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बुधवार, दिसंबर 23, 2009

भाईचारा और सद्भावना पर अब ब्लॉग भी लिखते हैं

प्रेम,मोहब्ब्त,भाईचारा ,सद्भावना,कितनी बड़ी बडी बातें करते हैं हम मनुष्य ।साहित्य रचते हैं ,भाषण देते हैं, सभायें करते हैं,गोष्ठियाँ करते हैं ,जनान्दोलन करते हैं ,नाटक करते हैं और अब ब्लॉग भी लिखते हैं । भाईचारा इन दिनों सगे भाईयों के बीच भी नहीं पनप पाता फिर विभिन्न धर्मावलम्बियों,मतावलम्बियों और अलग अलग विचारों के लोगों के बीच पनपना तो बहुत बड़ी बात । हम एक दूसरे को जानते हैं लेकिन मिलते हैं तो पहचानते नहीं । कहने को एक दूसरे के दोस्त कहलाते हैं लेकिन पेश आते हैं दुश्मनों की तरह ।फिर भी हम कोशिश जारी रखते हैं कि यह भाईचारा जो कहीं गुम हो गया है ..फिर लौटकर मनुष्यों के इस घर में वापस आ जाये ।यह हमारा मनुष्य होने का गुण है ।
जब भी आप रेल से यात्रा करते हैं ,आपने देखा होगा ,पटरी के किनारे ,मैले कुचैले,नंग-धड़ंग कुछ बच्चे आपकी ओर देख कर हाथ हिलाते हैं ..कुछ लोग हिकारत की नज़रों से देखते हैं तो कुछ अनदेखा कर जाते हैं ।आपने सोचा है कभी ..इस बारे में .. ? मैने एक दिन भाईचारे के बारे में सोचते हुए इनके बारे में सोचा तो यह कविता बन गई .. आप भी पढ़ लीजिये .. लोहे के  घर यानि रेलगाड़ी पर लिखी यह एक और छोटी सी कविता


                       लोहे का घर-छह


हर रोज़ सुबह
याद से
रेल की खिड़की से झाँकते
मुसाफिरों की ओर देखकर
अपना हाथ हिलाता है वह

बावज़ूद
पूरी रेल में
उसका अपना कोई नहीं होता ।




-             शरद कोकास
चित्र गूगल से साभार

रविवार, नवंबर 22, 2009

हम सभी खानाबदोश है...


            हम में से ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी जड़ों से उखड़कर  नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं ..। खानाबदोशों की तरह हमारे पूर्वज जाने कहाँ से भटकते हुए आये और कहीं किसी जगह पर स्थायी हो गये । फिर उस पीढ़ी से कुछ लोग निकले रोजी-रोटी की तलाश में और नई जगह स्थापित हो गये । फिर अगली पीढ़ी में भी ऐसा ही हुआ । यह सिलसिला अभी भी चल रहा है और जाने कब तक चलता रहेगा !
             मेरे परदादा स्व. विश्वेश्वर प्रसाद रायबरेली ज़िले के एक गाँव लाऊपाठक का पुरवा से निकले और फतेहपुर आ गये ,तीस वर्ष वहाँ रहने के बाद सन 1900 के आसपास मध्यप्रांत में  बैतूल  आ गये जहाँ उनके पाँच पुत्र हुए  बाबूलाल बृजलाल,कुन्दनलाल,सुन्दरलाल व चन्दनलाल । फिर मेरे पिता श्री जगमोहन रोजी –रोटी के लिये बैतूल से निकले और महाराष्ट्र के भंडारा नामक स्थान पर आ गये । वीरेन्द्र चाचा मुम्बई में, रमेश चाचा नागपुर में और मनोहर चाचा भिलाई आ गये । और मै अपना घर छोड़कर निकला तो छत्तीसगढ़ के इस शहर दुर्ग में आ गया । मेरे और भी कई दादाओं,चाचाओं और भाइयों की यही कहानी है ।
            हम में से बहुत से लोग हैं जो विस्थापन का यह दर्द भोग रहे हैं । इस देश के हर शहर में ऐसे लोग हैं जिनकी जड़े कहीं और थी और वे अब नई जगहों पर जमने की कोशिश कर रहे हैं । हाँलाकि समय के साथ वे उस नई जगह की संस्कृति में रच-बस गये हैं लेकिन उनके मन की व्यथा कौन समझ सकता है ..उस स्थिति में तो और भी नहीं जब 3-4 पीढ़ियाँ गुजर जाने के बाद भी उन्हे बाहरी समझा जाता है ।उन्हे बार- बार यह अहसास दिलाया जाता है कि उनके कारण स्थानीय लोगों की उपेक्षा हो रही है । उनका अपमान किया जाता है । और ऐसा कहने वाले यह भी नहीं सोचते कि बरसों पहले उनके पूर्वज भी कहीं बाहर से ही आये होंगे ।
            हर साल देखता हूँ मैं .. छत्तीसगढ़ से न जाने कितने मजदूर रेल में बैठकर खाने-कमाने देश के सुदूर हिस्सों में जाते हैं । उनमें से कितने ही होते हैं जो फिर कभी लौटकर नहीं आते । रेल से यात्रा करते हुए जब भी मैं खिड़की से बाहर झाँकता हूँ तो उन हरे-भरे पेड़ों की ओर देखता हूँ जिनके बीज जाने कहाँ से आये होंगे और अब जो इस मिट्टी में स्थायी हो गये हैं ..। अब यही ज़मीन उनका घर है । फिर यह खयाल भी आता है कि यदि इन्हे इस जगह से उखाड़ कर कहीं और लगा दिया जाये तो क्या वे फिर पनप सकेंगे ? क्या उन्हे उनकी जड़ों से उखाड़ने का यह खेल उन्हे जीवन दे सकेगा ? क्या उन्हे हम वही सब कुछ दे सकेंगे ? वे डूब से विस्थापित हुए लोग हों ,चाहे आतंक से ,चाहे नये कारखाने बसाने के नाम पर उन्हे हटाया जा रहा हो ,चाहे रोजी-रोटी की मजबूरी से वे घर छोड़ रहे हों ..यह सवाल तो उन सभी के लिये है । इसी प्रश्न पर सोचते हुए 15 वर्ष पूर्व इस कविता ने जन्म लिया था ।
              
