हिंदी साहित्य में 'पहल' एक महत्वपूर्ण साहित्यिक पत्रिका है.वरिष्ठ कथाकार ज्ञानरंजन जी जिसके संपादक हैं . सन 2005 में पहल ने मेरी लम्बी कविता 'पुरातत्ववेत्ता' जो लगभग 53 पेज की है पहल पुस्तिका के रूप में प्रकाशित की थी . पहल पुस्तिका के रूप में किसी भी रचनाकार की रचना छपना रचनाकार का सम्मान है . अभी ग्यारह वर्षों पश्चात पुनः 'पहल' पत्रिका ने मेरी लम्बी कविता 'देह' प्रकाशित की है . यह कविता 22 पेज की है . 'पहल' का यह अंक क्रमांक 104 धीरे धीरे लोगों तक पहुँच रहा है और मुझ तक बधाईयाँ भी आ रही हैं . अभी पिछले दिनों जब मैं जबलपुर गया था तो वहां ज्ञानरंजन जी ने पहल का यह अंक मुझे दिया . प्रसिद्ध कवि मलय जी से भी मुलाक़ात हुई और उन्होंने भी कविता की बहुत प्रशंसा की .
आप सब के लिए इस कविता के एक अंश के साथ पहल पत्रिका में प्रकाशित लम्बी कविता 'देह का यह लिंक दे रहा हूँ . उम्मीद करता हूँ आप सभी को यह कविता अवश्य पसंद आयेगी .
शरद कोकास की लंबी कविता ' देह ' से एक अंश
अजूबों का संसार है इस देहकोष के भीतर अपनी आदिमाता पृथ्वी की तरह गर्भ में लिए कई रहस्य आँख जिसे देखती है और बयान करती है जिव्हा आँसुओं के अथाह समंदर लहराते हैं जिसमें इसकी किलकारियों में झरने का शोर सुनाई देता है माँसपेशियों मे उभरती हैं चटटानें और पिघलती हैं हवाओं से दुलराते हैं हाथ त्वचा महसूस करती है पाँवों से परिक्रमा करती यह अपनी दुनिया की और वे इसमें होते हुए भी इसका बोझ उठाते हैं अंकुरों से उगते रोम केश घने जंगलों में बदलते बीहड़ में होते रास्ते अनजान दुनिया में ले जाने वाले नदियों सी उमडती यह अपनी तरुणाई में पहाडों की तरह उग आते उरोज स्वेदग्रंथियों से उपजती महक में होता समुद्र का खारापन होंठों पर व्याप्त होती वर्षावनों की नमी संवेदना एक नाव लेकर उतरती रक्त की नदियों में और शिराओं के जाल में उलझती भी नहीं असंख्य ज्वालामुखी धधकते इसके दिमाग़ में हदय में निरंतर स्पंदन और पेट में आग लिए प्रकृति के शाप और वरदान के द्वंद्व में यह ऋतुओं के आलिंगन से मस्त होती जहाँ वहीं प्रकोपों के तोड़ देने वाले आघात भी सहती है सिर्फ देह नहीं मनुष्य की यह वसुंधरा है और इसका बाहरी सौंदर्य दरअसल इसके भीतर की वजह से है । शरद कोकास
नरेश चन्द्रकर से मेरी मित्रता को अभी एक दशक भी पूरा नहीं हुआ है । लेकिन कवियों की मित्रता वर्षों में नापी नहीं जाती न ही इसे किसी कालखण्ड में बान्धा जा सकता है । नरेश का कविता संग्रह " बहुत नर्म चादर थी जल से बुनी " जब परिकल्पना प्रकाशन से प्रकाशित होने जा रहा था तो उसने कहा , " शरद यह कविता संग्रह तुम्हे समर्पित कर रहा हूँ । " मैं चौंका .. " यार अभी समर्पण करने लायक उम्र तक नहीं पहुँचा हूँ मैं । " नरेश ने एक कहकहा लगाया और कहा .पागल ...उम्र से नहीं काम से नापी जाती है कवियों की उम्र । तुम्हारी लम्बी कविता "पुरातत्ववेत्ता " तुम्हे लम्बी उम्र दे चुकी है ।
आज एक मार्च नरेश चन्द्रकर का जन्मदिन है । ढेर सारी बधाई और प्यार के साथ नरेश की यह कविता उनके इसी संग्रह से ।
आपने अब तक इन्हे पढ़ा - प्रथम दिन से लेकर आपने अब तक फातिमा नावूत , विस्वावा शिम्बोर्स्का, अन्ना अख़्मातोवा .गाब्रीएला मिस्त्राल और अज़रा अब्बास की कवितायें पढ़ीं ।
