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शनिवार, मई 23, 2020

चम्बल एक नदी का नाम

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने
अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब
पिलाई अपने बलात्कारियों को
और पेड़ों से बाँध कर
उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए


इस कविता में गुस्सा है लेकिन वह एक जायज़ गुस्सा है .. स्त्रियों को किस तरह अपमानित किया जा रहा है आप सब जानते हैं .  नरेश  सक्सेना मेरे प्रिय कवि हैं . उनकी एक कविता ' चम्बल एक नदी का नाम " यहाँ प्रस्तुत  कर रहा हूँ ..इस कविता में अर्थ बहुत गहरे हैं ..आप इस कविता की पंक्तियों को पढ़कर दहल जायेंगे .



नरेश सक्सेना की कविता

चम्बल एक नदी का नाम

यमुना, गंगा, कृष्णा, कावेरी, गोमती, अलकनन्दा
यह तो लड़कियों के नाम हैं
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

जबकि, चम्बल वह अकेली और अभागी नदी है
जो पुराणों में वर्णित अपने स्वरूप को
आज तक कर रही है सार्थक,
चम्बल में पानी नहीं ख़ून बहता है,
चम्बल में मछलियाँ नहीं लाशें तैरती हैं
चम्बल प्रतिशोध की नदी है
और वह कौनसी लड़की है
जो प्रतिशोध और ख़ून से भरी नहीं है
और जिसमें लाशें नहीं तैरतीं,
फिर भी शारदा, सई क्षिप्रा, कालिन्दी तो -लड़कियों के नाम हैं
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

और वे नदियाँ
जिनके नामों पर रखे गए लड़कियों के नाम
और जो स्वर्ग से उतरीं थीं, धरती पर हमें तारनें
आज़ खुद अपने तारे जाने के लिए तरस रही हैं
भक्तों के मल-मूत्र से
वमन और विष्ठा और बलग़म से भर कर
वे हो गई है कुम्भी पाक,
लेकिन उसी मल-मूत्र और वमन और विष्ठा से
दिया जा रहा सूर्य को अर्ध्य
ओम् भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर वरेण्यम...

चम्बल पर कब्ज़े के लिए हुए
देंवों और दानवों में युद्ध इस कदर
कि रक्त और चर्म से भर कर वह कहलाई चर्मणवती, चर्मवती
यानि चाम वाली चम्बल
आज जबकि बाज़ार आमादा है,
हर माता को चर्मवती बना देने के लिए
और कुछ अभागिनों को तो बना ही दिया जाता है चर्मवती

फिर भी
कल्याणी, सिन्धु और जाह्नवी
भागीरथी, सोन रेखा, नर्मदा, सरयू-मन्दाकिनी
तो लड़कियों के नाम हैं,
चम्बल नही है किसी लड़की का नाम

देखो कितनी सारी नदियों के तो नाम ही नहीं आए
उन करोड़ों-करोड़ नदियों के नाम
जो सुखा दी गई स्रोत पर ही, रह गई अनाम

याद करो वह नदी
जो इतिहास में तो है, भूगोल में नहीं है
वह विद्या और बुद्धि की नदी, सरस्वती
तो शायद शर्म से ही धरती में समा गई
वह गोया, अब अपनी क़ब्र में ही बहती है
चम्बल की बेटियों के नाम हुए,
फूलन देवी, कुसुमा नाइन, गुल्लो बेड़िन
फूल, कुसुम और गुल,
लेकिन फूलों के नाम वाली ये बेटियाँ फूल नहीं थीं
फूलो को नंगा नहीं किया जाता,
झोटा पकड़ कर घसीटा नहीं जाता
फूलों को जलती हुई बीड़ियों से दागा नहीं जाता

कोमल अंगों में मिर्ची भर कर
कबुलवाया नहीं जाता कि
वे डायनें हैं
शिशुओं के नर्म कलेजे चाट-चाट कर खाती हैं
वे ही लाती हैं बाढ़ महामारी, अकाल, दुर्भाग्य
मुक़दमें वे ही हरवाती हैं