                                     लोहे का घर-तीन

किसी पौधे को
जड़ से उखाड़कर
कहीं और रोपने से
और उम्मीद मात्र से
क्या वह बन सकेगा
एक छायादार वृक्ष...?


क्या उसे दे सकेंगे हम
वही मिट्टी वही जल
वही धूप धरती और आकाश
क्या उसे हासिल होंगे
दुलारने वाले वही हाथ
और बच्चों और चिड़ियों की
वही चहचहाहट

क्या उसे हम बचा सकेंगे
दीमक ,कीट-पतंगों से
कुल्हाड़ियों से और
विकास के बुलडोज़रों से

लोहे के इस घर में बैठकर
सुरक्षित यात्रा करते हुए
मैं अक्सर सोचता हूँ...

खिड़की से दिखाई देते पेड़
कभी नहीं जान सकते
उखड़े पौधों का दर्द ।

                  -- शरद कोकास   (चित्र गूगल से साभार )
                                                                                           



शुक्रवार, नवंबर 20, 2009

सुविधा के दिनों में गर्दिश के दिनों की याद पैदा करती है रूमानियत



यह जीवन भी रेल में की गई यात्रा की तरह है जहाँ एक स्टेशन से हम यात्रा प्रारम्भ करते है और किसी एक स्टेशन पर समाप्त करते हैं । प्रारम्भ का स्टेशन तो हमें पता होता है लेकिन गंतव्य के स्टेशन का हमें पता नहीं होता  वह कब आयेगा ..हम सशंकित होकर हर किसी से पूछते हैं , जब यह जवाब मिलता है कि अरे ..अभी तो आपका अंतिम स्टेशन बहुत दूर है तो हम खुश हो जाते हैं । और अगर कोई कह दे कि बस आपका अंतिम स्टेशन आने ही  वाला है तो हम दुखी हो जाते हैं । कई लोग सोचते हैं कि अभी तो हमें बहुत दूर तक यात्रा करनी है वे अचानक किसी स्टेशन पर उतर जाते हैं ..हम सोचते ही रह जाते हैं ..अरे यह तो कहता था बहुत दूर का सफर है बीच में ही उतर गया । कुछ लोग यात्रा करते करते ऊब जाते हैं और सोचते हैं कि यह अंतिम स्टेशन कब आयेगा ? और कुछ अंत तक यात्रा में नहीं ऊबते और खुशी-खुशी आखरी स्टेशन पर उतर जाते हैं ।                                                  
सोचकर देखिये कितना कुछ सोचा जा सकता है इस “लोहे के घर” में यात्रा करते हुए .. इस यात्रा में हम सभी हम सफर हैं । किसीने यात्रा जल्दी शुरू कर दी है किसीने देर से । कोई बीस स्टेशन देख चुका है कोई अठ्ठाइस कोई पचास कोई सत्तर  । जैसे जैसे स्टेशन आयेंगे नये मुसाफिर भी शामिल होते जायेंगे कोई पहले उतर जायेगा कोई देर तक यात्रा करता रहेगा । सबसे महत्वपूर्ण होगा साथ बिताया हुआ समय ..।जब एक न एक दिन आखरी स्टेशन पर उतरना ही है तो  क्यों न करें ऐसा कि हम यह समय इस तरह साथ बितायें कि हमारे स्टेशन पर उतर जाने के बाद भी बचे हुए वे सहयात्री हमे याद रख सकें ।
 अरे.. मैं जिस कविता को यहाँ देने जा रहा था उसका सन्दर्भ तो यह कतई नहीं था .. आप सोच रहे होंगे .. रूमानी होते होते पटरी बदलकर यह  दार्शनिक कैसे हो गया ?, अब क्या करूँ ...लोग सलाह ही इतनी गम्भीर देते हैं । खैर .. इस कविता का सन्दर्भ देने की ज़रूरत ही नहीं आप पढ़ेंगे तो खुद समझ जायेंगे कि मैं क्या कहना चाहता हूँ ।और यह भी कि इस कविता और पिछली कविता की “रूमानियत “ में क्या फर्क है?

