओपनिंग बैट्समैन की तरह शुरुआत करते हुए संजय भास्कर ने कहा – “मैं कोल्ड कॉफी के लिये वेटर को बुलाती हूँ ..अंतिम पंक्तियों ने मन मोह लिया । डॉ. मोनिका शर्मा ने सुन्दर रचना पढ़वाने के लिए आभार व्यक्त किया । वन्दना ने कहा इन कविताओं में बहुत कुछ अनकहा छुपा है । महेन्द्र वर्मा ने कहा पहली कविता में युवा मन की अपेक्षा दूसरी में बाल मन द्वारा दुनिया की उपेक्षा है । दीपक बाबा ने कहा ये आवारा किस्म के खयाल बेहतरीन कवियों की ही अमानत हैं । राजेश उत्साही ने कहा विम्मी जी की कविता दिल पर ऐसे गिरती है जैसे किसी ने गरम गरम चाय उंडेल दी हो ।दूसरी कविता आज के समकालीन परिदृश्य में असहिष्णु होते समाज की बात करती है । इसमत ज़ैदी ने कहा बार बार पढ़नी होगी यह कविता । संगीता स्वरूप ने कहा आपके माध्यम से अनेक भाषाओं की कवयित्रियों से परिचय हुआ । सदा ने कहा बहुत सुन्दर रचनायें ...आप एक माध्यम बने इन रचनाओं के लिए । प्रवीण पाण्डेय ने कहा दोनों की दोनों सशक्त रचनायें । शाहिद मिर्ज़ा ने कहा अच्छी और दुर्लभ रचनायें पढ़ने को मिलीं ।डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक ने कहा दोनों कवितायें बहुत ही गहन भाव अपने में समेटे हुए हैं । अली साहब ने कहा गान्धी जी से थोड़ी इज़्ज़त से पेश आया जा सकता था । कविता मानीखेज़ है । दीपक मशाल ने कहा पूरी कविता वर्कशॉप की तरह लगी यह मालिका । डॉ. दिव्या , ज़ील ने कहा अनॉदर ग्रेट कलेक्शन ।  डॉ. टी एस दराल ने कहा दूसरी कविता को समझने के लिए दिमाग लगाना पड़ेगा । अमिताभ मीत ने कहा यह कविता बार बार पढ़ी , समझने की कोशिश की जाएगी । समीर भाई उड़न तश्तरी ने कहा काश इस चोट की धमक सही जगह पहुँचे । अनामिका की सदायें ने कहा इनमे स्त्री ,समाज और पुरुषवादी मानसिकता को लेकर अनेक अर्थ हैं । रानी विशाल ने कहा इन कविताओं के माध्यम से काव्यशिल्प के बारे में बहुत कुछ सीखने को मिल रहा है । अनिल कांत ने कहा कितना कुछ कह देती हैं विम्मी जी । अमरेन्द्र नाथ त्रिपाठी इस सत्र में पहली बार आये , उनका स्वागत है , उन्होने कहा ..प्रेम का जेट विमान भी गजब होता है । एक समय में इतिहास के दो चेहरे ,हम कहाँ है व हमारी भूमिका कैसी है इस पर प्रश्न है । हम लुका छिपी के खेल ( इतिहास के प्रति अगम्भीरता ) में आँख मुन्दिया हो गए हैं । सिद्धेश्वर जी ने कविता की जयजयकार की ।    
16 अक्तूबर 2010 । नवरात्र कविता उत्सव के अंतिम दिन आज प्रस्तुत है बांगला कवयित्री जया मित्र की कविता । इस कविता का बांगला से हिन्दी अनुवाद किया है नीता बैनर्जी ने । यह कविता “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के  अंक 94 से साभार । यह कविता 2001 में प्रकाशित है लेकिन इसे पढ़कर जाने क्यों ऐसा लगा कि यह बिलकुल अभी अभी लिखी गई है । आपको भी ऐसा लगता है क्या ? 
16 अक्तूबर 2010 । नवरात्र कविता उत्सव के अंतिम दिन आज प्रस्तुत है बांगला कवयित्री जया मित्र की कविता । इस कविता का बांगला से हिन्दी अनुवाद किया है नीता बैनर्जी ने । यह कविता “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के  अंक 94 से साभार । यह कविता 2001 में प्रकाशित है लेकिन इसे पढ़कर जाने क्यों ऐसा लगा कि यह बिलकुल अभी अभी लिखी गई है । आपको भी ऐसा लगता है क्या ?  

