रविवार, सितंबर 20, 2009

पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ

नवरात्रि पर्व पर विशेष कविता श्रंखला -समकालीन कवयित्रियों द्वारा रचित कवितायें 

नवरात्रि के प्रथम दिन प्रस्तुत अनामिका जी की कविता "स्त्रियाँ " दिनेश राय द्विवेदी जी को बहुत पसन्द आई उन्होने कहा  "सदियों से जिस तरह नारी को समाज में दमन का सामना करना पड़ा है और करना पड़ रहा है उस से अधिकांश नारियों में का इंसान होने का अहसास ही गुम हो गया है। यह अहसास पैदा हो जाए बहुत है। बाकी काम तो नारियाँ खुद निपटा लेंगी।" अशोक कुमार पाण्डेय ने कहा "यह कविता इतनी प्रभावशाली है कि कई बार पढी गयी होने के बावजूद पढ़वा ले जाती है । "निर्मला कपिला ने कहा " बहुत सुन्दर रचना है नारी के सच का सच "। अलबेला खत्री ने इस प्रस्तुति पर प्रसन्नता प्रकट करते हुए कहा "शरद जी आप नारी तो नहीं हो..परन्तु नारी के स्वाभिमान व सम्मान ही नहीं उसके अन्तर की वेदना व संवेदना से भी भलीभांति परिचित हो और नारी के मार्ग में आने वाले कंटकों को सदैव दूर करने का प्रयास करते हो । " मीनू खरे ने कहा "अनामिका जी की अभिव्यक्ति अद्भुत लगी.। " डॉ. टी.एस. दराल ने कहा " नारी के कोमल अहसास का बहुत सुन्दर चित्रण. है । "विनोद कुमार पाण्डेय ,समयचक्र ,हेमंत कुमार,राज भाटिया तथा मिथिलेश दुबे को यह रचना पसन्द आई ।अनामिका जी की पंक्तियाँ " बेकार बेचैन और आवारा महिलाओं का ही शगल है यह  कहानियाँ और कविताएँ " पर टिप्पणी करते हुए नन्ही कोपल ने कहा " आजकल स्त्रियाँ आजकल कहानी कविताये ही नही बल्कि बहुत सुंदर सुंदर विचारयुक्त ब्लोग भी लिख रही है । इसी तरह आगे भी लिखती रहेगी ।"भूतनाथ जी ने कवि राजेश जोशी के "मैं हिन्दू होने पर शर्मिन्दा हूँ " की तर्ज़ पर कहा कि "  पुरुषों की ओर से मैं अभी अभी शर्मिन्दा होकर लौटा हूँ ।"गिरीश पंकज जी ने कहा " अनामिका जी की कविता समकालीन पुरुष प्रवृत्तियों का पोस्टमार्टम करती है ,आशा है ऐसी ही श्रेष्ठ रचनायें पढ़ने को मिलेंगी ।
                              इस कड़ी मे आज दूसरे दिन प्रस्तुत है "सात भाईयों के बीच " कविता संग्रह के लिये प्रसिद्ध एक्टिविस्ट कवयित्री कात्यायनी की यह कविता ।                                                                          


नहीं हो सकता तेरा भला  



बेवकूफ जाहिल औरत
कैसे कोई करेगा तेरा भला
अमृता शेरगिल का तूने
नाम तक नहीं सुना
बमुश्किल तमाम बस इतना ही
जान सकी हो
इन्दिरा गान्धी इस मुल्क की रानी थी
(फिर भी तो तुम्हारे भीतर कोई प्रेरणा का संचार नहीं होता )
रह गई तू निपट गंवार की गंवार ।
पी.टी.उषा को तो जानती तक नहीं
माग्ररेट अल्वा एक अजूबा है
तुम्हारे लिये ।
“क ख ग घ” आता नहीं
’मानुषी ‘ कैसे पढ़ेगी भला –
कैसे होगा तुम्हारा भला -
मैं तो परेशान हो उठता हूँ !
आजिज आ गया हूँ तुमसे
क्या करूँ मै तुम्हारा ?
हे ईश्वर !
मुझे ऐसी औरत क्यों नहीं दी
जिसका कुछ तो भला किया जा सकता
यह औरत तो बस भात रान्ध सकती है
और बच्चे जन सकती है
इसे भला कैसे मुक्त किया जा सकता है ?

                        कात्यायनी                                                                                              


( यह आवाज़ पुरुष के उस मन से आ रही है जो हमेशा अप्रकट रहता है इसी यथार्थ को बेनकाब किया है कवयित्री कात्यायनी ने - क्या सोचते हैं आप - शरद कोकास )