आप सभी अच्छी कविता के प्रशंसक हैं - कल प्रकाशित अज़रा अब्बास की कविता पर खुशदीप सहगल , संजय भास्कर ,जे. के. अवधिया , अरविन्द मिश्रा , गिरीश पंकज . प्रज्ञा पाण्डेय , सुशीला पुरी , शोभना चौरे , रश्मि रविजा ,रश्मि प्रभा , बबली , वाणी गीत , वन्दना , रचना दीक्षित ,सुशील कुमार छौक्कर देवेन्द्र नाथ शर्मा , गिरिजेश राव , समीर लाल , एम.वर्मा ,कुलवंत हैप्पी ,काजल कुमार ,मुनीश ,कृष्ण मुरारी प्रसाद,अपूर्व ,रावेन्द्र कुमार रवि ,हर्षिता,पंकज उपाध्याय,विनोद कुमार पाण्डेय ,अलबेला खत्री , चन्दन कुमार झा की प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुई । आप सभी अच्छी कविता के प्रशंसक हैं , आप सभी के प्रति मैं कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ । सबसे अधिक प्रसन्नता मुझे युवा कवि व ब्लॉग अनुनाद के शिरीष कुमार मौर्य के आगमन से हुई उनका मै स्वागत करता हूँ और पिछले दिनों उन्हे प्राप्त लक्षमणप्रसाद मंडलोई सम्मान के लिये इस ब्लॉग के पाठकों की ओर से बधाई देता हूँ । सिद्धेश्वर जी ने फोन पर बताया कि डॉ. रूपचन्द शास्त्री “ मयंक “ भी यह कविता श्रंखला पढ़ रहे हैं , उनके प्रति भी मैं धन्यवाद ज्ञापित करता हूँ । अशोक कुमार पाण्डेय व्यस्तता के चलते आज मात्र उपस्थिति ही दर्ज कर पाये इसके लिये भी धन्यवाद ।
आप आज पढ़ेंगे- आज प्रस्तुत है अरबी में लिखने वाली कवयित्री दून्या मिख़ाइल की एक महत्वपूर्ण कविता । अरविन्द मिश्रा जी ने एक जिज्ञासा रखी थी सो दून्या की कविता पर कवि गीत चतुर्वेदी की यह टिप्पणी प्रस्तुत कर रहा हूँ । इस कविता का अनुवाद भी गीत ने ही किया है और यह मैने ज्ञानरंजन जी की पत्रिका “ पहल “ के अंक 83 से साभार ली है । गीत चतुर्वेदी कहते हैं “ अरबी में लिखने वाली दून्या मिख़ाइल का व्यंग्य कहता है कि आप शब्दों को , उसी अर्थ में न समझें , उन्हे इस्तेमाल करने के पीछे की सोच भी समझें । जब वह कहती है ‘हमेशा’ तो उसका मतलब पूरी तरह हमेशा नहीं होता , ऐसा तो उसने सिर्फ तुक मिलाने के लिये कहा था । जब वह चुप रहती हो तो उसे पूरी तरह चुप्पी न समझा जाये , हो सकता है उसकी आँखों के रास्ते अभी अभी बगदाद की गलियों में गुजरा उसका बचपन आया हो ।“
गीत चतुर्वेदी कहते हैं “ दून्या के यहाँ महिला होने का सियापा नहीं है । उसमें प्रेमिकाओं की तरह इंतज़ार करने की ताकत है और यह हुनर उसे “ मेहनतकश जंग “ ने सिखाया है । अरबी कविता जब से वयस्क हुई है उसमें गोली,धमाके, ख़ून से लथपथ चांद और एक बूढ़े पेड़ की उसांसों से निकलता तूफ़ान बेसाख़्ता आता रहा है । ये कवितायें उस कवयित्री ने लिखी हैं जो बहुत हड़बड़ी में थी जिसने अभी कल ही अपना देश खोया है । ये कवितायें उन लोगों को सम्बोधित हैं जो आनेवाले दिनों में अपना देश खो देंगे । क्योंकि वे सब भी बहुत हड़बड़ी में हैं । हम ऐसे समय में हैं जहाँ हर सुबह संज्ञाएँ बदल जाती हैं ,सर्वनाम वही रहते हैं पर क्रियायें बदल जाती हैं ।“