मेरा स्वदेश आज

हाथ बढ़ाने से
कुछ नहीं छू पाती उंगलियाँ
न हवा
न कुहासा
न ही नदी की गंध
बस कीचड़ में डूबते जा रहे हैं
तलुवे पाँवों के

अरे ! ये क्या है ?
पानी ?
या इंसान के खून की धारा ?
अन्धकार इस प्रश्न का
कोई जवाब नहीं देता
मेरे एक ओर फैली है
ख़ाक उजड़ी बस्ती
दूसरी ओर
खंड -  खंड हुई यह ज़मीन

बीच के इस खालीपन में खड़ी
शून्य ह्दय से मैं
उध्वस्त भीड़ के
रोते हुए खोए -  खोए चेहरों में
ओ मेरे देश !
तुम्ही को ढूँढती फिर रही हूँ ।
-       जया मित्र

कवयित्री का परिचयजया मित्र – जन्म 21 सितम्बर 1950 , धनबाद । उद्दलोक नामे डाको ,प्रत्न प्रस्तरेर गान , दीर्घा एकतारा  ( कविता संग्रह ) एकती उपकथार जन्म , माटी ओ शिकार ( उपन्यास ) युद्धपर्व ( कहानी संग्रह ) साहित्य अकादेमी के अनुवाद पुरस्कार तथा आनन्द पुरस्कार से सम्मानित ।
अनुवादक का परिचय – नीता बैनर्जी – जन्म 17 नवम्बर 1948 मुम्बई । असमिया बांगला , राजस्थानी हिन्दी व अंग्रेज़ी में अनुवाद । उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान और भारतीय अनुवाद परिषद से सम्मानित । 
(चित्र गूगल से साभार )   


शुक्रवार, अक्टूबर 15, 2010

नवरात्र कविता उत्सव - आठवाँ दिन - सिन्धी कवयित्री - विम्मी सदारंगाणी

            हम लुका छिपी खेलेंगे जब हिटलर सोया पड़ा होगा 

नवरात्र कविता उत्सव के सातवें दिन ओड़िया कवयित्री प्रतिभा शतपथी की कविता पर कविता के प्रेमी इन पाठकों के विचार प्राप्त हुए । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - कितना कुछ सीखने का मौका दिया आपने । संगीता स्वरूप - मार्मिक अभिव्यक्ति । डॉ.दिव्या श्रीवास्तव ज़ील - मार्मिक अभिव्यक्ति , इन कवयित्रियों से परिचय के लिए आभार । रचना दीक्षित -  बेहद मार्मिक ,मानवता को झकझोरती हुई । सुनील गज्जाणी -  आपका आभार कि यह आपने हम तक पहुँचाया । इस्मत ज़ैदी - कितने दुख हैं समाज में ऐसे में गुल ओ बुलबुल की बातें निरर्थक लगने लगती हैंअनिल कांत  - आपके इस कर्म से मिलने वाले लाभ को केवल प्रशंसा कर देने से वर्णित नहीं किया जा सकता । शोभना चौरे - बहुत ही गहरी वेदना को अभिव्यक्त करती सशक्त कविता । वन्दना (चर्चा मंच )- बेहद मर्मस्पर्शी रचना झकझोर जाती है ।  शिखा वार्ष्णेय - दिल को छू लेने वाली कविता । रश्मि रविजा - बहुत ही उम्दा कविता ।  उपेन्द्र - इतनी अच्छी कविताओं से परिचय आपके प्रयास के बगैर मुमकिन नहीं । प्रवीण पाण्डेय - इतने आयाम हैं नारी मन के ।             डॉ. अनुराग - इस बार का कथादेश अभी कल ही हाथ आया है । शुक्रिया इस कविता को बाँटने के लिए । राजेश उत्साही - एक सच्ची स्त्री से ईश्वर भी डरता है । महेन्द्र वर्मा - एक वेदनाव्यथित नारी और शक्तिस्वरूपा नारी दोनो का प्रभावशाली चित्रण । डॉ. रूपचन्द शास्त्री मयंक -इस कविता को पढ़कर “लुच्च बड़ा परमेश्वर से कहावत का स्मरण हो आया । समीर लाल उड़नतश्तरी - बहुत ही बेहतरीन अभिव्यक्ति रही । राजेश्वर वशिष्ठ - बेहतरीन कविता व अनुवाद । संजय भास्कर - बेहतरीन कविता के लिए धन्यवाद । अशोक बजाज -अच्छी प्रस्तुति । अमिताभ श्रीवास्तव - अभी तो सात कविता ही हुई हैं दो का इंतज़ार है । रानी विशाल - मर्मस्पर्शी रचना । प्रो. अली -भयभीत होते ईश्वर का खयाल बहुत रोमांचित करता है । वाणी गीत - बेहद मार्मिक आभार । 
  
