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मंगलवार, अक्टूबर 12, 2010

नवरात्र कविता उत्सव - पाँचवा दिन - मैथिली कवयित्री शेफालिका वर्मा


12 अक्तूबर 2010
            कल प्रस्तुत ज्योती लांजेवार की मराठी कविता पर अनेक सुधि पाठकों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई । इन प्रतिक्रियाओं से एक एक पंक्ति उद्धृत  कर रहा हूँ । इन्हे अवश्य पढ़िये । देवेन्द्र पाण्डेय - वेदना की गन्ध को एक क्षण बसा लेने की आकांक्षा अधुत अहसास कराती है । पद्म सिंह - बहुत अच्छी तरह उकेरे गये भाव । ललित शर्मा - बेहतरीन रचना और अनुवाद । इस्मत ज़ैदी - कोमल भावों की व्याख्या करती सुन्दर रचना ।  संगीता स्वरूप ,एस एम मासूम -स्नेहिल स्पर्श के महत्व को बताती सुन्दर रचना । के के यादव- मराठी ने ही सर्वप्रथम दलित साहित्य को ऊँचाइयाँ दीं । डॉ.मोनिका शर्मा -प्रभावी और भावपूर्ण रचना । उस्ताद जी -बोझिल । वन्दना -बहुत सुन्दर अनुवाद । सिद्धेश्वर सिंह -एक अच्छी कविता पढ़ने के सुख में हूँ । रंजू भाटिया - अनुवाद बहुत अच्छा किया है आपने । सुशीला पुरी -  प्रेम भी एक तरह का युद्ध है । महेन्द्र वर्मा -  अपने प्रिय से गहन आत्मीयता को अभिव्यक्त करती कविता । पी एन सुब्रमनियन - अनुवाद में मूल भावनाओं को समेटना बहुत कठिन होता है । मनोज कुमार - कविता भाषा शिल्‍प और भंगिमा के स्‍तर पर समय के प्रवाह में मनुष्‍य की नियति को संवेदना के समांतर, दार्शनिक धरातल पर अनुभव करती और तोलती है मुक्ति - दलित कवियत्रियों की कविताओं में एक वेदना तो होती ही है । संजय भास्कर  - मूल भाव अभियव्यक्ति लाजवाब है । शाहिद मिर्ज़ा  - आपके अनुवाद से आया निखार चार चांद लगा रहा है । शिखा वार्ष्णेय - कविता में पवन के माध्यम से वेदना को उकेरना बहुत प्रभावी लगा । ज्योति सिंह -पवन के मध्यम से गहरी बात कही गई है ।  वाणी गीत - सदियों से हाशिये पर रहे लोगों के लिए प्रेम सिर्फ रोमांस नहीं हो सकता आकांक्षा - सुन्दर कविता. और सार्थक अनुवाद रश्मि रविजा - किसी भी वेदना को स्नेहिल स्पर्श की आकांक्षा जरूर होती है डॉ. टी एस दराल - अनुवाद में किये गए शब्दों के प्रयोग दिलचस्प हैं  समीर लाल - प्रेम की वेदना...अनुवाद में भी वही प्रवाह...और भावों की महक ! कैलाश - मराठी की दलित प्रेम कविता को प्रस्तुत करने के लिए आपका शुक्रियाराजेश उत्साही - अनुवाद और सहज और सरल हो सकता थाडॉ. रूपचन्द शास्त्री - शब्दों के मोतियों को टाँकने मे आपने कमाल किया है । रचना दीक्षित - सचमुच खूबसूरत कविता । zeal - परिचय करवाने का आभार और बेहतरीन अनुवाद के लिए आपको बधाई राज भाटिया - बहुत अच्छी कविता जी । रावेन्द्रकुमार रवि - उपस्थित श्रीमानउत्तम राव क्षीर सागर - अंति‍म पद की पहली पंक्‍ति‍ खटकती है मेरे हि‍साब से यह 'अपने भीतर बसा लेना उसे' होती शोभना चौरे - मराठी से हिंदी अनुवाद सुन्दर है | वन्दना अवस्थी दुबे -कितनी मासूम इच्छा है!!! बहुत सुन्दर । इसके  अलावा फेसबुक पर भी तीन मित्रों की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई , तीनों कवि मित्रों के नाम ' अ ' से हैं -अंशुमाली रस्तोगी , अमिताभ श्रीवास्तव और अनुपम ओझाआप सभी को बहुत बहुत धन्यवाद । 
           नवरात्र के पाँचवे दिन प्रस्तुत है मैथिली कवयित्री शेफालिका वर्मा की कविता । शेफालिका वर्मा का जन्म 1943 में हुआ । आप अनेक पुरस्कारों से सम्मानित है । प्रस्तुत है जीवन की सार्थकता पर सवाल करती हुई उनकी यह कविता । इसमें प्रेम भी है और जीवन दर्शन भी । प्रकृति के बिम्बों का भी बेहतरीन प्रयोग है । मूल मैथिली कविता का हिन्दी अनुवाद स्वयं कवयित्री ने किया है । प्रस्तुत कविता “ समकालीन भारतीय साहित्य “ के अंक 128 से साभार ।  