   
लोहे का घर - दो

 
फुटबोर्ड पर लटककर                           
यात्रा करते हुए
याद आती हैं
सुविधाजनक स्थान पर बैठकर
की गई यात्राएँ


आरक्षित बर्थ पर लेटे हुए
याद आती हैं
फुटबोर्ड पर लटक कर
सही जगह की तलाश में
की गई यात्राएँ


उसी तरह जैसे
सुविधाओं से युक्त जीवन में
गर्दिश के दिनों की याद
पैदा करती है रूमानियत ।
             
                -- शरद कोकास 

(चित्र गूगल से साभार )



मंगलवार, नवंबर 17, 2009

स्वप्न देखने के लिये टिकट लेना कतई ज़रूरी नहीं है ।


रात के सन्नाटे में  दूर कहीं किसी रेलगाड़ी की सीटी की आवाज़ सुनाई देती है । एक रेल धड़धड़ाते हुए किसी पुल से गुजर जाती है ..हवा में तैर जाता है एक हल्का सा कम्पन और सन्नाटे में गूंजता है दुश्यंत का यह शेर... ‘तू किसी रेल सी गुजरती है..मै किसी पुल सा थरथराता हूँ ।“
यह थरथराहट अवचेतन में बसे उन तमाम बिम्बों को सतह पर ले आती है जो अपनी बैचलर लाइफ में यात्राएँ करते हुए मैने सहेजे थे । एक रेल थी जो मुझे अपने शहर से दूर ले जाती थी  और फिर कभी वापस लेकर नहीं आती थी । कभी आती भी थी तो फकत छुट्टियों में ..फिर वापस ले जाने के लिये ।
            उन दिनों की स्मृतियों को सहेजता हूँ तो आज भी रेल में बैठते ही रेल का वह डिब्बा मुझे घर जैसा लगने लगता है , मै इसीलिये उसे “ लोहे का घर “ कहता हूँ । आपने भी इस बात को महसूस किया होगा कि यात्रा में जाने कितने परिवार मिल जाते है, कितने मित्र बन जाते है। हम उनसे कितना बतियाते हैं  । बातें करते हुए  अक्सर इतनी अंतरंगता हो जाती है कि जो बातें हम कभी किसी से नहीं कहते ट्रेन में मिले अपने सफर के साथी से कह देते हैं । यह जानते हुए भी हम दोबारा शायद ही कभी मिलें .. लेकिन अपने सुख-दुख बाँटना ,यही तो मनुष्य होना है ।
ऐसी अनेक रेल यात्राएँ मैने की हैं और इन यात्राओं में  अनेक  कवितायें लिखी हैं । “लोहे का घर “ शीर्षक से अलग अलग बिम्बों और चित्रों को लेकर यह कवितायें मेरे कविता संग्रह “गुनगुनी धूप में बैठकर “ में संग्रहित हैं । इस श्रंखला की यह पहली कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ ..कविता ज़रा रूमानी है ..लेकिन मेरी उन दिनों की उम्र का खयाल करके बर्दाश्त कर लीजिये .. और हर्ज़ क्या है आप भी ज़रा सा रूमानी हो जायें ..प्रेम करने और स्वप्न देखने की भी कोई उम्र होती है .भला .?

                        लोहे का घर

सुरंग से गुजरती हुई रेल
बरसों पीछे ले जाती है
उम्र के साथ

बीते सालों के
फड़फड़ाते पन्नों को
खिड़की से आया
पहचानी हवा का झोंका
किसी एक खास पन्ने पर
रोक देता है

एक सूखा हुआ गुलाब का फूल
दुपट्टे से आती भीनी भीनी महक
रात भर जागकर बतियाने का सुख
उंगलियों से इच्छाओं का स्पर्श 

स्वप्न देखने के लिये 
          टिकट लेना 
          कतई ज़रूरी नहीं है । 


               - शरद कोकास


(पिछले दिनो की गई एक यात्रा का चित्र ,इस यात्रा में अचानक बचपन के दो दोस्त मिल गये थे  ..चन्द्रपाल और सूरजपाल दोनों सगे भाई ,मेरी यह तस्वीर चन्द्रपाल ने अपने मोबाइल से ली है )