15 अक्तूबर 2010 । आज नवरात्र के आठवें दिन प्रस्तुत है सिंधी कवयित्री विम्मी सदारंगाणी की यह दो छोटी छोटी प्रेम कवितायें जो दिखने में बहुत छोटी हैं और बहुत सरल शब्दों में रची गई हैं । लेकिन जब मैं इनके निहितार्थ सोचने लगा तो इनमें स्त्री और समाज और पुरुषवादी मानसिकता को लेकर अनेक अर्थ खुलने लगे । आप को भी इनमें अनेक अर्थ नज़र आयेंगे । मुझे लगा यह कवितायें आप लोगों को ज़रूर पढवानी चाहिये । कविता छोटी हो या लम्बी वह कविता होनी चाहिये । प्रस्तुत कविता “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 93 से साभार ।


1.वेटर को बुलाती हूँ

 
चाय का प्याला मैंने
तुम्हारी तरफ बढ़ाया
 

तुमने मेरी ओर नज़र घुमाई
तुम्हारी ठंडी आँखें
मेरे गरम होंठ
मेरी चाय में बाल कहाँ से आ गया
तुम चाय नहीं पिओगे
मैं ही पी लेती हूँ
तुम्हारे साथ बैठकर
सिर्फ ‘कोल्ड काफी ‘ पी जा सकती है

मैं ‘ कोल्ड काफी ‘ के लिए
वेटर को बुलाती हूँ ।



2.हम लुका-छिपी खेलेंगे

जब हिटलर सोया पड़ा होगा
गांधी अपना चरखा चलाने में डूबा होगा
उस समय
हम लुका -छिपी खेलेंगे ।

-       विम्मी सदारंगाणी
-        
कवयित्री का परिचय – युवा कवयित्री विम्मी सदारंगाणी ने दो सिन्धी कविता संग्रह के अलावा बाल साहित्य भी लिखा है । सिन्धी भाषा पर अध्ययन सम्बन्धी 5 पुस्तकें भी उन्होने लिखी हैं । उन्हे 1995 का गुजरात साहित्य अकादेमी पुरस्कार व एन सी ई आर टी का नेशनल चिल्ड्रेन लिटरेचर अवार्ड भी मिला है । सिन्धी से हिन्दी के अलावा गुजराती में भी उन्होने अनुवाद किए हैं । वे सिन्धी एडवाइज़री बोर्ड साहित्य अकादमी दिल्ली व नेशनल कौंसिल फॉर प्रमोशन ऑफ सिन्धी लैंगवेज की सदस्य भी हैं ।
एक निवेदन - पिछली पोस्ट के सुधी पाठक एवं टिप्पणीकार जो प्रतिष्ठित ब्लॉगर भी है उनके ब्लॉग्स के लिंक मैंने साभार दिये हैं । इन ब्लॉगर्स की पोस्ट पर जाकर अपने विचार अवश्य व्यक्त करें - शरद कोकास

बुधवार, अक्टूबर 13, 2010

किसी की दुनिया उजड़ जाती है और आपको कुछ नहीं होता ?