सार्थकता

तुमसे अलग हो आज यह अनुभूति हुई
साँस लेना ही ज़िन्दगी नहीं
किन्तु
जीवन की सार्थकता बनाना
महती उद्देश्य होना चाहिये
सार्थक ?
कैसे बनाऊँ प्रश्न छटपटाता रहा
बेचैन सा
पछवा पुरवा में लहराते पेड़ों की
शाखा से पत्तों की
लयात्मक गति से झर झर गिरने से
बेला गुलाब की सुरभि से
तुम्हारा संदेशा आ रहा था

सार्थकता उद्देश्य नहीं
जीवन की प्रक्रिया है
अपनों का साथ
एक दूसरे के सुख दुख में साँस लेना
एक – दूसरे के आँसू पोंछने में ही जीने की
सार्थकता है
अपने लिए तो सभी जीते हैं
पर तुम जिओ
उस सूरज की तरह
जो कभी अस्त नहीं होता
धरती के इस छोर से उस छोर तक
परिक्रमा करता रहता है
सबों को रोशनी बाँटता है

सबों को चैन देने में
उसका जीवन
सार्थक हो जाता है
बादल लगते हैं
कुहासा उसे ओट कर देता है
किंतु
वह कभी डगमगाता नहीं
अपने कर्तव्य में
अपने को सार्थक करने में
सबों के जीवन को
वह अडिग अटल है
प्रतिपल प्रतिक्षण ।

-       शेफालिका वर्मा 

जन्म:९ अगस्त, १९४३,जन्म स्थान : बंगाली टोला, भागलपुर । शिक्षा:एम., पी-एच.डी. (पटना विश्वविद्यालय),सम्प्रति: ए. एन. कालेज मे हिन्दी की प्राध्यापिका ।प्रकाशित रचना:झहरैत नोर, बिजुकैत ठोर । नारी मनक ग्रन्थिकेँ खोलि:करुण रससँ भरल अधिकतर रचना। प्रकाशित कृति :विप्रलब्धा कविता संग्रह,स्मृति रेखा संस्मरण संग्रह,एकटा आकाश कथा संग्रह, यायावरी यात्रावृत्तान्त, भावाञ्जलि काव्यप्रगीत । ठहरे हुए पल 
( चित्र व परिचय गूगल से साभार )

रविवार, मई 10, 2009

माँ की मृत देह के पास बैठकर

8 अगस्त 2001 की वह रात ..बहुत तेज़ बारीश थी .मै 200 किलोमीटर की यात्रा कर भंडारा पहुंचा ,देखा माँ की मृत देह ड्राइंगरूम के बीचों बीच रखी है .मै सदमे मे था.. मुझे तो खबर मिली थी कि माँ बीमार है ..इतनी जल्दी वह कैसे हमे छोडकर जा सकती है ..पता नही क्यों मुझे रोना नही आया .मै माँ के पास जाकर बैठ गया, हाथ में एक कलम थी और एक कागज ..रात भर जाने क्या क्या लिखता रहा मैं.. मुझे लगा जैसे मै माँ से बातें कर रहा हूँ..बहुत दिनों बाद कवि मित्र विजय सिंग घर आये ..वह कागज उन्होनें देखा और कहा "अरे! यह तो कवितायें हैं.. "उनकी पत्रिका "सूत्र" के समकालीन कविता अंक से यह कवितायें .....शरद कोकास
माँ की मृत देह के पास बैठकर - एक

तुम्हारी देह के पास रखे गुलाब को देखकर
बाबूजी ने कहा
तुम किसी को भी बगैर इज़ाज़त
पौधे से फूल तोडने नही देती थीं
माँ आज तुम खुद पौधे से टूटकर
अलग हो गई हो
किसने तोडा तुम्हें
और किसने दी इज़ाज़त
माँ की मृत देह के पास बैठकर- दो

तुम चुप हो माँ
वैसे भी तुम बोलती कहाँ थीं
चुप रहकर सहती रही जीवन भर
वह सब जो एक स्त्री को सहना पडता है
अभी पिछले दिनो तो तुमने बोलना शुरू किया था
हँसकर कहते थे बाबूजी
अब बुढापे मे यह बोलती है
मैं चुप रहकर सुनता हूँ
रो रो कर हम सब भी चुप हो गये हैं माँ
अब बोलो ना तुम...
माँ की मृत देह के पास बैठकर-तीन