आप भी जानिये कुछ दून्या मिख़ाइल के बारे में - दून्या की पैदाइश 1965 की है ,उनके चार संग्रह आ चुके हैं 2001 में सन्युक्त राष्ट्र का “ फ्रीडम ऑफ राइटिंग अवार्ड “ मिला है । ईराक से उसे धमकियाँ मिली हैं ,जान बचाने की फिक्र मिली , बग़दाद की गलियों में लाशें चीख पुकार मिली , अंतत: 1996 में वह अपना वतन छोड़कर अमेरिका स्थित मिशिगन में जा बसी । बग़दाद से अंग्रेज़ी मे बी.ए. किया अमेरिका की वेन स्टेट यूनिवर्सिटी से एम.ए.किया और अब अरबी पढ़ाती हैं । “
प्रस्तुत है युद्ध और युद्ध की विभीषिकाओं को लेकर ,समय के महत्वपूर्ण सवालों से लड़ने वाली दून्या मिख़ाइल की यह कविता इसमें व्यंग्य की धार के साथ आप जंग के नये नये सन्दर्भ देख सकते हैं । हमने युद्ध की स्थितियों को ज़्यादा जिया नहीं है फिर भी हम जानते हैं, युद्ध से क्या क्या होता है भले ही राष्ट्रप्रेम की भावना के चलते बहुत सी बातों को हम अनदेखा करें । दून्या के शब्दों में कहें तो “ ईराक में मैने युद्ध को जिया है इसलिये मुझे पता है कि युद्ध क्या होता है । “ पढ़िये बिना किसी रूपक या बिम्ब के ,सरल सरल शब्दों में लिखी युद्ध के दूसरे पक्ष पर लिखी अंत में एक सवाल छोड़ जाने वाली एक अलग तरह की कविता । आप महसूस करेंगे इस कविता की हर पंक्ति मे एक नई कविता का विषय है |
जंग कितनी मेहनतकश है
कितनी अद्भुत होती है जंग
कितनी कर्मठ
कितनी हुनरमन्द
अलस्सुबह उठकर
वह जगाती है सायरन को
एम्बुलेंसों को रवाना करती है सब दूर
हवा में झुलाती है लाशों को
घायलों के आगे फिसलाती है स्ट्रेचर
मांओं की आँखों के लिये बुला लाती है बारिश
कितना खोदती है ज़मीन को
अपने फावड़े से
मलबे के भीतर से निकाल लाती है कितना कुछ
कुछ बेजान चमकती चीज़ें
बाक़ी मुर्दुस , फिर भी धड़कती हुई
यह बच्चों के दिमाग़ में
कई नये सवाल भरती है
आसमान में दाग़ती है मिसाइलें और आग के गोले
और ईश्वर का मनोरंजन करती है
यह खेतों में बोती है बारूदी सुरंग
उगाती है फफोले और मवाद
परिवारों से करती है आग्रह
कहीं और बसने का
और हाकिमों के साथ खड़ी रहती है
जब वे कोस रहे होते हैं शैतान को
( बेचारा शैतान ,उस वक़्त भी उसका एक हाथ
झुलस रहा होता है लपटदार आग में )
जंग दिन-रात करती रहती है अपना काम
बिना थके
यह आततायियों को लम्बे लम्बे भाषण देने को
प्रेरित करती है
सेनाध्यक्षों को देती है तमग़े
और कवियों को एक अदद विषय
यह कृत्रिम अंग बनाने वाले उद्योग को भी
सहारा देती है
मक्खियों और कीड़े- मकोड़ों के लिये जुटाती है भोजन
इतिहास की किताबों में जोड़ती पन्ने
मारे गये और हत्यारे के बीच समानता स्थापित करती है
प्रेमियों को सिखाती पत्र लिखना
लड़कियों को सिखाती है इंतज़ार करना
अख़बारों को देती है ख़बरें-तस्वीरें
अनाथों के लिये बनाती है नए-नए मकान
ताबूत बनाने वालों को व्यस्तता देती है
थपथपाती है क़ब्र खोदने वालों की पीठ
और नेता के चेहरे पर एक मुस्कान रंगती है
कितनी मेहनतकश होती है जंग
इतनी बेमिसाल है फिर भी
कोई इसे सराहता क्यों नहीं
- दून्या मिख़ाइल
मित्रों, आज यह सवाल नहीं पूछूंगा कि प्रतिदिन कविता दूँ या न दूँ । कई मित्रों ने फोन पर इस बात के लिये लताड़ा है । आप सभी लोगों के उत्साह को देखते हुए इस विचार के लिये शर्मिन्दा हूँ ..और फिर संकल्प तो संकल्प ही होता है ना , जैसे आपका वैसे मेरा । बहरहाल..नाज़ी फायरिंग स्क्वाड द्वारा जिसे गोली से उड़वा दिया वह ग्राज़्यना क्रोस्तोवस्का , डेनमार्क की शीमा कालबासी और अन्य कवयित्रियों की कविताओं के साथ अगले दिनों में आपकी प्रतीक्षा रहेगी – आपका शरद कोकास