13 अक्तूबर 2010 कल प्रस्तुत शेफालिका वर्मा की मैथिली कविता पर बहुत सारे नये पाठकों ने अपनी प्रतिक्रिया प्रकट की । जबलपुर से हमारे पुराने साथी महेन्द्र मिश्र ने कहा शेफालिका वर्मा जी की रचना बहुत जोरदार है मिता दास ने कहा साँस लेना ही ज़िन्दगी नहीं । रंजूभाटिया - बहुत सुन्दर । आकांक्षा - शेफालिका वर्मा जी की रचना लाजवाब है । डॉ. मोनिका शर्मा -बहुत अच्छी रचना साझा की है आपने ।  संजय भास्कर - शेफालिका वर्मा जी से मिलवाने के लिए धन्यवाद । वन्दना - कविता एक सार्थक सन्देश दे रही है । वाणीगीत-जीवन की सार्थकता पर अच्छी कविता । इस्मत ज़ैदी - बहुत सुन्दर भावों के साथ संस्कारों की सीख देती रचना  सदा - बहुत ही सुन्दर व प्रेरक प्रस्तुति । रश्मि रविजा - जीने का अर्थ तलाशने की सीख देती सुन्दर कविता । महेन्द्र वर्मा - यह कविता कवयित्री के दार्शनैक दृष्टिकोण को सफलता पूर्वक अभिव्यक्त करती है । सुशीला पुरी - एक दूसरे के आँसू पोछने मे ही जीने की सार्थकता है । शोभना चौरे -सूरज बादल के माध्यम से शेफाली जी ने बहुत प्रेरक बात कही है ।  जयकृष्ण राय तुषार- बहुत सुन्दर रचना । डॉ.रूपचन्द शास्त्री मयंक - इस सोद्देश्य रचना को पढ़वाने के लिए धन्यवाद । शिखावार्ष्णेय - शेफलिका जी की रचना मे जीवन की सार्थकता दिखती है । दीपक बाबा- मै इस कविता को जीने की कला कहूँगा । ज़ील - शेफालिका जी से परिचय के लिए आभार । उस्ताद जी - सुन्दर सशक्त । देवेन्द्र पाण्डेय - सार्थकता जीवन का उद्देश्य नहीं प्रक्रिया है । शाहिद मिर्ज़ा शाहिद - नायाब रचनायें पढ़ने को मिल रही हैं । रचना दीक्षित - लाजवाब रचना अच्छी अभिव्यक्ति । डॉ.टी एस दराल-कविता क्या यह तो ज्ञान का भंडार है । राजेश उत्साही ने एक पुराने गीत को याद किया ..अपने लिए जिये तो क्या जिये । प्रवीण पाण्डेय को भी यह कविता अच्छी लगी ।
मुझे यह कहते हुए अच्छा लग रहा है कि इन पुराने पाठकों के अलावा ब्लॉग के बहुत सारे नये पाठक भी इन दिनों जुड़े हैं और जिनकी कविता के बारे में बहुत अच्छी समझ है । लेकिन यहीं कहीं पिछले वर्ष के बहुत सारे साथी अब तक अनुपस्थित हैं । मैं याद कर रहा हूँ , हरकीरत हीर ,संजीव तिवारी ,आशीष खंडेलवाल , गिरिजेश राव , महफूज़ अली ( महफूज़ भाई इस समय एक संकट से गुज़र रहे हैं हम सब दुआ करें कि यह संकट शीघ्र दूर हो ) ,सुमन जी ,राजेश्वर वशिष्ठ ,डॉ. अमरजीत ,कृष्ण कुमार मिश्र ,भूषण ,अजित वडनेरकर , डॉ. अनुराग ,श्रीश पाठक प्रखर ,दीपक भारत दीप , अविनाश वाचस्पति ,शेफाली पाण्डेय , अशोक कुमार पाण्डेय , काजल कुमार , निशांत , लावण्या जी , मुमुक्ष ,लोकेश , अनिलकांत ,अनिल पुसदकर ,विनोद कुमार पाण्डेय , विधु . पवन चन्दन , प्रो. अली ,निर्मला कपिला ,खुशदीप सहगल ,चन्द्र कुमार जैन ,पी सी गोदियाल ,गिरीश बिल्लोरे ,दिनेशराय द्विवेदी, अमिताभ श्रीवास्तव ,पंकज मिश्रा ,हरि जोशी , अम्बरीश अम्बुज . मेजर गौतम राजरिशी ,कुलवंत हैप्पी , अमित के सागर , बबली ,योगेश स्वप्न ,अबयज़ खान ,चाहत ,कविता रावत और ज्योति जी को । और हाँ अपने छोटे भाई दीपक मशाल को भी ।   
            बहरहाल ... नवरात्र के छठवें  दिन आज प्रस्तुत है चर्चित मलयाळम कवयित्री सुगत कुमारी की कविता । सुगत कुमारी का जन्म जनवरी 1934 में तिरुअनंतपुरम में हुआ । इनकी प्रकाशित पुस्तकों के नाम हैं पातिराप्पूक्कल (midnight flowers ), रात्रिमषा (night rain), अबंलमणि (temple bell ), कुरुंजीप्पूक्कल (kurinji flowers ), तथा पावम मानव ह्रिदयम (poor human heart )। सुगत कुमारी , केरल साहित्य अकादमी , वायलार पुरस्कार , साहित्य अकादेमी आदि पुरस्कारों से सम्मानित हैं । इस कविता के अनुवादक हैं प्रसिद्ध रचनाकार ,केरल ज्योति के सम्पादक तथा हिन्दी सेवी के जी बालकृष्ण पिल्लै  । प्रस्तुत कविता साहित्य अकादेमी की पत्रिका “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 77 से साभार ।
            प्रस्तुत कविता एक दृश्य के बहाने मनुष्य की संवेदना को झकझोरती है । यह उस गुम हो चुकी संवेदना की तलाश है जो किसी की बस्ती जला दिए जाने या घर उजाड़ दिये जाने के बाद भी वापस नहीं आती । यह इसलिये तो नहीं कि जैसे जैसे हम सभ्य होते गये है ,और ज़िन्दगी का एक व्यापारी की तरह हिसाब लगाते गए हैं वैसे वैसे संवेदना से भी दूर होते गये हैं ? यह न भूलें कि यह प्रकृति एक दिन हमारा भी हिसाब करेगी ।