ज्यों ज्यों बढ रही है रात
हल्की हल्की ठन्ड लग रही है मुझे
तुम मज़े से चादर ओढे सो रही हो माँ
मेरा मन कर रहा है
तुम्हारी चादर मे घुसकर सो जाऊँ
और तुम मुझे थपकियाँ देकर सुलाओ
जैसे बचपन मे सुलाती थीं..
माँ की मृत देह के पास बैठकर-चार

अभी अभी तुम्हें उढाइ हुई चादर हिली
मुझे ऐसा क्यों लगा माँ
जैसे तुमने साँस ली हो.

माँ की मृत देह के पास बैठकर-पांच

कल तुम्हे सौंपना होगा अग्नि के हवाले
तु
म्हारी देह इस रूप में तो हमारे साथ नही रह सकती
वैसे भी तुम अपनी देह के साथ कहाँ रहीं
चोट हमे लगती थी दर्द तुम्हे होता था
हमारे आँसू तुम्हारी आँख से निकलते थे
हमारे खाने से तुम्हारा पेट भर जाता था
पूरी हो जाती थी तुम्हारी नीन्द हमारे जी भर कर सो लेने से
हमारी देह को सक्षम बनाकर
बिना देह के जीती रही तुम
तुम्हारी जिस देह का कल मुझे अंतिम संस्कार करना है
वह तो केवल देह है..

माँ की मृत देह के पास बैठकर-छह

देह को मिट्टी कहते हैं
मिट्टी मिल जाती है मिट्टी में
महकती है बारिश की पहली फुहार मे
तुम भी महकोगी माँ
हर बारिश में..
शरद कोकास
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लीलाधर मंडलोई की कविता 'माँ दिन भर हमारे इंतज़ार मे रहती है 'से एक अंश


प्रकाश रेखाएँ चीरती हैं/सन्नाटे की सुबह/और हडबडाहट से भरी माँ/
भागती है घर की तरफ /खदान का भोंपू बजाता है आठ/
और जाग उठता है दिन/कामगारों का
माँ घर छोडकर(रामभरोसे)/निकल पडती है काम पर
हम उसके लौट आने का इंतज़ार करते हैं/दिन भर/
माँ दिन भर हमारे इंतज़ार में रहती है । मेरी माँ- लीलाधर मंडलोई

लीलाधर मंडलोई








गुरुवार, अप्रैल 16, 2009

शरद कोकास की सुख दुःख की कवितायें -इलेक्शन


दुःख का सीधा मुकाबला
सुख से था
सुख के पक्ष में सत्ता थी
मक्कारी थी
अय्यारी थी
दुःख को धूल चटवाने की
पूरी तय्यारी थी
सुख के कार्यकर्ताओं में
सौ बार बोले जा चुके झूठ थे
धोखा आतंक अनाचार थे
लोभ लालच उसके पिट्टू थे
अनीति उसकी प्रवक्ता थी
बेईमानी वित्तप्रबंधक
सुविधाएं उसकी गुलाम थी
सितारों की उस पर कृपा थी
आकाश मेहरबान था
सुख के झंडे पर
स्वप्न का निशान था

सुख की ताकत के आगे
लाचार था दुःख
अपने रोने के अलावा
उसके पास ऐसा कुछ नही था
जिससे वह सुख का मुकाबला करता
फ़िर भी दुःख ने संघर्ष किया
कोशिश की सुख से जीतने की
और हार गया
दुःख नही पहुंचा कुर्सी तक
सुख पहुँच गया

सोमवार, अप्रैल 13, 2009

शरद कोकास की सुख दुःख की कवितायें -तरीका

दबे पाँव आते थे दुःख
इंसानों पर हमला कर
उन्हें खा जाते थे
उनकी दाढ़ में इन्सान का खून लगा था
वे नित नए इंसानों की तलाश करते
सुखी इंसानों का स्वाद उन्हें अच्छा लगता
वे चुपचाप आते
दोस्त बनकर
इन्सान के कंधे पर हाथ रखते
और गर्दन दबोच लेते

हमले का यह नायाब तरीका
उन्होंने इंसानों से ही सीखा था

रविवार, अप्रैल 12, 2009

शरद कोकास की सुख दुःख की कवितायें

हजार हाथ थे सुख के
जिनसे वह हजारों को
दुलार सकता था
दुःख के पास थी फकत दो ऑंखें
जिनसे वह करोड़ों को देखता
और दुखी कर देता *******