हाथ डुबोए गए खौलते हुए तेल में
और फफोले पड़ते ही अपराध सिद्ध हो गए
गिद्ध हो गए पंच परमेश्वर
और सभी जन
कांकर, पाथर, चिरई, कूकुर, भेड़ हो गए
घास हो गए, पेड़ हो गए
फूलों के मुँह से निकली कुछ बुदबुद पर चिल्लाया ओझा
लो सुनलो, इसने स्वयं कुबूला अपना डायन होना
अब ये मेरे हाथों मुक्ति चाहती हैं

चौदह की या पन्द्रह की, गुल्लो बेड़िन ने जब देखा
पूरी पंचायत हत्यारी है
और अगली उसकी बारी है
तो जान बचा कर भागी

कुछ कहते गुल्लो नागिन थी
कुछ कहते बस, नचने वाली बैरागिन थी
कैसी दाग़ी, कैसी बाग़ी
कहते हैं डाकू लाखन ने पीछे से
और पुलिस ने उसके सीने पर गोली दागी

उस पर ना कोई लेख
न ही अभिलेखों में उल्लेख
पुलिस का कहना है, किंवदन्ती है
आज भी किन्तु, गोहद बेसली नदी वाली
राहों से राही बचते हैं
कहते हैं सारी रात वहां गुल्लो के घुंघरू बजते हैं

धूप में पजर कर
जब फूलों के तलवों में पड़ गई बिवाइयाँ
ओठों पर पपडिय़ाँ, चेहरों पर झाइयाँ
बाल जटा जूट, सूजी हुई पलकें, सूजी हुए पाँव
नींद से भरी आखें लाल
और झुलसी हुई खाल
इस तरह
जब उनकी सारी कोमलता को कर दिया नष्ट
और रुह को कुरूप
तब कहा
ये हैं दस्यु सुंदरियाँ 

कुत्तों और सियारों के रोने की आवाज़ों में
उनके रोने की आवाज़
तेज आंधियों में चट्टानों से टकरा
बहते पानी में होती उनके होने की आवाज़

पछुआ चले तो पच्छिम से आती है
उनके रोने की आवाज़
और पुरवा चले तो पूरब से आती है उनके रोने की आवाज़
और जब किसी दिशा में चलती नहीं हवाएँ
होती है सायं-सायं
तब लोग समझ लेते हैं
यह उनकी बेहोशी की आवाज़
गर्दन तक चलती हुई छुरी की खिस्स-खिस्स
शामिल होती कीर्तन के ढोल धमाकों में

कहते हैं एक दिन उन फूलों ने
अपनी पन्हइयों में भर कर पेशाब
पिलाई अपने बलात्कारियों को
और पेड़ों से बाँध कर
उनके प्रजनन अंगों के चिथड़े उड़ा दिए

फूल कैसे हुए पत्थर
और पत्थर कैसे हुए रेत
यह फूलों के रेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के खेत हो जाने की कथा है
यह फूलों के प्रेत हो जाने की कथा है ।

प्रस्तुति शरद कोकास 

सोमवार, जनवरी 15, 2018

शरद कोकास की लम्बी कविता 'देह' पर राजेश जोशी की चिठ्ठी


पहल 104 में प्रकाशित शरद कोकास की लम्बी कविता 'देह' पर राजेश जोशी की चिठ्ठी

प्रिय शरद ,

बहुत दिन बाद तुम्हारी लम्बी कविता देह को पढ़ा है । हालांकि एक पाठ कविता के लिये और खासतोर से लम्बी कविता के लिये नाकाफ़ी है । गहन आवेगात्मक लय के साथ चलती यह एक महत्वपूर्ण कविता है । इसमें देह की विकासगाथा भी है और देह के इतिहास का आख्यान भी । एक साथ कई स्तरों पर चलती कविता की कई परतें हैं । पृथ्वी सहित अनेक ग्रहों की देह के आकार लेने की गाथा से शुरू कविता धरती पर जीवन के आकार लेने की गाथा में प्रवेश करती है और अमीबा के निराकार से आकार तक की यात्रा की तरफ जाती है । कहना न होगा कि तुम एक साथ विज्ञान , इतिहास ,दर्शन और क्लासिकल साहित्य की स्मृतियों को एक दूसरे से बहुत खूबसूरती से गूंथ देते हो। यह रास्ते बड़ी कविता की ओर जाते हैं । इसमें किस तरह हमारे पुरखों की , कई बार हमारे विस्मृत पुरखों की परछाइयाँ उनकी सन्ततियों तक जाती हैं , इसका भी बहुत खूबसूरती से तुमने इस्तेमाल किया है । यह सच है कि मनुष्य की देह सचमुच एक पहेली है । जितना उसे ज़्यादा से ज़्यादा जानने की कोशिश होती रही है उतनी ही वह अबूझ भी बनी ही रहती है ।