हाय ! क्या कर डाला तुमने मेरी दुनिया का

वह देखो इक चिड़िया माँ
बड़े वेग से उड़ती आती भोज्य लिए
अपनी प्यारी संतानों को देने
 सहसा चौंकी
तड़प तड़प कर घूम रही वह
बिलख रही वह !
मानव की भाषा में उसका यही अर्थ हो सकता है
हाय - हाय क्या कर डाला तुमने मेरी दुनिया का ?
पिघल रहा है दिल उसका
पिघल रहा है दिल मेरा भी
घूम फिर रही मैं भी उसके संग
वह छोटा घोंसला कहाँ
जिस के अंदर बैठी थी
इस चिड़िया की प्यारी संतानें
कुछ खाने को मृदु मुँह खोले ?

कहाँ गया वह जंगल
जिस में
मोर -पंख फैलाए झूम रहा था वह सुंदर तरुवर ?
बिलख रही मैं घूम रही मैं उस चिड़िया के संग
यहाँ शेष
बस कटे हुए पेड़ों की ठूँठें
जिन से बहता अब भी उनका खून
कड़ी धूप जो बरस रही है तप्त तैल सी
और ताप उस महाशाप का
जिसे दे गया रोते मरते वह कांतार !
एक अटवि के तड़प - तड़प कर मर जाने का
क्या है मोल ?
एक विटप के मर जाने का क्या है मोल ?
एक विहग के करुण रुदन का क्या है मोल ?
इन सब व्यापारों का
बिलकुल सही हिसाब लगाती प्रकृति
सही हिसाब लगाती प्रकृति !

-       सुगत कुमारी  
 ( सुगत कुमारी का चित्र गूगल से साभार )

शनिवार, अक्टूबर 09, 2010

हमे चलाने वाले को चलाने वाला कौन है ?

