उफ़ यह गर्मी , उफ़ यह पसीना ।कहते हैं गर्मी के बारे में सोचने से गर्मी कम नहीं होती और पसीने के बारे में सोचने से पसीना बहना कम नहीं होता ।मैंने भी एक बार पसीने के बारे में सोचने की कोशिश की थी और बन गई एक कविता । अब इसे पढ़कर यह न कहियेगा कि पसीने के बारे में मैंने आपकी सोच बदल दी है , और यह भी कि कवि भी कितने पागल होते हैं हम पसीना न बहे इसके लिये उपाय कर रहे हैं और ये न जाने क्या क्या सोच रहे हैं । ठीक है , मैं भी तो यही कह रहा हूँ कि यह कविता उस पसीने के बारे में नहीं है ।