"एक देह की जिम्मेदारी में शामिल  होती हैं / अन्य देहों की ज़रूरतें ।"

यह एक महत्वपूर्ण विचार भी है और पंक्ति भी । तुम इतिहास में मनुष्य देह के साथ किये गये अनेक अत्याचारों की स्मृतियों के साथ ही तात्कालिक इतिहास की यूनीयन कार्बाइड , नरोड़ा पाटिया , आदि को भी समेट लेते हो । इस तरह एक बड़ा वृत्त यह कविता बनाती है । इसमें उन भविष्यवाणियों की ओर भी संकेत है जो खतरों की तरह मंडरा रही हैं । देह के मशीनों में बदलने के प्रयास का भी जिक्र यहाँ है । कहना न होगा कि बिना एक सही और प्रगतिशील विचारधारा के इतना बड़ा वृत्त खींचना और उनके बीच के सम्बंधों के महीन तागों को छूना संभव नहीं था । उपलब्धि , खतरे और भयावह सच्चाइयों के साथ कहीं लगता है कि एक बड़े स्वप्न को भी इसमें जगह मिलनी चाहिये थी । लेकिन एक महागाथा की तरह यह कविता बहुत सारे मनों को बेचैन करेगी ।  
शुभकामनाओं के साथ
तुम्हारा
राजेश जोशी
14.10.16    

गुरुवार, अगस्त 25, 2016

पहल 104 में प्रकाशित लम्बी कविता 'देह'


शरद कोकास की लम्बी कविता 'देह'



हिंदी साहित्य में 'पहल' एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका है.वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन जी जिसके संपादक हैं . सन 2005 में पहल ने मेरी लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता' जो लगभग 53 पेज की है पहल पुस्तिका के रूप में प्रकाशित की थी . पहल पुस्तिका के रूप में किसी भी रचनाकार की रचना छपना रचनाकार का सम्मान है . अभी ग्यारह वर्षों पश्चात पुनः 'पहल' पत्रिका ने मेरी लम्बी कविता 'देह' प्रकाशित की है . यह कविता 22 पेज की है . 'पहल' का यह अंक क्रमांक 104  धीरे धीरे लोगों तक पहुँच रहा  है और मुझ तक बधाईयाँ भी आ रही हैं . अभी पिछले दिनों जब मैं जबलपुर गया था तो वहां ज्ञानरंजन जी ने पहल का यह अंक मुझे दिया . प्रसिद्ध कवि मलय जी से भी मुलाक़ात हुई और उन्होंने भी कविता की बहुत प्रशंसा की .


आप सब के लिए इस कविता के एक अंश के साथ पहल पत्रिका में प्रकाशित लम्बी कविता 'देह का यह लिंक दे रहा हूँ . उम्मीद करता हूँ आप सभी को यह कविता अवश्य पसंद आयेगी .


शरद कोकास की लंबी कविता
' देह ' से एक अंश 

अजूबों का संसार है इस देहकोष के भीतर
अपनी आदिमाता पृथ्वी की तरह गर्भ में लिए कई रहस्य
आँख जिसे देखती है और बयान करती है जिव्हा
आँसुओं के अथाह समंदर लहराते हैं जिसमें
इसकी किलकारियों में झरने का शोर सुनाई देता है
माँसपेशियों मे उभरती हैं चटटानें और पिघलती हैं
हवाओं से दुलराते हैं हाथ त्वचा महसूस करती है
पाँवों से परिक्रमा करती यह अपनी दुनिया की
और वे इसमें होते हुए भी इसका बोझ उठाते हैं