                              9 अक्तूबर 2010 नवरात्र - दूसरा दिन - वरिगोंड सत्य सुरेखा
            इस नवरात्र में इस कविता उत्सव में बहुत सारे नये लोगों का आगमन हुआ है । मैं आप सभी का स्वागत करता हूं । कल प्रकाशित पद्मा सचदेव की कविता के बारे में गिरीश पंकज कहते हैं स्त्री लेखन की सही दिशा क्या हो सकती है , यह कविता तय करती है । रूपचन्द शास्त्री ने कहा यह परिवेश का सुन्दर चित्रण करती है । संगीता ने कहा पद्मा जी के बारे में जानना ,उन्हे पढ़ना सुखद अनुभूति है । रश्मि रविजा ने कहा पद्मा जी की रचना बहुत दिनों बाद पढी । सुशीला पुरी ने कहा यह कविता कई सवाल खड़े करती है । सागर ने इसे आज के संदर्भ में अच्छी कविता बताया । रन्जू भाटिया ने कहा पद्मा जी को पढ़ना अच्छा लगा । शिखा वार्ष्णेय ने कहा इस कविता की एक एक पन्क्ति छू जाती है । शोभना चौरे ने कहा पद्माजी उनकी पसन्दीदा कवयित्री हैं ।ताऊ रामपुरिया ने कहा कि इस कविता में पद्मा जी की खासियत के अनुरूप एक एक शब्द है । टी एस दराल ने पद्मा जी से इस शृंखला के श्रीगणेश को बेहतर बताया । महेन्द्र वर्मा ने पद्मा जी के धर्मयुग में प्रकाशन के दिनों की बात की । जे पी तिवारी , मनोज ,बबली ,कविता रावत ,सुज्ञ , अली ,राज भाटिया , देवेन्द्र पाण्डे , संजीव तिवारी ,वाणी गीत ,संजय भास्कर को यह कविता पसन्द आई । परमजीत सिंह बाली , अलबेला खत्री व मोनिका शर्मा को ने इसे अच्छी प्रस्तुति बताया ।  
            आज नवरात्र के दूसरे दिन प्रस्तुत है तेलुगु की युवा कवयित्री वरिगोंड सत्य सुरेखा की यह कविता । इनकी कवितायें विभिन्न पत्रपत्रिकाओं में प्रकाशित हुई हैं । वर्तमान में वारंगल में रहती हैं । इस कविता का तेलुगु से हिन्दी अनुवाद चेन्नै की कवयित्री आर शांता सुन्दरी ने किया है जो वर्तमान में दिल्ली में रहती हैं । लीजिये प्रस्तुत है  वरिगोंड सत्य सुरेखा की यह सरल सी कविता जो दिखने में बहुत सरल है लेकिन समझने में बहुत कठिन है । वे बहुत मासूमियत से कुछ ऐसे सवाल करती हैं जिनके जवाब आज तक नहीं मिले हैं । जवाब में सिर्फ़ हंसी है । सही है , इन सवालों के जवाब में तो अच्छे अच्छे हँसना भूल जायेंगे ।
            यह कविता  “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 101 से साभार ।


मैं भी हँसूँ

देख कर मुझे हँसते हैं सभी
उन्हे देख डर लगता है
हँसते हैं इसलिये नहीं
पर यह सोच कर
कि हँसने वाले मेरी पीड़ा पहचानते नहीं !

चाँद अंधेरे में रहता है
डर नहीं लगता उसे ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

रात भर अकेला रहता है
उस का साथी क्या कोई नहीं ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

सदा आग उगलते सूरज को
ठंडक कहाँ से मिल पाती है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

बिना रुके बहने वाले झरने की
थकान कौन मिटाता है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

हम धरती माँ की गोद में बैठते हैं
पर वह माँ कहाँ बैठती है ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

घूमते पहिये पर न चल सकने वाले हम
घूमती धरती पर कैसे दौड़ रहे हैं ?
पूछूँ तो सब हँसते हैं ।

हमे चलाने वाले को
चलाने वाला कौन है ?
पूछूँ
तो ज़ोर ज़ोर से हँसते हैं
एक भी सवाल का जवाब न दे कर
हँसने वालों को देख कर
मैं क्या करूँ ?
बस , मैं भी हँस देती हूँ !

