मंगलवार, जून 26, 2012

1989 की कवितायें - सूरज को फाँसी

बेंजामिन मोलाइस , अफ्रिका के क्रांतिकारी कवि थे जिन्हें फाँसी दी गई थी । उनके लिये यह कविता ।


सूरज को फाँसी

रात्रि के अंतिम पहर में
कारपेट घास पर बैठ
सूरज को फाँसी देने की
योजना बनने वालों से
इतना कहना है
एक बार वे
योजना के गर्भ में झाँककर
सूरज और जल्लाद के
सम्बन्धों की
खुफिया जानकारी ले लें

जल्लाद दूर गाँव से बुलाया गया है
फाँसी के बाद पैसों के अलावा
इंटरव्यू छापने का आश्वासन है

उन्होने तय कर लिया है
किस तरह सूरज को बान्धकर
तख़्त तक ले जाया जायेगा
चेहरा ढाँकने के लिये
काले कपड़े की ज़रूरत होगी
ताकि उसकी नज़रों से निकलने वाली
 क्रांति की चिनगारियाँ
किसी के दिमाग़ में जज़्ब न हो

फन्दे के आकार पर भी बात जारी है
ताकि सूरज की नाक
बराबर दूरी पर
दायें या बायें रह सके

सूरज से उसकी अंतिम इच्छा पूछना
योजना में शामिल नहीं है
फाँसी से पूर्व की
सुरक्षा व्यवस्था के अंतर्गत
शामिल है
सूरज मुखी पौधों को जड़ से नष्ट करना
ताकि विद्रोह अंकुरित न हो

सूरज की लाश
उसके परिजनों को सौंपी जाये या नहीं
या कर दिया जाये उसका अंतिम संस्कार
सरकारी खर्चे पर
विचार इस पर भी जारी है

सूरज के आरोपपत्र में लिखा है अपराध
रोशनी और उष्मा के सन्दर्भ में
उसने महलों की नहीं
झोपड़ों की तरफदारी की है ।

                        शरद कोकास 

शनिवार, जून 23, 2012

1989 की कवितायें - संगीत की तलाश

चलिये 1988 की कवितायें हो गईं अब 1989 की कविताओं पर आते हैं । यह पहली कविता - संगीत की तलाश । संगीत किसे बुरा लगता है ? यह निहायत फालतू सा सवाल होगा ना । बचपन में स्कूल में पढ़ा था संगीत और कोलाहल में अंतर । उन दिनों जब मेरी उम्र दस साल थी मैंने भंडारा के भारतीय संगीत विद्यालय में गायन की कक्षा में प्रवेश लिया था । कुछ कारण ऐसे रहे कि मैं आगे अध्ययन नहीं कर पाया लेकिन संगीत की दीवानगी बनी रही । यह दीवानगी ऐसी थी कि मैं हर कहीं संगीत तलाशता था । इस तरह इस कविता की प्रारम्भिक पंक्तियों ने जन्म लिया लेकिन तब यह कविता नहीं बन पाई । यह कविता बनी अपनी अंतिम पंक्तियों में जाकर । आप स्वयं देख लीजिये । यहीं जाकर मुझे समझ में आया कि संगीत और कोलाहल में क्या अंतर होता है ।


संगीत की तलाश

मैं तलाशता हूँ संगीत
गली से गुजरते हुए
तांगे में जुते घोड़े की टापों में

मैं ढूँढता हूँ संगीत
घन चलाते हुए
लुहार के गले से निकली हुंकार में

रातों को किर्र किर्र करते
झींगुरों की ओर
ताकता हूँ अन्धेरे में
कोशिश करता हूँ सुनने की
वे क्या गाते हैं

टूटे खपरैलों के नीचे रखे
बर्तनो में टपकने वाले
पानी की टप-टप में
तेली के घाने की चूँ-चूँ चर्र चर्र में
चक्की की खड़-खड़ में
रेलगाड़ी की आवाज़ में
स्वर मिलाते हुए
गाता हूँ गुनगुनाता हूँ

टूट जाता है मेरा ताल
लय टूट जाती है
जब अचानक आसमान से
गुजरता है कोई बमवर्षक
वीभत्स हो उठता है मेरा संगीत
चांदमारी से आती है जब
गोलियाँ चलने की आवाज़
मेरा बच्चा इन आवाज़ों को सुनकर
तालियाँ बजाता है
घर से बाहर निकलकर
देखता है आसमान की ओर
खुश होता है