अंकुरों से उगते रोम केश घने जंगलों में बदलते

बीहड़ में होते रास्ते अनजान दुनिया में ले जाने वाले
नदियों सी उमडती यह अपनी तरुणाई में
पहाडों की तरह उग आते उरोज
स्वेदग्रंथियों से उपजती महक में होता समुद्र का खारापन
होंठों पर व्याप्त होती वर्षावनों की नमी
संवेदना एक नाव लेकर उतरती रक्त की नदियों में
और शिराओं के जाल में उलझती भी नहीं
असंख्य ज्वालामुखी धधकते इसके दिमाग़ में
हदय में निरंतर स्पंदन और पेट में आग लिए
प्रकृति के शाप और वरदान के द्वंद्व में
यह ऋतुओं के आलिंगन से मस्त होती जहाँ
वहीं प्रकोपों के तोड़ देने वाले आघात भी सहती है

सिर्फ देह नहीं मनुष्य की यह वसुंधरा है

और इसका बाहरी सौंदर्य दरअसल
इसके भीतर की वजह से है ।

शरद कोकास

पूरी कविता पढ़ने के लिये यहाँ या लाल अक्षरों में ऊपर दिए गए लिंक , शरद कोकास की लम्बी कविता 'देह' पर  क्लिक कीजिए .इससे आप सीधे पहल पत्रिका के इस लिंक तक पहुंचकर कविता पढ़ सकते हैं 

शुक्रवार, फ़रवरी 19, 2016

लवली गोस्वामी की कविताएँ

लवली गोस्वामी मूलतः दर्शन और मिथक शास्त्र की स्वतंत्र टिप्पणीकार एवं कवयित्री  हैं . पिछले साल प्रकाशित उनकी पुस्तक ' प्राचीन भारत में मातृसत्ता और यौनिकता ' काफ़ी चर्चा में रही . लवली बहुत दिनों से सैद्धांतिक लेखन में सक्रिय हैं . वे कविताएँ भी लिखती हैं . इस बार प्रस्तुत है उनकी तीन कविताएँ जो साहित्यिक पत्रिका 'सदानीरा ' में प्रकाशित हैं ,पत्रिका से साभार - शरद कोकास 



मेरी कल्पना में तुम

थकान की पृथ्वी का बोझ पलकों पर उठाए
पुतलियाँ  अतल अंधकार में डूब जाना चाहती हैं
पर देह एक अंतहीन सुगबुगाहट के साथ जागना चाहती है
बारिश के बाद हरियाती पीली फूस  जैसे  सर उठाते
दरदरी मिट्टी के कण स्नेह से झटक देती है
ठीक वैसे ही  रोम - रोम कौतुक से ऊँचककर तुम्हें देखता है  

आत्मा की आँखें त्वचा पर दस्तक देती हैं
शताक्षी की देह में उगी पलकों की तरह 
प्रत्येक रोमकूप में आँखे उगी हैं
अवश देह रोओं की लहलहाती फसल बीच
तुम्हारी उपस्थिति बो रही है
स्मृतियों के तमाम हरकारे कानों में धीरे से फुसफुसाते हैं
तुम देह का कोलाहल नहीं हो, कलरव हो
तुम मन की प्रतीक्षा नहीं हो, सम्भव हो 

अवसाद के नर्क के सातवें तले में
तुम्हारे मन के प्रवेश -  कपाट खुलते हैं
देहरी से आते धर्मग्रंथों के उजाले के विरुद्ध सर झुकाये तुम
देवदूत गैब्रियल की शक्ल लिए दिखाई देते हो

कुँवारी मैरी तक ईश्वर का सन्देश पहुँचाने के एवज में तुम पर
धर्मधिकारियों  द्वारा पवित्रता नाशने का अभियोग लगाया गया है
बतौर सजा तुम्हारे पंख नुचवा लिए गए हैं
पँखों की लहूलुहान कतरने लेकर तुम 
सबसे ऊँचे पहाड़ की चोटी में वहाँ चढ़ जाते हो
जहाँ से निर्बल असहाय पक्षी आत्महत्या करते हैं

दुखी मन से शेष बचे सफ़ेद पंख नोचकर
तुम उन्हें पहाड़ से नीचे उछाल देते हो
वे पंख नभ की आँखों से झरने वाले पानी के बादल बन जाते हैं
हर वर्षा ऋतु सृष्टि तुम्हारी पीड़ा का शोक मनाती है