अब तक आपने पढ़ा - फातिमा नावूत ,विस्वावा शिम्बोर्स्का और अन्ना अख़्मातोवा की कविता पढ़ने के बाद कल नवरात्रि के चौथे दिन आपने लातीन अमेरिका की कवयित्री गाब्रीएला मिस्त्राल की कविता “अपना हाथ मुझे दो “ पढ़ी ।
कविता के असली कदरदान - इस कविता पर समीर लाल,सुमन ,गिरिजेश राव ,कुलवंत हैप्पी , संजय भास्कर ,वन्दना ,खुशदीप सहगल , रश्मि रविजा ,सुशीला पुरी ,वन्दना अवस्थी दुबे , शिखा वार्ष्णेय ,रचना दीक्षित चन्दन कुमार झा , हिमांशु और बेचैन आत्मा की प्रतिक्रिया प्राप्त हुई । भाई अशोक कुमार पाण्डेय सम्मेलन में अपनी व्यस्तता के चलते विशेष टिप्पणी नहीं कर पाये । खैर आज की इस कविता के साथ दोनो कविताओं पर उनकी टिप्पणी प्राप्त होगी ऐसी उम्मीद है ।
आज की कविता के बारे में - आज की कविता का शीर्षक है “ मेज़ पर रखे हाथ “ । इसे लिखा है पाकिस्तान की कवयित्री अज़रा अब्बास ने और इसका उर्दू से अनुवाद किया है सलीम अंसारी ने । “अपना हाथ मुझे दो “ और “ मेज़ पर रखी हाथ “ में जो मूलभूत अंतर है उसकी तलाश आप यहाँ कर सकते हैं । निवेदन यही है कि ज़रा ठहर ठहरकर इन कविताओं को पढ़ें । यह कविता और कवि परिचय मैने ज्ञानरंजन जी की पत्रिका “ पहल “ से लिया है और ज्ञान जी ने इसका चयन पाकिस्तान के शायर व आलोचक अहमद हमेश की पत्रिका “तशक़ील” से किया है ।
अज़रा अब्बास कौन हैं – अज़रा अब्बास पाकिस्तान में नई पीढी की कलम कार हैं । अपनी आत्मकथा “ मेरा बचपन “ में उन्होने स्त्री होने के समसामयिक दुखों को झेलते हुए रूढ़ीवादी पाकिस्तानी समाज से कड़ा संघर्ष किया है । 1970 में उनका साहित्यिक सफर प्रारम्भ हुआ और उसी के साथ उनका विद्रोही हिस्सा प्रकट हुआ । अज़रा अब्बास की शैली में एक खुरदुरापन , गति और आक्रामकता है ।
आप सभी के प्रति आभार व्यक्त करते हुए ब्लॉग जगत के पाठकों के लिये प्रस्तुत है ,पाकिस्तान की कवयित्री अज़रा अब्बास की सरल सी लगने वाली यह कविता जो “हाथों “ पर लिखी होने के बावज़ूद सिर्फ हाथों पर लिखी कविता नहीं है, इसे ज़रा उनके परिचय के पेशे नज़र देखें ।
मेज़ पर रखे हाथ
मेज़ पर रखे हैं हाथ
हाथों को मेज़ पर से उठाती हूँ
फिर भी पड़े रहते हैं
मेज़ पर ,
और हँसते हैं
मेज़ पर रखे
अपने ही दो हाथों को
हाथों से उठाना मुश्किल होता है
मैं हाथों को
दाँतों से उठाती हूँ
पर हाथ नहीं उठते
मेज़ पर रह जाते हैं
दाँतों के निशानों से भरे हुए
साफित (स्थिर) और घूरते हुए
मैं भी हाथों को घूरती हूँ
मेज़ का रंग आँखों में भर जाता है
मैं आँखें बन्द कर लेती हूँ
सो जाती हूँ
मेज़ पर रखे हुए हाथों पर
सर रखकर ।
- अज़रा अब्बास
यह कविता आपको कैसी लगी ? अगले दिनो में प्रस्तुत करूंगा ईरान डेनमार्क मूल की शीबा काल्बासी ,अरबी कवयित्री दून्या मिख़ाइल की कवितायें और कुछ और कवितायें जो सिद्धेश्वर जी अशोक पाण्डेय जी और अ.कुमार पाण्डेय जी उपलब्ध करवायेंगे । बस यही निवेदन है कि अधिक से अधिक लोग यह कवितायें पढ़ें और इस साहित्यिक चर्चा में भाग लें । यह भी बतायें कि प्रतिदिन एक कविता कहीं मेरी ज़ल्दबाज़ी तो नहीं लग रही ?