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शुक्रवार, जून 11, 2010

विवाह समारोहों में क्या कभी आपने इन्हे देखा है ?


यह विवाहों का मौसम है । जहाँ से गुज़रो शहनाई बजती सुनाई देती है । जिनका विवाह हो रहा है वे भी प्रसन्न हैं और साथ ही उनके माता पिता भी ,कि चलो एक ज़िम्मेदारी पूरी हो गई । पता नहीं कब तक हमारे यहाँ बच्चों के विवाह को माता पिता अपनी ज़िम्मेदारी समझते रहेंगे । शायद यह इस वज़ह से है कि अपना कैरियर चुनने में तो यह पीढ़ी सक्षम हो गई है लेकिन जीवन साथी चुनने में अभी तक सक्षम नहीं हो पाई है । इस परावलम्बिता का सबसे अधिक प्रभाव उन लड़कियों पर होता है अन्यान्य कारणों वश जिनका विवाह नहीं हो पाता और एक उम्र गुज़र जाने के बाद अवसाद जिन्हे घेर लेता है । मैंने इस कविता में ऐसी ही लड़कियों के मन में झाँकने की थोड़ी कोशिश की है....



 
                        अधेड़ होती लडकियाँ


जैसा कि धुंधला आईना ही जिम्मेदार हो
समय के चेहरे पर दिखाई देती झुर्रियों के लिए
बार बार पोछ्ती हैं आईना
वक़्त से पहले अधेड़ होती लडकियाँ

वे उंगलियों से  टटोलती  है    
रंगीन किताबों की चिकनी तस्वीरें
कायाकल्प करने वाले झरनों के स्वप्न लिये
देर तक जागती है ख्वाबगाह में
सड़क को सड़क की तरह देखने के सिवा जहाँ कोई विकल्प नहीं
वे उसे हवा में तनी एक रस्सी की तरह देखती हैं
आत्मसम्मान का मजबूत बांस लिये जिस पर चलते हुए
तरस और हवस से भरी नज़रों के बीच संतुलन बनाती है
वे हर कदम उँच नीच से बचाती हैं

उम्र के शब्दकोष में जहाँ पुराने पीले पन्नों पर
सुखे गुलाबों के नीचे छुपे होते हैं कुछ शब्द
शरमाना इठलाना इतराना
वहीं परिशिष्ट में दिखाई देते है
इर्ष्या हताशा और ऊब के तमाम पर्यायवाची शब्द
अपने बचाव के लिए ज़रुरी शब्दों की तलाश में
हडबडी में पलटती हैं वे जर्जर पन्ने

उनके  अकेलेपन में सेंध लगाते है औरों के कहकहे
 जिनमें वे उपेक्षा के अघोषित स्वर सुनती है
इच्छाओं की अपार भीड में
अपने लिए चुनती हैं एक अकेला कोना
जहाँ अपने शौक और विचार की हठधर्मिता में
वे अपने आप से प्रतिवाद करती हैं
आखिर वे दुनिया की पहली लडकी तो नहीं हैं
अधेड़ होती हुई

एक दिन जब उतरता हुआ ज्वार
देह की रेत पर निराशा का कीच छोड जाता है
सीप जडें  धरौंदों के बह जाने के दुख में
जाती हुई लहर थामने की कोशिश करती है    
अधेड़ होती हुई लडकियाँ
और चटटानों पर पछाड खाकर गिरती है
उनके भीतर बहते भय और खुशी के रेले
अर्थहीन दलदल में बदल जातें है जब
विज्ञापन में दिखाये जाने वाले सपनों के राजकुमार की उम्र
अपनी उम्र से कम दिखाई देने लगती है
कचरे में फेंक दी जाती हैं
सुंदरता बढाने वाली  क्रीम की खाली डिब्बियाँ
खाली महत्वाकांक्षा के साथ

इन दिनों पढ़ती हैं वे यौन उत्पीड़न की खबरें
और उनमें निहित ध्वन्यार्थ ढूंढती हैं

                        शरद कोकास

(चित्र गूगल से साभार )