-       वरिगोंड सत्य सुरेखा



शुक्रवार, अक्टूबर 08, 2010

नवरात्र कविता उत्सव - प्रथम दिवस - पद्मा सचदेव

                          आगे आगे क्या होना है                                           
 आज नवरात्रि के प्रथम दिन आप सभी का स्वागत है ।  आज प्रस्तुत है डोगरी की सुप्रसिद्ध कवयित्री पद्मा सचदेव की यह कविता । पदमा जी का जन्म अप्रेल 1940 को जम्मू में हुआ । आपकी डोगरी व हिन्दी में अनेक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं जिनमें कविता , साक्षात्कार , कथा साहित्य और संस्मरण की पुस्तकें है । इनमें बूँद बावड़ी , अमराई , भटको नहीं धनंजय , नौशीन , गोद भरी , अक्खरकुंड, तवी ते चन्हान ,नेहरियाँ गलियाँ , पोता पोता निम्बल आदि उल्लेखनीय हैं । पद्मा सचदेव साहित्य अकादेमी , हिन्दी अकादेमी , जम्मू कश्मीर कल्चरल अकादेमी , सोवियत लैन्ड नेहरू पुरस्कार ,उत्तर प्रदेश हिन्दी साहित्य अकादमी पुरस्कार , राजा राम मोहन राय पुरस्कार आदि पुरस्कारों से सम्मानित हैं । आपने जम्मू में रेडियो पर स्टाफ़ कलाकार के रूप में भी कार्य किया और दिल्ली मे डोगरी समाचार वाचक के पद पर भी कार्य किया ।  
            इस कविता में जम्मू एक शहर की तरह नहीं बल्कि घर के एक सदस्य की तरह है । इस कविता में निहित अनेक अर्थों को आप तलाश सकते हैं । यह कविता साहित्य अकादेमी की द्वैमासिक पत्रिका “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 104 से साभार । इस कविता का डोगरी से हिन्दी अनुवाद कवयित्री ने स्वयं किया है  

सच्च बताना साईं

सच्चो सच्च बताना साईं
आगे आगे क्या होना है

खेत को बीजूँ न बीजूँ
पालूँ या न पालूँ रीझें
धनिया पुदीना बोऊँ न बोऊँ
अफ़ीम ज़रा सी खाऊँ न खाऊँ
बेटियों को ससुराल से बुलाऊँ
कब ठाकुर सीमाएँ पूरे
तुम पर मैं कुर्बान जाऊँ
आगे आगे क्या होना है ।

दरिया खड़े न हों परमेश्वर
बच्चे कहीं बेकार न बैठें
ये तेरा ये मेरा बच्चा
दोनों आँखों के ये तारे
अपने ही हैं बच्चे सारे
भरे रहें सब जग के द्वारे
भरा हुआ कोना कोना है
आगे आगे क्या होना है ।

बहें बाज़ार बहें ये गलियाँ
घर बाहर में महके कलियाँ
तेरे मेरे आँगन महके
 बेटे धीया घर में चहकें
बम गोली बंदूक उतारो
इन की आँखों में न मारो
ख़ुशबुओं में राख उड़े न
आगे आगे क्या होना है

जम्मू आँखों में है रहता
यहाँ जाग कर यहीं है सोता
मैं सौदाई गली गली में
मन की तरह घिरी रहती हूँ
क्या कुछ होगा शहर मेरे का
क्या मंशा है क़हर तेरे का
अब न खेलो आँख मिचौली
आगे आगे क्या होना है

दरगाह खुली , खुले हैं मन्दिर
ह्रदय खुले हैं बाहर भीतर
शिवालिक पर पुखराज है बैठा
माथे पर इक ताज है बैठा
सब को आश्रय दिया है इसने
ईर्ष्या कभी न की है इसने
प्यार बीज कर समता बोई
आगे आगे क्या होना है
-       पद्मा सचदेव
   