वह सचमुच अभी बच्चा है ।

             -- शरद कोकास 

मंगलवार, जून 19, 2012

1988 की कवितायें - नीन्द न आने की स्थिति में लिखी कवितायें - पाँच

नीन्द के बारे में कहीं कोई लिखित नियम नहीं होता । कभी ऐसा भी होता है कि बेहद थके होने के बावज़ूद नीन्द नहीं आती और कभी ऐसा भी होता है कि दिनभर सोते रहने के बावज़ूद भी नीन्द आ जाती है । लोग कहते हैं कि दिनभर मेहनत करने वाले मज़दूरों को रात जल्दी नीन्द आ जाती है लेकिन मैंने देखा है जब चिंतायें सर पर सवार हों तो मज़दूरों को भी नीन्द नहीं आती ।
किसी को किताब पढ़ते ही नीन्द आ जाती है तो किसी की नीन्द किताब पढ़ते हुए गायब हो जाती है । किसी को चाय पीने से नीन्द आ जाती है किसी की नीन्द चाय पीने से उड़ जाती है । जितना हम नीन्द के बारे में सोचते हैं उतना ही वह नहीं आती ।
खैर ऐसी कितनी ही बाते हैं जो मैं नीन्द न आने की स्थिति में सोचता हूँ । कभी कभी कोई कविता रात भर दिमाग में चलती रहती है । सुबह जागने के बाद कुछ भी याद नहीं रहता । ऐसा लगता है , लिख लेता तो कितना अच्छा होता । एक बार कोशिश भी की कागज और कलम लेकर सोने की । सुबह जब जागा तो एक दो अक्षरों के बाद कागज पर केवल लकीरें थीं ।
छोड़िये .. यह सब बातें तो चलती रहेंगी । फिलहाल पढ़िये नीन्द ना आने की स्थिति में लिखी एक छोटी सी प्रेम कविता । जी हाँ प्रेम कविता ही है .. पढ़िये तो सही ।

 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –पाँच

कितना मुश्किल होता है
नींद के बारे में सोचना
और नींन्द का न आना

नींद के स्थान पर
तुम्हे रखूँ
तब भी यही बात होगी

मैने
नींद न आने का कारण
खोज लिया है
मैं नींद से बहुत प्यार करता हूँ ।

                        शरद कोकास   

बुधवार, जून 13, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –चार


नींद ना आने की स्थिति में एक चित्र और देखिये 

नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –चार

नींद आखिर  उड़कर कहाँ जाती होगी
शहर बीच खड़ी अट्टालिकाओं में
या बाहरी सीमा पर बसी
गन्दी बस्तियों में

सहमी खड़ी रहती होगी चुपचाप
बेटी के ब्याह की फिक़्र में जागते
बूढ़े बाप की देहरी पर

कोशिश करती होगी
बेटी के बिछौने पर जाने की
जो जाग रही होगी
बाप की छाती पर  ।
                        शरद कोकास 

शुक्रवार, जून 08, 2012

1988 की कवितायें नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –तीन

और यह एक छोटी सी कविता , जो दर असल छोटी नहीं है -

नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –तीन



नींद न आने की स्थिति में
तारे गिनने का उपदेश देने वाले
खुद कभी तारे नहीं गिनते

उनके और तारों के बीच
हमेशा एक छत होती है
हमारी मिहनत से बनाई हुई ।

                        शरद कोकास 

सोमवार, जून 04, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता - 2

नींद न आने की स्थिति में लिखी कविताओं में से यह दूसरी कविता । यह कविता भी कुछ हल्के- फुल्के मूड में ही लिखी गई थी और व्यंग्य इसका केन्द्रीय भाव था । आगे चलकर इस विषय पर कुछ गम्भीर कवितायें आई हैं । लीजिये फिलहाल तो इसे पढ़िये और इसका मज़ा लीजिये ।


 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता – दो

नींद को कहीं
नज़र न लग गई हो
चचा ग़ालिब की
उन्हें मौत का ख़ौफ था
हमे ज़िन्दगी का है

आश्चर्य !
पीने के बावज़ूद
उन्हें नींद नहीं आती थी

आसमान की ओर देखते हुए
कोशिश में हूँ
बूझने की
चचा ग़ालिब ने यह शेर
शादी से पहले लिखा था
या बाद में ।
                        शरद कोकास 

शुक्रवार, जून 01, 2012

1988 की कवितायें - नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता - एक

यह उन दिनों की बात है जब सचमुच रातों को नींद नहीं आती थी । नींद न आने पर मैं कविता लिखता था और कविता लिखते ही नींद आ जाती थी । इस तरह जब पाँच - सात कवितायें बन गईं तो मैंने इस श्रंखला को नाम दिया ' नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता । इस श्रंखला की यह पहली कविता जो कथाकार मित्र मनोज रूपड़ा को बेहद पसन्द थी । वह इसे पढ़ता था और ज़ोर ज़ोर से हँसता था । अब क्यों हँसता था पता नहीं ?
लीजिये आप भी पढ़िये ।

 नींद न आने की स्थिति में लिखी कविता –एक

मुझे नींद नहीं आ रही है
आ रहे हैं विचार
ऊलजलूल
कितना मिलता है यह शब्द
उल्लुओं के नाम से

क्या उल्लू दिन को सोता है
उसे नौकरी नहीं करनी पड़ती होगी
मेरी तरह शायद

उल्लू तो ख़ैर
उल्लू ही होता है
उल्लू का नौकरी से क्या
लेकिन क्या उल्लू प्रेम भी करता है
क्या पता
शायद नहीं
उल्लू तो आखिर
उल्लू ही होता है ना
लेकिन फिर क्यों
वह जागता है रात भर

मैं भी कितना उल्लू हूँ
उल्लू और आदमी के बीच
खोज रहा हूँ
एक मूलभूत अंतर ।

                        शरद कोकास