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मंगलवार, अगस्त 07, 2012

1989 की कवितायें - अभिलेख

1989 में लिखी युवा आक्रोश की एक और कविता


54 अभिलेख

हम नहीं देख सकते
हमारे माथे पर खुदा अभिलेख
नोंचकर फेंक आये हैं हम
अपनी आँखें
इच्छाओं की अन्धी खोह में
हम कोशिश में हैं
हथेलियों को आँख बनाने की

हमारे माथे पर नहीं लिखा है
कि हम अपराधी हैं
उन अपराधों के
जो हमने किये ही नहीं
नहीं लिखा है किसी किताब में
कि जीना अपराध है
फिर भी
हाथों में छाले
और पेट में
रोटी का वैध स्वप्न पाले
हम सज़ा काटने को विवश हैं
जन्म के अपराध की

जन्म के औचित्य को लेकर
कोई भी प्रश्न करना व्यर्थ है
सीखचों  से बाहर हैं
हमारे अस्तित्व पर
चिंता करने वाले लोग
जो ठंडी साँसों में
फरेब का गोन्द लगाकर
हमारे माथे पर चिपका देते हैं
परम्परिक दर्शन
कि ज़िन्दगी एक सज़ा है
हम भी अपना मन बहला लेते हैं
खुद को उच्च श्रेणि का कैदी मानकर ।
                        शरद कोकास   

सोमवार, अगस्त 06, 2012

1989 की कवितायें - गिद्ध जानते हैं

इससे पहले सूरज के बिम्ब को लेकर एक कविता आपने पढ़ी थी " सूरज को फाँसी "  जिसमें मैंने सूरज का बिम्ब कवि बेंजामिन मोलाइस के लिये इस्तेमाल किया था । ठीक इसके विलोम में इस कविता में यह सूरज हमारा शोषक है जिसकी ओर हम आशा भरी निगाहों से देखते हैं और गिद्ध उसके और हमारे बीच के बिचौलिये .. । उम्मीद है यह कविता ठीक ठीक आप तक सम्प्रेषित होगी ।


53. गिद्ध जानते हैं

मुर्गे की बाँग से
निकलता हुआ सूरज
चूल्हे की आग से गुजरते हुए
बन्द हो जाता है
एल्यूमिनियम के टिफिन में
बाँटकर भरपूर प्रकाश
जीने के लिये ज़रूरी उष्मा
तकिये के पास रखकर
जिजीविषा के फूल
छोड़ जाता है
कल फिर आने का स्वप्न

यह शाश्वत सूरज
उस सूरज से भिन्न है
जो ऊगता है कभी-कभार
झोपडपट्टी को
महलों में तब्दील करने की
खोखली गर्माहट लिये हुए

भर लेता है वह
अपने पेट में
मुर्गे की बाँग क्या
समूचा मुर्गा ही
और चूल्हे की आग
रोटी का स्वप्न
नींद का चैन तक

वह छोड़ जाता है अपने पीछे
उसे आकाश की ऊँचाई तक पहुँचाने वाले गिद्धों को
जो जानते हैं
सूरज के संरक्षण में
जिस्मों से ही नहीं
कंकालों से भी
माँस नोचा जा सकता है ।

                        शरद कोकास 

गुरुवार, जुलाई 26, 2012

1989 की कवितायें - बचपन

बचपन के बारे में जब भी सोचता हूँ तो याद आता है कि हम बचपन में ही अपने होने की कल्पना कर लिया करते हैं । हर एक बच्चा अपने ताकतवर होने की कल्पना तो करता है लेकिन किसी राक्षस की तरह नहीं । राक्षस यहाँ एक बिम्ब है ।


52 बचपन

बच्चों की दुनिया में शामिल हैं
आकाश में
पतंग की तरह उड़ती उमंगें
गर्म लिहाफ में दुबकी
परी की कहानियाँ
लट्टू की तरह
फिरकियाँ लेता उत्साह

वह अपनी कल्पना में
कभी होता है
परीलोक का राजकुमार
शेर के दाँत गिनने वाला
नन्हा बालक भरत
या उसे मज़ा चखाने वाला खरगोश

लेकिन कभी भी
वह अपने सपनों में
राक्षस नहीं होता ।

            - शरद कोकास 

शनिवार, जून 23, 2012

1989 की कवितायें - संगीत की तलाश

चलिये 1988 की कवितायें हो गईं अब 1989 की कविताओं पर आते हैं । यह पहली कविता - संगीत की तलाश । संगीत किसे बुरा लगता है ? यह निहायत फालतू सा सवाल होगा ना । बचपन में स्कूल में पढ़ा था संगीत और कोलाहल में अंतर । उन दिनों जब मेरी उम्र दस साल थी मैंने भंडारा के भारतीय संगीत विद्यालय में गायन की कक्षा में प्रवेश लिया था । कुछ कारण ऐसे रहे कि मैं आगे अध्ययन नहीं कर पाया लेकिन संगीत की दीवानगी बनी रही । यह दीवानगी ऐसी थी कि मैं हर कहीं संगीत तलाशता था । इस तरह इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियों ने जन्म लिया लेकिन तब यह कविता नहीं बन पाई । यह कविता बनी अपनी अंतिम पंक्तियों में जाकर । आप स्वयं देख लीजिये । यहीं जाकर मुझे समझ में आया कि संगीत और कोलाहल में क्या अंतर होता है ।


संगीत की तलाश

मैं तलाशता हूँ संगीत
गली से गुजरते हुए
तांगे में जुते घोड़े की टापों में

मैं ढूँढता हूँ संगीत
घन चलाते हुए
लुहार के गले से निकली हुंकार में

रातों को किर्र किर्र करते
झींगुरों की ओर
ताकता हूँ अन्धेरे में
कोशिश करता हूँ सुनने की
वे क्या गाते हैं

टूटे खपरैलों के नीचे रखे
बर्तनो में टपकने वाले
पानी की टप-टप में
तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
चक्की की खड़-खड़ में
रेलगाड़ी की आवाज़ में
स्वर मिलाते हुए
गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

टूट जाता है मेरा ताल
लय टूट जाती है
जब अचानक आसमान से
गुजरता है कोई बमवर्षक
वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
चांदमारी से आती है जब
गोलियाँ चलने की आवाज़
मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
तालियाँ बजाता है
घर से बाहर निकलकर
देखता है आसमान की ओर
खुश होता है

वह सचमुच अभी बच्चा है ।

             -- शरद कोकास