अंधकार अब घटित हो रहा है
पलकें अब स्वप्नों का दृश्य - पटल है
मेरी कल्पना में तुम पद्मासन लगाये सिद्धार्थ में तब्दील गए हो
इस दृश्य में तुम बोध प्राप्ति के ठीक पहले के बुद्ध हो
मैं तुम्हारी गोद में पड़ी अर्धविकसित अंडे में बदल गई हूँ

तुम्हारी देह की ऊष्मा से पोषण पाकर 
अपने प्रसव की आश्वस्ति में नरमी से मुस्कुराती मैं
अपनी कोशिकाओं को निर्मित होता देखती हूँ
उठकर जाने की बाध्यता से डरकर तुम
मेरे सकुशल जन्म तक बोध - प्राप्ति की अवधि बढ़ाते जाते हो

मैं मुलमुलाती अधखुली पलकों से देखती हूँ
तुम सफ़ेद रौशनी की तरह दिखते हो
अर्धविकसित धुंधले मन से सोचती हूँ
तुम दुःख के कई प्रतीकों में ढल जाते हो

मैं देखती हूँ हर प्रतीक्षा दरअसल एक अभ्यास है
अभिसार की प्रतीक्षा प्रेम का अभ्यास है
प्रसव की प्रतीक्षा मातृत्व का अभ्यास है
बुद्धत्व की प्रतीक्षा मोहबद्धता का अभ्यास है.


नींद के बारे में

वह मुझसे पहले सोने जाता और मुझसे पहले जागता था
मैं अक्सर लिखते - लिखते सर उठा कर कहती तुम सो जाओ
मैं बाद में आकर तुम्हारे पास सो जाउंगी

मैं उसके साथ सोती थी
जैसे दरारों में देह को दरार का ही आकार दिए जोंक सोती है
संकीर्ण दुछत्तियों  में थककर चंचल बिल्लियाँ सोती है  
धरती की देह पर शिराओं का - सा आकार लिए नदियाँ सोती है
नाल काटे जाने के ठीक बाद नाक से साँस लेने का अभ्यास करता शिशु सोता है
जैसे धरती आकाश के बीच लटके मायालोक में त्रिशंकु सोता होगा

सोने की क्रिया
हमेशा मेरे लिए एक प्रकार की निरीहता रही
पराजय रही
जागना एक सक्रियता
एक आरोहण

वह ताउम्र मुझसे कहता रहा
"
कभी सोया भी करो बुरी बात नहीं"
मैं इस अच्छी बात को रोज उसके चेहरे पर होता देखने के लिए जागती रही
मैं कहती रही किसी को सोते देखना सुख देता है
वह समझदार मेरी इस समझ को नासमझी कहकर
मुझे सुलाने की कोशिश करता रहा  

वैसे तो सोया हुआ आप रात को तालाब के जल को भी कह सकते हैं
उसके भीतर आसमान गतिमान रहता है
सब तारे उस पर झुक - झुक कर अपना चेहरा देखते हैं
मैं भी उसे सोते हुए मुस्कुराते देखकर
उसकी आत्मा में अपनी उपस्थिति देखती थी

मेरे अंतस में वह ऊर्जा के केंद्र के जैसा ही था
पृथ्वी के कोर में पिघले खनिज की तरह
महावराह की तरह जब वह जल के सीमाहीन विस्तार पर
मुझे हर जगह तलाश रहा था
मैं उसके अंतस में जलप्लावित पृथ्वी सी समाधिस्थ थी
आप कह सकते हैं वह दिपदिपाता गतिमान मेरे अंदर सो  रहा था
मैं अनवरत घूमती दिन -रात के चक्कर काटती उसके अंदर जाग रही थी

अगर देह ब्रह्माण्ड है तो प्रत्येक नींद प्रलय है
जो स्वप्न अगली सुबह स्मृति में शेष रह जाते हैं
वे नूह की नौका में बचे जीवित पशु - पक्षी हैं
यही स्मृतियाँ हमें आने वाले कल्प से दिन में
जीने के लिए माकूल कोलाहल बख़्शती है