गुरुवार, अक्टूबर 07, 2010

नवरात्र कविता उत्सव में आपका स्वागत है


               शरद नवरात्र में प्रतिदिन एक कवयित्री की कविता

कल आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शरद नवरात्र प्रारम्भ होने जा रहा है । वर्ष में दो बार आने वाले इस पर्व पर मैं विगत दो नवरात्र से कवयित्रियों की कविताएं प्रस्तुत करता आ रहा हूँ । इस श्रन्खला में सर्वप्रथम मैंने हिन्दी की कवयित्रियों की कविताएँ प्रस्तुत की थीं । उसके अगले नवरात्र में विदेशी कवयित्रियों की कविताओं के हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत किये थे । आप सब ने इन कविताओं को पढ़ा था एवं इनकी सराहना की थी और भरपूर टिप्पणियों के माध्यम से अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की थी । 
            आप सभी के स्नेह एवं प्रोत्साहन के फलस्वरूप इस नवरात्र में भी मै यह श्रन्खला जारी रखना चाहता हूँ । इस बार इस श्रन्खला में आप पढ़ेंगे भारतीय भाषाओं की कवयित्रियों की कवितायें । इनमें मैंने सिंधी , मराठी , असमिया , पंजाबी , तेलगु , मलयाळम , मैथिली , डोगरी व उर्दू की कविताएँ शामिल की हैं । कविताओं के हिन्दी अनुवाद  कुछ कवयित्रियों द्वारा स्वयं  किये गए हैं और कुछ अनुवादकों द्वारा ।
            इनमें से अधिकांश कवयित्रियों की कविताओं का चयन मैंने साहित्य अकादमी की द्वैमासिक पत्रिका “ समकालीन भारतीय साहित्य “ से किया है । समकालीन भारतीय साहित्य के सम्पादक प्रसिद्ध आलोचक व लेखक श्री प्रभाकर श्रोत्रिय से मेरा संवाद हुआ है । श्रोत्रिय जी ने सहर्ष इन कविताओं को ब्लॉग पर प्रस्तुत करने हेतु अनुमति प्रदान कर दी है । मेरे सहयोगी मित्र व कवि अनुवादक तथा ब्लॉगर सिद्धेश्वर जी से भी मेरा संवाद हुआ है । उन्होनें भी हमेशा की तरह इस श्रंखला में प्रस्तुत करने के लिए कुछ कविताओं के अनुवाद किये हैं ।
            आज इस पोस्ट द्वारा मैं आप सभी से निवेदन कर रहा हूँ कल से प्रतिदिन एक विशिष्ट कविता पढ़ने के लिए इस ब्लॉग पर दिन में एक बार अवश्य पधारें । प्रत्येक कविता की प्रस्तुति से पूर्व परम्परानुसार विगत दिन के आगंतुकों का स्वागत होगा ही ।
            आज स्वागत एव धन्यवाद समकालीन भारतीय साहित्य के सम्पादक वरिष्ठ साहित्यकार प्रभाकर श्रोत्रिय जी का  । डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय का जन्म १९ दिसंबर, १९३८ को जावरा (मध्यप्रदेशभारत में हुआ। हिंदी आलोचना में प्रभाकर श्रोत्रिय एक महत्वपूर्ण नाम है । आलोचना के अलावा भी साहित्य में उनका प्रमुख योगदान रहा है । खास कर नाटकों व निबंध के क्षेत्र में । उन्होंने कम नाटक लिखे पर जो भी लिखे उसने हिंदी नाटकों को नई दिशा दी। पूर्व में मध्यप्रदेश साहित्य परिषद के सचिव एवं 'साक्षात्कार' 'अक्षरा' के संपादक रहे हैं एवं भारतीय भाषा परिषद के निदेशक एवं 'वागर्थ' के संपादक पद पर कार्य करने के साथ-साथ वे भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली के निदेशक पद पर भी कार्य कर चुके हैं ।  आप अनेक महत्वपूर्ण संस्थानों के सदस्य हैं।

( प्रभाकर श्रोत्रिय जी का चित्र गूगल से साभार )