नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें
मुझे लगा यह स्त्री तो सचमुच दुर्गा की जीती जागती प्रतिमा है मिट्टी और पानी से बनी हुई लेकिन पुरुष न उसे सहेजना जानता है न उसके भीतर की ताकत को पहचानता है ..फिर शक्ति की उपासना का दिखावा क्यों ? मैने सुबह सुबह अनामिका जी को फोन लगाया और अनुमति ली कि मै इस संकलन से पूरे नवरात्र तक प्रतिदिन एक कवयित्री की कविता प्रस्तुत करना चाहता हूँ । उन्होने कहा “ मातृशक्ति की उपासना एक कवि इसी तरह से ही तो कर सकता है । “ प्रस्तुत है क्वाँर माह की इस प्रतिपदा पर नवरात्र के प्रथम दिन अनामिका जी की यह कविता “ स्त्रियाँ” – शरद कोकास
स्त्रियाँ
पढ़ा गया हमको
जैसे पढ़ा जाता है कागज़
बच्चों की फटी कॉपियों का
चनाजोरगरम के लिफाफे बनाने के पहले !
देखा गया हमको
जैसे कि कुफ्त हो उनीदे
देखी जाती है अलार्म घड़ी
अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद
सुना गया हमको
यों ही उड़ते मन से
जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने
सस्ते कैसेटों पर
ठसाठस्स ठुंसी हुई बस में
भोगा गया हमको
बहुत दूर के रिश्तेदारों के
दुख की तरह
एक दिन हमने कहा
हम भी इंसा हैं -
हमें कायदे से पढ़ो एक - एक अक्षर
जैसे पढ़ा होगा बी ए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन
देखो तो ऐसे
जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है
बहुत दूर जलती हुई आग !
सुनो हमें अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई – नई सीखी हुई भाषा !
इतना सुनना था कि अधर में लटकती हुई
टिड्डियाँ उड़ीं और रंगीन अफवाहें
चीखती हुई चीं – चीं
‘ दुश्चरित्र महिलायें ,दुश्चरित्र महिलायें –
किन्ही सरपरस्तों के दम पर फूली फैली
अगरधत्त जंगली लतायें !
खाती –पीती सुख से ऊबी
और बेकार बेचैन , आवारा महिलाओं का ही
शगल है ये कहानियाँ और कवितायें ..!
फिर ये उन्होंने थोड़े ही लिखी हैं । ‘
(कनखियाँ इशारे, फिर कनखी )
बाकी कहानी बस कनखी है।
हे परमपिताओं,
परमपुरुषों -
बख्शो ,बख्शो, अब हमें बख्शो !
-अनामिका
(आधी आबादी की आवाज़, इन कविताओं में प्रतिदिन अवश्य पढ़ें यह निवेदन । आपका – शरद कोकास )