पलकें नियामत हैं
(
आप पर्दे भी पढ़े तो चलेगा )
वरना जरा सोचिये कैसा लगता होगा
जब नींद में मगरमच्छ को आते देखकर भी मछलियों की नींद नहीं टूटती होगी
वह अंतिम भयानक सपना तो याद होगा आपको
जिसने आपको न जाग पाने की विवशता का परिचय दिया होगा
वही आपके मन के सबसे अँधेरे कोने में छिपे डर का सपना
जो नुकीले दातों से आपको कुतर देता है पर आपकी नींद नही खुलती
नींद आश्वस्ति है
जागना अविश्वास है
तो बताइये आप मछलियों को क्या देना चाहेंगे
आश्वस्ति या अविश्वाश ?

मछलियाँ खुली आँखों से सच्ची निरीह नींद सोती हैं
बगुले सोने का अभिनय करके झपट कर शिकार पकड़ते हैं
दुनिया के तमाम घोड़े खड़े – खड़े सोते हैं
जबकि उल्लू दिन की रौशनी को अनदेखा करके सोते हैं
सोना कतई सामान्य प्रक्रिया भर नहीं है
एक चुनी हुई आदत है 
उससे भी बढ़कर एक साधा हुआ अभ्यास है.



मेरे लिए प्रेम मौन के स्नायु में गूंजने वाला अविकल संगीत है
तुम्हारा मौन प्रेम के दस्तावेजों पर तुम्हारे अंगूठे की छाप है

रात का तीसरा प्रहर कलाओं के संदेशवाहक का प्रहर होता  है 
जब सब दर्पण तुम्हारे चित्र में बदल जाते हैं
मैं श्रृंगार छोड़ देती हूँ
जब सुन्दर चित्रों की सब रेखाएं
तुम्हारे माथे की झुर्रियों का रूप ले लेती हैं  
मैं उष्ण सपनों के रंगीन ऊन पानी में बहाकर
सर्दी की प्रतीक्षा करती हूँ 

सर्दियाँ यमराज की ऋतु है
सर्दियाँ पार करने के आशीर्वाद हमारी परम्परा हैं
*
पश्येम शरदः शतम्
**
जीवेम शरदः शतम्
मृत्यु का अर्थ देह से उष्णता का लोप है
तो शीत प्रेम का विलोम है 
अक्सर सर्दियों में बर्फ के फूलों सा खिलता तुम्हारा प्रेम मेरी मृत्यु है

तुम मृत्यु के देवता हो
तुम्हारे कंठ का विष अब तुम्हारे अधरों पर है
तुम्हारे बाहुपाश यम के पाश हैं
सर्दियों में साँस - नली नित संकीर्ण होती जाती है
आओ कि  आलिंगन में भर लो और स्वाँस थम जाये
न हो तो बस इतने धीरे से छू लो होंठ ही
कि प्राणों का अंत हो जाये

तुम मेरी बांसुरी हो
प्रकृतिरूपा दुर्गा की बाँसुरी
तुममे सांसों  से सुर फ़ूँकती मैं
जानकर कितनी अनजान हूँ
छोर तक पहुंचते मेरी यह सुरीली साँस
संहार का निमंत्रण बन जायेगी

 
मेरे बालों में झाँकते सफ़ेद रेशम
जब तुम्हारे सीने पर बिखरेंगे
गहरे नील ताल के सफ़ेद राजहंसों में बदल जायेगे
ताल, जिसे नानक ने छड़ी से छू दिया कभी न जमने के लिए
हंस, जो लोककथा में बिछड़ गए कभी न मिलने के लिए
मेरे प्रिय अभागे हरश्रृंगार इसी प्रहर खिलते हैं
सुबह से पहले झरने के लिए
सृष्टि के सब सुन्दर चित्र मेरा - तुम्हारा वियोग हैं

मेरे मोर पँख, कहाँ हो
मेरा जूडा अलंकार विहीन है
मेरी बांसुरी, मेरी सृष्टि लयहीन है.
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-लवली गोस्वामी 


# "पश्येम शरदः शतम्" -हम सौ शरदों तक देखें, सौ वर्षों तक हमारे आंखों की ज्योति स्पष्ट बनी रहे.
#"
जीवेम शरदः शतम् "  -हम सौ शरदों तक जीवित रहें .

- लवली गोस्वामी